एक रहस्यमय तालाब के ही इर्द-गिर्द हुई थी जम्मू शहर की उत्पत्ति!

अर्द्ध पर्वतीय क्षेत्र कंडी में तालाब पेयजल का प्रमुख स्रोत रहे हैं। 1960 के दशक के बाद तालाबों की बदहाली का दौर शुरू हुआ जो अब तक जारी है

By DTE Staff

On: Thursday 26 December 2019
 
तालाब लंबे समय से जम्मू के जीवन का हिस्सा रहे हैं और साठ के दशक के शुरू तक पेयजल का प्रमुख स्रोत थे (अजीत सिंह / सीएसई)

जम्मू क्षेत्र मुख्यतः उप-हिमालयी पहाड़ियों और उनसे सटे हुए मैदानों में पड़ता है। यहां लघु सिंचाई की परंपरा रही है। कुहल अथवा कुह्ल (शाखा नहरें) संभवतः इस क्षेत्र की सर्वाधिक प्राचीन सिंचाई प्रणाली का प्रतिनिधित्व करती हैं। सामाजिक प्रबंधन की एक सुविकसित प्रणाली के चलते कुहलों ने उच्च श्रेणी की क्षमता अर्जित कर ली। दुर्भाग्यवश, स्वतंत्रता के बाद सरकार द्वारा इन नहरों के अधिग्रहण के चलते कुहलों की व्यवस्था को भारी धक्का लगा।


अर्द्ध-पर्वतीय क्षेत्र कंडी में पेयजल के लिए तालाब अथवा कुंड पारंपरिक रूप से प्रमुख स्त्रोत रहे हैं। एक विस्तृत अध्ययन से पता चला कि तालाब बहुत लंबे समय से जम्मू की परंपरा में शामिल रहे हैं। पारंपरिक रूप से कम पानी वाले इस क्षेत्र में पानी के इस विशेष स्त्रोत के इर्द-गिर्द कई मिथक बुने गए हैं। 1960 के दशक तक, तालाब पेयजल का मुख्य स्त्रोत थे।

तालाब न केवल छोटे ग्राम समुदायों की सेवा करते थे, बल्कि राजशाही और उसकी सेनाओं के भी काम आते थे। शेरशाह सूरी के बेटे आलमसूर ने, जो अपने पिता के शासनकाल में लाहौर का सूबेदार था, कंडी पहाड़ियों के भीतरी इलाकों में चार किले बनवाए। जब शेरशाह की मृत्य के बाद मुगल बादशाह हुमायूं इस इलाके को फिर से हासिल करने में कामयाब हुआ, तब आलमसूर ने इन्हीं किलों में शहण ली। ये किले अलग-अलग पहाड़ियों पर स्थित हैं और इन तक पहुंचना बहुत कठिन है। इन किलों के भीतर बने बड़े तालाब सैनिकों और उनके स्वामियों की पानी की जरूरतें पूरी करते थे। इन किलों के भीतर स्थित गांव अब भी तालाब का ही पानी पीते हैं, क्योंकि नलके का पानी अभी तक वहां नहीं पहुंच पाया है।

एक लोकप्रिय मिथक यह है कि मौजूदा जम्मू शहर की उत्पत्ति एक रहस्यमय तालाब के ही इर्द-गिर्द हुई थी। एक लोककथा के अनुसार, राजा जंबूलोचन एक बार शिकार करते हुए तवी नदी के पार एक जंगल में चले गए। वहां उन्होंने एक शेर और एक बकरी को एक तालाब से पानी पीते देखा। उन्होंने शांति के प्रतीक के रूप में इसी स्थान के इर्द-गिर्द एक शहर बसाने का फैसला किया। यह तालाब पुरानी मंडी क्षेत्र में (डोगरी में मंडी का अर्थ महल होता है) शहर के कई अन्य तालाबों के साथ अभी पचास वर्ष पहले तक मौजूद था।

