जल बिन प्यासे शहर, भाग दो: जलसंकट से उबरने के लिए बेंगलुरु को करने होंगे ये काम

शहर को पानी की किल्लत से निपटने के लिए रिचार्ज, दोबारा इस्तेमाल और रिसाइकल करना जरूरी है

By Sushmita Sengupta, Swati Bhatia, M Raghuram, Coovercolly Indresh

On: Tuesday 14 May 2024
 
बेंग्लुरू में कृष्णप्पा लेयआउट के पास प्राइवेट वाटर टैप से पेयजल भरते कामगार (फोटो : रॉयटर्स)

बेंगलुरु में पानी की किल्लत कोई अचानक आई हुई समस्या नहीं है। ये समस्या सालों से धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। दरअसल, शहर का विकास ही इसकी झीलों और तालाबों को खत्म करके किया गया है, जोकि हमारे पानी की सुरक्षा के लिए बहुत जरूरी हैं। 93 फीसदी से ज्यादा शहर अब पक्का बन चुका है, जिससे बारिश के पानी के जमीन के अंदर जाने में मुश्किल होती है और जमीन का पानी दोबारा भर नहीं पाता है। साथ ही गंदे पानी के निपटारे का सही सिस्टम ना होने से जितना पानी बचा है वो भी दूषित हो जाता है। पिछले कई दशकों से शहर अपनी 70 फीसदी पानी की जरूरत के लिए 100 किलोमीटर दूर कावेरी नदी पर निर्भर हो गया है। इससे पानी किफायती नहीं रह जाता, इसे दूर से लाना भी मुश्किल होता है। अब वक्त आ गया है कि बेंगलुरु कावेरी नदी के अलावा अपने पानी के स्रोतों को बढ़ाए। इसके लिए जमीन के अंदर पानी को दोबारा भरने के उपाय करने चाहिए और इस्तेमाल किए गए पानी को साफ करके दोबारा इस्तेमाल करने पर ध्यान देना चाहिए। पेश है दिल्ली से सुष्मिता सेनगुप्ता के साथ स्वाति भाटिया और बेंगलुरु से एम रघुराम के साथ कूवरकोली इंद्रेश की रिपोर्ट की पहली कड़ी के बाद प्रस्तुत है अगली कड़ी - 

 

13 मार्च को, जब डाउन टू अर्थ की टीम बेंगलुरु वॉटर सप्लाई एंड सीवरेज बोर्ड (बीडब्ल्यूएसएसबी) के मुख्य अभियंता राजीव के एन से मिली, तो वे शहर को हाल के दिनों के सबसे खराब पानी के संकट से निकालने के लिए रणनीति बना रहे थे। हालांकि, राजीव को भरोसा था कि स्थिति इतनी गंभीर नहीं है। उन्होंने कहा, “इस मुद्दे का राजनीतिकरण किया गया है। हमारे पास जुलाई तक चलने के लिए पर्याप्त पानी है, जब मॉनसून की बारिश से जलाशय भर जाएंगे।”

शहर प्रशासन मौजूदा पानी संकट के लिए 2023 में कम बारिश को जिम्मेदार ठहराता है। लेकिन अगर इस साल भी बारिश कम होती है, तो क्या होगा? डाउन टू अर्थ की टीम जिस किसी बीडब्ल्यूएसएसबी अधिकारी से मिली, उनमें से कोई भी इस सवाल का जवाब देने को तैयार नहीं था।

हकीकत यह है कि बेंगलुरु का संकट पानी की समस्या नहीं है, बल्कि प्रबंधन की समस्या है। बेंगलुरु कभी भी पानी से भरपूर क्षेत्र नहीं रहा है। अर्ध-शुष्क प्रायद्वीपीय पठार क्षेत्र में स्थित होने के कारण शहर में प्राकृतिक रूप से पानी की कमी रहती है। अर्कावती की एक छोटी सी सहायक नदी वृषाभवती  शहर के भीतर निकलने वाली और उसमें से बहने वाली एकमात्र धारा है।

