चौमास कथा-1: 8 करोड़ साल पहले शुरू हुआ मानसून को बूझना हुआ मुश्किल

करीब 8 करोड़ साल पहले मानसून अस्तित्व में आया था। लेकिन यह आज भी रहस्यमयी बना हुआ है। चुटकी में करोड़ों संख्यात्मक गणनाओं को हल करने वाला सुपर कंप्यूटर भी मानसून के व्यवहार को नहीं पकड़ पा रहा है। जलवायु परिवर्तन ने इसे और अप्रत्याशित बना दिया है। ऐसा क्या है जिससे हर वर्ष मानसून आता-जाता है और बदले में कभी समृद्धि तो कभी अकाल जैसी स्थितियां पैदा कर देता है। 

By Vivek Mishra, Anil Ashwani Sharma, Vibha Varshney, Raju Sajwan, Akshit Sangomla, Bhagirath Srivas

On: Tuesday 16 August 2022
 
पेंटिंग्स: योगेन्द्र आनंद

करोड़ों वर्ष पहले...

यह आज भी रहस्य है कि मानसून के दौरान कहां पर कितनी बारिश होगी

उत्तराखंड में मुख्य सचिव से लेकर जिलाधिकारी तक पूरे मानसून के दौरान अवकाश नहीं ले सकेंगे।” राज्य में 5 जुलाई, 2022 को दिए गए इस आदेश से पता चलता है कि मानसून और आपदा एक दूसरे के हमजोली हो गए हैं और मानसून में खास प्रबंधन के लिए अधिकारियों का होना जरूरी होगा। अधिकारियों के बीच मानसून में लंबे अवकाश का रिवाज सा बन गया था। लेकिन बीते कुछ वर्षों में मानसून के दौरान लगातार बदलते मौसम के मिजाज ने असमय भारी वर्षा, भूस्खलन, बादल फटने जैसी घटनाओं को तेज कर दिया है।

पिछले कुछ वर्षों से मानसून में अफरा-तफरी के कई तरह के उदाहरण पैदा हुए हैं। खेती-किसानी के लिए उत्सव वाला मानसून दुखद मौसम बनकर आ रहा है। इस साल मानसून के दौरान वर्षा की अनिश्चितता ने कई कृषि प्रधान राज्यों को बुआई की तारीखों को आगे-पीछे करने के लिए विवश कर दिया। यहां तक कि कुछ किसान वर्षा के इंतजार में अपने खेतों में हल तक नहीं लगा पाए। कई बार मानसून सूखा लेकर आता है और हमें वर्षा के महत्व की सीख देकर चला जाता है। कहते हैं कि एक अच्छा मानसून वरदान है तो एक खराब मानसून अभिशाप। 2022 के मानसून ने अन्नदाता से लेकर नीति निर्माता तक की धड़कने बढ़ा रखी हैं।

उत्तर प्रदेश का कौशांबी जिला सूखे जैसी मार झेल रहा है। इस जिले में मानसून सीजन में 20 जुलाई, 2022 तक 142.7 मिलीमीटर (एमएम) सामान्य बारिश होती है लेकिन इस वर्ष समान अवधि में 3.2 एमएम ही वर्षा हुई। यानी वर्षा में 98 फीसदी कमी रही। कौशांबी में खरीफ सीजन में प्रमुख रूप से धान की पैदावार होती है। लेकिन इस बार पेट्रोल-डीजल महंगा होने के कारण किसान सिंचाई के लिए जमीन से भी पानी निकालने की नहीं सोच रहे। पूरे प्रदेश में लक्ष्य का महज 45 फीसदी रकबा धान अभी तक बोया जा सका है। सरकार अगस्त में सूखे की घोषणा पर विचार करने के लिए बैठक की तैयारी कर रही है।