जम्मू शहर में तालाब जलापूर्ति के महत्वपूर्ण स्त्रोत थे। तवी नदी इसके किनारों पर रहने वाले लोगों की पेयजल जरूरतें पूरी करती थी। लेकिन बाकी शहर नदी के किनारों के काफी ऊपर एक पठार में स्थित था। शहर की जरूरतें कई तालाब पूरी करते थे, जिनमें से कुछ को 19वीं सदी के दौरान पक्का भी किया गया था।

जम्मू शहर के मुख्य तालाब थे-1877 में बना मुबारक मंडी तालाब, 1860 में बना रघुनाथ मंडी तालाब, 1875 में प्रिंस ऑफ वेल्स के दौरे के समय बना अजायबघर तालाब, पुंछ की रानी द्वारा बनवाया गया रानी तालाब, महाराजा रणवीर सिंह की एक रानी द्वारा बनवाया गया कहलूरी तालाब और 1880 में एक शाही रसोइए बुआ भूटानी द्वारा बनवाया गया रामतलाई नाम का एक छोटा तालाब। वहां कई अन्य कम महत्वपूर्ण तालाब और कुंड थे। तालाब खटिकान और तालाब टिल्लो नाम के मौजूदा मुहल्ले वहां मौजूद बड़े तालाबों के नाम पर ही बसे हुए हैं। रानी कहलूरी तालाब और बुआ भूटानी के रामतलाई को छोड़कर जम्मू शहर के बाकी सारे तालाब व्यापारिक भवन और पार्क बनवाने के लिए नष्ट किए जा चुके हैं।

अर्द्ध-पर्वतीय कंडी क्षेत्र में सोते और बावड़ियां प्रायः नहीं हैं, जिसके चलते इस क्षेत्र के जनसमुदाय की जरूरतें पूरी करने के लिए तालाब महत्वपूर्ण जल स्त्रोत बन जाते हैं। छह नदियां-रावी, उझ, बसंतार, तवी, चिनाब और मुनव्वर तवी कंडी क्षेत्र से ही होकर बहती हैं। ये नदियां गहरी घाटियों से होकर बहती हैं, जबकि इस क्षेत्र के गांव ऊंचे पठारों पर स्थित हैं। लिहाजा, इस क्षेत्र के लोगों को तालाब खुदवाने पड़े। जम्मू क्षेत्र के तालाब सूखे अर्द्ध-पर्वतीय क्षेत्र में लगभग तीन लाख हेक्टेयर के ऐसे क्षेत्र में स्थित हैं जो मैदानों और पर्वतीय क्षेत्र के बीच पड़ते हैं। वहां एक कनाल अथवा ज्यादा की माप वाले कुल 336 तालाब हैं, जो जम्मू और कठुआ जिलों में केंद्रित हैं। पुंछ, राजौरी और डोडा की ऊंची पहाड़ियों में शायद ही कोई तालाब मौजूद होगा। उधमपुर जिला मुख्यतः पर्वतीय है और उसमें और भी कम तालाब हैं। भूक्षेत्र की प्रकृति और तालाबों की संख्या और उनके आकार के बीच कोई संबंध मालूम पड़ता है। जम्मू जिला अपेक्षाकृत कम पर्वतीय है और इसमें अधिकतम संख्या में ऐसे तालाब हैं जो आकार में अपेक्षाकृत बड़े भी हैं।