इसकी कठोर चट्टानी जमीन जलग्रहण क्षेत्र को अभेद्य बना देती है, जिसके परिणामस्वरूप सतह पर तेजी से पानी बह जाता है। इसलिए ऐतिहासिक रूप से शहर अपनी सभी पानी की जरूरतों के लिए झीलों, तालाबों और कुओं पर निर्भर करता था। 15वीं शताब्दी में शहर की स्थापना करने वाले केम्पे गौड़ा इस क्षेत्र में तालाब और कुंड बनाने वालों में सबसे प्रमुख थे।

इन जल निकायों को वर्षा जल को इकट्ठा करने के लिए डिजाइन किया गया था, जिससे भूजल का पुनर्भरण होता था और अतिरिक्त वर्षा जल को एक झील से दूसरी झील में जाने देने से बाढ़ को कम किया जाता था। भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) बेंगलुरु द्वारा 2017 की एक रिपोर्ट का अनुमान है कि 18वीं सदी के दौरान, बेंगलुरु में 741 वर्ग किमी में फैली 1,452 जल निकायों की एक जटिल प्रणाली थी, जिसकी भंडारण क्षमता 35 हजार मिलियन क्यूबिक फीट (टीएमसी) या 990,000 मिलियन लीटर थी।

आधुनिक बेंगलुरु ने इस सुरक्षा प्रणाली को त्याग दिया। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा 2012 में प्रकाशित एक रिपोर्ट एक्सक्रिटा मैटर्स में बताया गया है कि सरकार ने 2011 तक जानबूझकर कई जल निकायों का अधिग्रहण कर लिया था और उन पर निर्माण कर दिया था। उदाहरण के लिए, सिटी कॉर्पोरेशन ने धर्मम्बुधि तालाब को पाटकर शहर का बस टर्मिनल बनाया; केंटीरवा स्टेडियम एक अन्य तालाब पर बना है; वहीं सिद्दीकट्टे तालाब को स्थानीय बाजार में बदल दिया गया है।

2017 की आईआईएससी रिपोर्ट के अनुसार, 2011 तक शहर में 193 जल निकाय बचे थे, जिनकी भंडारण क्षमता 5 टीएमसी या 140,000 मिलियन लीटर थी। लेकिन सिल्ट जमा होने के कारण यह क्षमता घटकर 2017 तक 1.2 टीएमसी या 33,000 मिलियन लीटर रह गई। सिर्फ छह सालों में भंडारण क्षमता में 76 प्रतिशत की कमी आई है। जून 2016 के करंट साइंस के एक अतिथि संपादकीय में लिखा गया, “2015-16 के दौरान 105 झीलों की फील्ड स्टडी करने पर पता चला कि 98 फीसदी झीलों पर अवैध निर्माण (ऊंची इमारतें, व्यावसायिक इमारतें, झुग्गियां आदि) के लिए अतिक्रमण कर लिया गया है और 90 फीसदी झीलों में सीवेज का पानी मिल रहा है। साथ ही, झीलों के जलग्रहण क्षेत्रों का इस्तेमाल या तो नगरपालिका के ठोस कचरे या निर्माण मलबे को फेंकने के लिए किया जा रहा है।”

इस संपादकीय के सह-लेखक आईआईएससी के सेंटर फॉर इकोलॉजिकल साइंसेज के प्रमुख टी वी रामचंद्र थे, जिन्होंने 2017 के आईआईएससी अध्ययन का भी नेतृत्व किया था। उनका आकलन आगे बताता है कि 1973 और 2017 के बीच, शहर में पक्के सतह या कंक्रीटीकरण में 1,028 प्रतिशत की वृद्धि हुई; इसके परिणामस्वरूप हरित क्षेत्रों में 88 प्रतिशत और आर्द्रभूमि में 79 प्रतिशत की कमी आई।

स्रोत: सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट द्वारा “एक्स्ट्रिटा मैटर्स”, 2012