वहीं दूसरी ओर मानसून की वजह से असम, गुजरात-महाराष्ट्र और राजस्थान में बाढ़ आई हुई है। इतना अप्रत्याशित होते मौसम ने पहले तय की गई तारीखों को बिगाड़ दिया है। हमें धन-धान्य से भरने वाला मानसून अप्रत्याशित और निरंतर बदलाव वाला बना हुआ है और इस बदलाव की गुत्थी को वैज्ञानिक सैकड़ों वर्षों से समझने और सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। वैज्ञानिक यह तो जानते हैं कि मानसून आएगा, लेकिन कब किस हिस्से में कितनी वर्षा लेकर आएगा यह उनके लिए अबूझ पहेली बनी रहती है। मानसून एक बेहद जटिल व्यवस्था है जो कि वैश्विक संचरण (ग्लोबल सर्कुलेशन) से गहरा जुड़ा हुआ है। शोधार्थियों के सामने यह चुनौती है कि वह नहीं जानते कि पवनों का आपस में मिलना क्या महासागरों के जरिए मूसलाधार वर्षा कराएगा या फिर उपमहाद्वीप में सूखा लेकर आएगा। विभिन्न वायुमंडल के स्तरों में तेजी से गतिशील जेटस्ट्रीम, लो-प्रेशर सिस्टम, उच्च तापमान, एशियाई स्नो कवर, हिमालय के बढ़ने जैसी जटिल सूचनाएं भी मानसून की गुत्थी नहीं सुलझाती। हालांकि, अब तक जितना मानसून के बुनियादी सिद्धांतों को समझ लिया गया है, उसमें भारतीय ग्रीष्म मानसून सबसे अहम है।

पेंटिंग्स: योगेन्द्र आनंदभारत के दो मानसून सिस्टम

सूर्य मार्च महीने में भूमध्य रेखा (इक्वेटर) पर क्षैतिज (वर्टिकल) होता है। जैसे ही सूर्य की ज्यादा गर्मी उत्तरी गोलार्द्ध में जाती है वैसे ही भारत में गर्मी शुरु हो जाती है। सूर्य की तपन से भूमध्य रेखा पर लो प्रेशर बेल्ट बनता है। इस लो प्रेशर बेल्ट के कारण उत्तरी गोलार्द्ध और दक्षिणी गोलार्द्ध से आने वाली व्यापारिक पवनें आपस में भूमध्य रेखा पर मिल जाती हैं जिससे इंटर ट्रॉपिकल कन्वर्जेंस जोन (आईटीसीजेड) और डोलड्रम का निर्माण होता है। सूर्य हर महीने आठ डिग्री अक्षांश ऊपर यानी उत्तर की ओर खिसकता है। ऐसे में जैसे ही सूर्य अप्रैल महीने में उत्तर में 8 डिग्री अंक्षाश यानी भारत में कन्याकुमारी पर होता है, आईटीसीजेड का पूरा सिस्टम भी ऊपर उत्तर की तरफ खिसक जाता है। वहीं, दक्षिण गोलार्द्ध से आने वाली व्यापारिक पवनें अब इक्वेटर को पार करके फेरल के नियम का पालन करते हुए अपने दाएं मुड़कर आईटीसीजेड से टकराती है और भारतीय उपमहाद्वीप में दक्षिण-पश्चिम मानसून के आगमन की प्रक्रिया शुरु हो जाती है। ऐसे ही जुलाई तक आईटीसीजेड की पट्टी कर्क रेखा की ओर उत्तर में राजस्थान के थार क्षेत्र तक खिसकती रहती है और पूरे भारत में मानसून फैल जाता है। सुदूर महासागरों से यात्रा करते हुए मानसून भारत में एक जून को केरल के तट पर टकराता है।

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने मानसून के केरल तट पर पहुंचने की तारीख एक जून तय की है। इसके बावजूद मानसून के आने के समय में थोड़ा-बहुत बदलाव होता रहता है। गर्मी के इस मानसून को हम दक्षिणी-पश्चिमी मानसून भी कहते हैं। यानी अरब सागर और बंगाल की खाड़ी की तरफ से आने वाली नम हवाएं। दुनिया में जितने भी मानसून सिस्टम हैं उनमें गर्मी का मानसून (दक्षिण-पश्चिम) सर्वाधिक शक्तिशाली है। इसे एशियाई मानसून भी कहते हैं।

दक्षिणी-पश्चिमी मानसून की विदाई तय होती है। यह 17 सितंबर में राजस्थान -थार क्षेत्र से महासागरों की तरफ विदाई करता है। मानसूनी पवनें वापस पलट जाती हैं और यह हमें शीतकालीन मानसून या पूर्वोत्तर मानसून देता है। जो भारत के तमिलनाडु, पुदुचेरी, कराइकल, यनम, तटीय आंध्र प्रदेश, केरल, उत्तर आंतरिक कर्नाटक, माहे और लक्षद्वीप के लिए महत्वपूर्ण होता है। दक्षिणी-पश्चिमी मानसून में 70 फीसदी तो शीतकालीन मानसून में सिर्फ दक्षिणी प्रायद्वीप में 30 फीसदी वर्षा होती है।