ऐसे तालाब अर्द्ध-पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं, जबकि ऊंची पहाड़ियों में सोते मिलते हैं। जम्मू क्षेत्र में तीन किस्म के तालाब हैं- छप्परी, बड़े तालाब और पक्का तालाब। छप्परी उथले तालाब होते हैं और उनमें राजमिस्त्री का कोई काम नहीं होता। वे एक बारिश में भर जाते हैं और पशुओं तथा चरवाहों की जरूरतें पूरी करते हैं। ये गर्मियों में सूख भी जाते हैं। कंडी के लगभग सभी गांवों में बड़े तालाब हैं, जो साल भर उनकी जरूरतें पूरी करते हैं। इन तालाबों में तीन तरफ से राजमिस्त्री का काम हुआ रहता है और चौथी दिशा को बाहर से पानी बहकर भीतर आने के लिए खुला छोड़ दिया जाता है। इन तालाबों के किनारों पर जमाए गए पत्थर उच्चकोटि के होते हैं। पक्का तालाब कुलीन घरानों द्वारा बनाए गए थे और इनमें चूना-सुर्खी का काम किया गया था। साथ ही इनमें सीढ़ियों और चारदीवारियों की भी व्यवस्था की गई थी। ये मंदिरों और किलों के पास तथा राजमार्गों के किनारे बनाए गए थे। यह स्पष्ट नहीं है कि इनमें से कौन से खुदाई के जरिए बने थे और कौन से सिर्फ किनारे ऊंचे कर देने पर बन गए थे।

तालाब निर्माण स्थलों का चयन बहुत सावधानी से किया जाता था। मैदानी तालाबों के विपरीत, जिनका जलग्रहण क्षेत्र चारों तरफ होता है, कंडी के तालाब किसी मौसमी नाले के करीब बनाए जाते थे। बाढ़ के समय में इस नाले के पानी का एक हिस्सा इस तालाब की तरफ मोड़ दिया जाता था, लेकिन यह बात केवल उन बड़े तालाबों के लिए सच थी, जिनके तीन तरफ ऊंचे किनारे बने होते थे।

इन तालाबों की देखरेख के लिए एक बहुत सुव्यवस्थित सामूहिक प्रबंधन प्रणाली विकसित की गई थी। पानी के किफायती इस्तेमाल और इसके प्रदूषण को रोकने के लिए कड़ा नियंत्रण लागू किया जाता था। सामूहिक नेतृत्व यह सुनिश्चित करता था कि पेयजल तालाबों का जलग्रहण क्षेत्र स्वच्छ बना रहे। कई गांवों में मनुष्यों के लिए अलग तालाब होते थे, जिन पर पहरेदार बिठाए जाते थे और उन्हें ग्राम समुदायों की ओर से इसके लिए वेतन दिया जाता था कि वे पशुओं को इनका प्रयोग न करने दें। कई गांवों में हर परिवार से एक व्यक्ति क्रमवार ढंग से पहरेदारी किया करता था। तालाबों का निर्माण और उनकी नियमित मरम्मत प्रायः स्वैच्छिक श्रम द्वारा होती थी। यह परंपरा उन गांवों में अब भी बनी हुई जहां तालाब अब भी पेयजल के प्रमुख स्त्रोत हैं। लेकिन बाकी जगहों पर सामूहिक नेतृत्व में हुए क्षय के ही चलते इस परंपरा का भी लोप हो चुका है।

यद्यपि कंडी में औसत वार्षिक वर्षा लगभग 1,000 मिमी. हुआ करती है, फिर भी गर्मियों में इसे पानी की भारी कमी का सामना करना पड़ता है, क्योंकि वर्षा का वितरण वहां बहुत असमान है और जल बहाव बहुत ज्यादा है। मॉनसून के महीनों में बरसाती पानी का एक बड़ा हिस्सा कंडी क्षेत्र में वनों की भारी कटाई के चलते यूं ही बेकार चला जाता है। कंडी क्षेत्र की नाजुक जलवायु के चलते, जिसमें भूक्षरण का अंदेशा बहुत होता है, वहां के तालाब तेजी से गाद भरने की समस्या से ग्रस्त रहते हैं। अतः समय-समय पर उनसे गाद हटाना जरूरी हो जाता है।