पानी का असमान वितरण

आईआईएससी की रिपोर्ट के अनुसार 2017 तक बेंगलुरु की विकास दर 76 प्रतिशत थी, जो एशिया में सबसे तेज थी। 1988 तक, शहर भारत की सॉफ्टवेयर राजधानी के रूप में उभरा और तब से लगातार बढ़ता गया है। तेजी से बढ़ते उद्योगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए शहर ने बार-बार अपने आसपास के नए इलाकों को शामिल करके और “विश्वसनीय” जल स्रोत की तलाश का विस्तार करके अपना दायरा बढ़ाया। 1974 के आसपास, महत्वाकांक्षी कावेरी जल आपूर्ति योजना की शुरुआत की गई, जिसके लिए नदी के पानी को 490 मीटर की ऊंचाई तक पंप करके 90 किलोमीटर से अधिक दूर ले जाना जरूरी था।

पिछले 50 वर्षों में, बीडब्ल्यूएसएसबी ने चार चरणों में कावेरी से पानी की आपूर्ति को बढ़ाकर 1,450 मिलियन लीटर प्रति दिन (एमएलडी) कर दिया है। फिर भी यह शहर की मांग को पूरा करने में नाकाम रहा है। आज, बेंगलुरु महानगरीय क्षेत्र 800 वर्ग किमी में फैला हुआ है, जिसमें बेंगलुरु का मुख्य क्षेत्र (245 वर्ग किमी), आठ शहरी स्थानीय निकाय (330 वर्ग किमी) और 110 गांव (225 वर्ग किमी) शामिल हैं, जिसकी जनसंख्या 1.32 करोड़ है। बीडब्ल्यूएसएसबी का अनुमान है कि शहर की कुल पानी की मांग 2,100 एमएलडी है, लेकिन यह केवल 80 प्रतिशत ही आपूर्ति कर पाता है, जिसमें 1,450 एमएलडी कावेरी से और अन्य 300-400 एमएलडी भूजल से। शहर के बाहरी इलाकों में लगभग 110 गांव और व्यापार केंद्र इसके पानी आपूर्ति नेटवर्क से बाहर हैं और भूजल पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं। इसलिए बीडब्ल्यूएसएसबी बाहरी इलाकों के लिए और 750 एमएलडी हासिल करने के लिए कावेरी जल आपूर्ति योजना के पांचवे चरण पर काम कर रहा है।

लेकिन बीडब्ल्यूएसएसबी के अपने अनुमान बताते हैं कि शहर अभी भी अपनी आबादी की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिए, 2031 तक, शहर की आबादी 1.43 करोड़ हो जाएगी, जिसकी पानी की मांग 2,900 एमएलडी होगी। कावेरी जल आपूर्ति योजना के चरण 5 के माध्यम से प्राप्त 750 एमएलडी के साथ भी, बीडब्ल्यूएसएसबी केवल 2,600 एमएलडी (चरण 4 कावेरी योजना से 1,450 एमएलडी + चरण 5 कावेरी योजना से 750 एमएलडी + भूजल से 400 एमएलडी) की आपूर्ति कर सकेगा।

बेंगलुरु अपने “पाइपलाइन” के सपने को पूरा करने की कोशिश में और भी खराब स्थिति में फंसता जा रहा है। इस प्रक्रिया में उसने ऐसी आपूर्ति प्रणाली बना ली है, जिस पर बहुत अधिक पैसा और संसाधन खर्च करने पड़ते हैं। इससे पानी का संकट और भी गंभीर हो जाता है।

बेंगलुरु अपनी ज्यादातर पानी की जरूरत के लिए फिलहाल 100 किलोमीटर दूर स्थित कावेरी नदी पर निर्भर करता है। लेकिन पानी का वितरण नेटवर्क जितना लंबा होता है, उतना ही ज्यादा पानी रिसाव के कारण बर्बाद होता है। 2019 में प्रकाशित इंटरनेशनल जर्नल ऑफ रिसर्च एंड एनालिटिकल रिव्यूज के एक रिसर्च के अनुसार बेंगलुरु में रिसाव के कारण होने वाली पानी की बर्बादी 35-40 फीसदी है। इसका मतलब है कि, भले ही बीडब्ल्यूएसएसबी 1,450 एमएलडी पानी की आपूर्ति करने का दावा करता है, लेकिन असल में लोगों तक सिर्फ 1,053 एमएलडी पानी ही पहुंच पाता है। दूसरे शब्दों में, बेंगलुरु में रहने वाले व्यक्ति को प्रतिदिन केवल 81 लीटर पानी ही मिलता है। यह केंद्रीय लोक स्वास्थ्य और पर्यावरण इंजीनियरिंग संगठन (सीपीएचईईओ) द्वारा निर्धारित मानक से बहुत कम है।

सीपीएचईईओ का कहना है कि महानगर के एक व्यक्ति को प्रतिदिन 150 लीटर पानी मिलना चाहिए। वहीं, बीडब्ल्यूएसएसबी का दावा है कि बेंगलुरु में एक व्यक्ति औसतन 108 लीटर पानी प्रतिदिन इस्तेमाल करता है। 2014 में केरल के कोझिकोड स्थित इंटरनेशनल सिंपोसियम ऑन इंटिग्रेटेड वॉटर रिसोर्सेज मैनेजमेंट की तरफ से प्रकाशित एक अध्ययन में असमान वितरण पर चिंता जाहिर किया गया। शहर के मुख्य इलाकों में पानी की आपूर्ति 100 फीसदी है, जबकि बाहरी इलाकों में यह 10 से 60 फीसदी के बीच ही है।

प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 100 से 125 लीटर प्रतिदिन और 40-45 लीटर प्रतिदिन है यानी भारी असमानता है। पाइपलाइन के पास वाले दक्षिणी और पश्चिमी इलाकों में उत्तरी इलाकों की तुलना में अधिक पानी मिलता है। हालांकि वितरण नेटवर्क को सुधारने और रिसाव को रोकने की सख्त जरूरत है, लेकिन बीडब्ल्यूएसएसबी के पास पैसे की कमी है। बीडब्ल्यूएसएसबी के अनुसार, भारी मात्रा में कावेरी का पानी शहर तक पहुंचाने के लिए जितनी बिजली की जरूरत होती है, उसका वार्षिक खर्च लगभग ₹1,020 करोड़ आता है, जो उसके सालाना खर्च का लगभग आधा है।

बीडब्ल्यूएसएसएस को हर साल औसतन ₹390 करोड़ का घाटा होता है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि बेंगलुरु में पानी का शुल्क देश के सबसे ऊंचे शुल्कों में से एक है। घरेलू उपयोग के लिए, बीडब्ल्यूएसएसएस 75 किलोलीटर से अधिक पानी इस्तेमाल करने पर ₹45 प्रति किलोलीटर का शुल्क लेता है, जबकि हैदराबाद में 200 किलोलीटर से अधिक पानी इस्तेमाल करने पर यह शुल्क ₹40 प्रति किलोलीटर है। पानी की अपर्याप्त आपूर्ति, असमान वितरण और उच्च जल शुल्क ने भूजल पर निर्भरता बढ़ा दी है। और यहीं से पानी के कुप्रबंधन की दूसरी परत का पता चलता है।

स्रोत : फ्रीक्वेंट फ्लड्स इन बेंग्लुरू : कॉजेज एंड रेमिडेयल मेजर्स, ईएनवीआईएस टेक्निकल रिपोर्ट 123, एनवॉयरमेंटल इन्फोर्मेशन सिस्टम, सीईएस, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज, बेंग्लुरू (मानचित्र मापने के लिए नहीं)

पढ़ें अगली कड़ी - जल बिन प्यासे शहर, भाग तीन: डे जीरो की ओर बढ़ रहे महानगर, बेंगलुरु बना मिसाल 

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