पहले आमतौर पर गांव के बुजुर्गों द्वारा इस उद्देश्य के लिए कोई दिन निश्चित किया जाता है और हर परिवार को इसमें श्रम के लिए एक व्यक्ति को भेजना पड़ता है। यदि कोई परिवार अपना एक सदस्य नहीं भेज पाता तो वह उसके बदले में मजदूरी देकर एक मजदूर को भेजता था। उत्सवों के मौकों पर भी लोग तालाब के एक हिस्से की सफाई करते थे। जम्मू से 15 किमी. दूर श्यामाचक गांव में 15वीं सदी के एक अध्यात्मिक किसान नेता जिल्लों बाबा के भक्त अब भी हर साल नवंबर माह में लगने वाले झीरी मेले के दौरान तालाब की सफाई करते हैं।

कंडी क्षेत्र के लोगों के लिए तालाब निर्माण और उसका रख-रखाव लोक बुद्धि का काम था। सारे तालाबों के बाहर दो व्यवस्थाएं जरूर हुआ करती हैं। कपड़ा धोने के लिए एक सपाट पत्थर और पत्थर का बना हुआ एक बड़ी मांद जिसमें जानवरों के पीने के लिए पानी भरा रहता है। यह व्यवस्था वहां अब भी प्रचलित है। इस इलाके के तालाब बहुत छोटे हैं और मिस्त्रियों का काम उनमें से बहुत कम में ही है।

कंडी के सारे तालाबों के किनारे बरगद और पीपल के पेड़ हुआ करते थे। इन पेड़ों को धार्मिक महत्व दिया जाता था और ये जलवायु की दृष्टि से महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे। ये बड़े पेड़ राहगीरों और घरेलू पशुओें को छाया दिया करते थे और तालाब की सतह से वाष्पन के चलते होने वाले नुकसान को रोकते थे।

स्थानीय जनता ने अनुभव के जरिए यह भी सीख लिया था कि एक खास गहराई से ज्यादा तालाब की गाद नहीं निकाली जानी चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से काफी भुरभुरी सतह खुल जाएगी और इसके चलते तालाब की तली से होकर पानी नीचे रिस जाएगा। महीन गाद पानी का रिसाव रोकने के काम आती थी। तालाब की गाद को बतौर खाद इस्तेमाल करने के लिए एक तय मात्रा में ही निकाला जा सकता था। गाद की मिट्टी का इस्तेमाल कंडी क्षेत्र में कच्चे घरों की छतों, दीवारों-फर्शों के निर्माण में गारे के बतौर भी किया जाता था। आज भी इनमें से कुछ घरों की दीवारें उन पर बने रंगीन चित्रों के चलते सुंदर दृश्य उपस्थित करती हैं।

कंडी क्षेत्र की अत्यंत नाजुक जलवायु में ये तालाब महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे। दुर्भाग्यवश, इस सदी के मध्य तक टोंटी से पेयजल आपूर्ति ने इन तालाबों की उपेक्षा का रास्ता साफ किया। जमीन पर पड़ रहे आबादी के दबाव और सामूहिक संस्थाओं के पतन ने उनकी गिरावट को और तेज कर दिया।

जम्मू के तालाब सिंचाई के काम नहीं आते थे, फसलें ज्यादातर बारिश के पानी से होती थीं। वे स्थानीय जलवायु को ठंडा रखने में मदद करते थे। ड्रिप (बूंद-बूंद) सिंचाई की एक स्थानीय प्रणाली यहां बहुत पहले से ही मौजूद थी। किसी फल के पौधे के बगल में खुदे एक गड्ढे में एक छिदी तली वाला घड़ा रख दिया जाता था। घड़ा नियंत्रित ढंग से पानी छोड़ता था, जो पौधे की जड़ों के नजदीक की जमीन को नम रखता था और गर्मी की तनावपूर्ण अवधि का सामना करने में उसकी मदद करता था। पड़ोस के किसी तालाब से पानी उठाकर उस घड़े को भर दिया जाता था।

(“बूंदों की संस्कृति” पुस्तक से साभार)

 

 

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