भारत में “मानसून के पितामह” कहे जाने वाले दिवंगत मौसम वैज्ञानिक पीआर पिशारोती ने यह बताया था कि एक पूरे साल के 8,765 घंटों में से महज 100 घंटों में मानसून हमारे लिए कुल वर्षा जल लेकर लाता है। यह भी बेहद आश्चर्य से भरा हुआ है कि सुदूर महासागरों से पानी का विशाल संग्रह बादलों में लिपटकर धरती पर बरस जाता है। आखिर प्रकृति की वह ताकतें क्या हैं जो मानसून जैसे महाशक्तिशाली व्यवस्था को कुछ घंटों में सफल कर देती हैं? आखिर मानसून है क्या?

मानसून मतलब पवन

दुनिया भर में प्रचलित “मानसून” शब्द अरब के मौसिम शब्द से उत्पन्न हुआ है। इसका अर्थ होता है ऋतु या सीजन। मानसून का जिक्र ऋग्वेद से लेकर ग्रीक और गौतम बुद्ध के रचना संसार में भी है। इस आधार पर सामान्य तौर पर जब भी हम मानसून कहते हैं तो हमारा ध्यान पूरी तरह वर्षा की तरफ चला जाता है। शायद इसीलिए देश के अलग-अलग हिस्सों में वर्षा के सैकड़ों नाम हैं। लेकिन वैज्ञानिक मानसून अध्ययन के लिए वर्षा पर कम,“पवनों” के अध्ययन पर ज्यादा निर्भर हैं।

मानसून को सरल शब्दों में कहें तो इसे “रिवर्सल ऑफ विंड” कहते हैं। यानी एक दिशा से कम से कम 120 डिग्री या पूरी तरह 180 डिग्री तक पवनों का पलट जाना। दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉ बीआर अंबेडकर कॉलेज के प्रोफेसर डॉक्टर जितेंद्र सरोहा इंटरनेशल जर्नल ऑफ रिसर्च एंड एनालिटिकल रीव्यू में प्रकाशित अपने शोधपत्र “इंडियन मानसून ओरिजिन एंड मैकेनिज्म” में बताते हैं कि मानसूनी पवन को पहली बार वैज्ञानिक तौर पर दसवीं शताब्दी में अरब के बगदाद में अल मसूदी ने परिभाषित किया था। अलमसूदी को अरब के हेरोडोटस की उपाधि मिली है। हेरोडोटस को इतिहास का पिता माना जाता है। अल मसूदी ने वैज्ञानिक तौर पर महासागरीय धारा (ओसियन करेंट) की वापसी और उत्तर हिंद महासागर (नॉर्थ इंडियन ऑसियन) के ऊपर मानसूनी हवाओं के बारे में वैज्ञानिक सबूत उपलब्ध कराए। वहीं, ऑटोमन साम्राज्य में नाविक सीदी अली ने अपनी यात्राओं को किताब की शक्ल दी और पहली बार 1554 में मानसून की तारीखों को दर्ज किया।

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेट्रोलॉजी के मौसम वैज्ञानिक रॉक्सी मैथ्यू कॉल बताते हैं कि मानसून को समझने के लिए पवनों का अत्यधिक महत्व है। नाविक अक्सर एक देश से सुदूर देश जाने के लिए महासागरों का रास्ता पकड़ते थे, जिसका मुख्य मकसद नई जगहों की खोज और व्यापार होता था। इसके लिए उन्हें पवनों का रास्ता और व्यवहार पता करते रहना पड़ता था, मानसून की समझ के लिए यह बेहद अहम था। आज हम इन्हें व्यापारिक पवनें (ट्रेड विंड) कहते हैं। कई प्रवासी पक्षी भी इन्हीं पवनों के सहारे हजारों मील का सफर तय करते हैं।

मानसून की इस गुत्थी में व्यापारिक पवनें यानी ट्रेड विंड एक अहम कारक हैं। पृथ्वी का नक्शा उठाइए। अब आप इस नक्शे को एकदम बीच से नीचे के तरफ दक्षिणी और ऊपरी हिस्से को उत्तरी गोलार्द्ध में बांट दीजिए। दोनों गोलार्द्ध में 35 से 23.5 डिग्री अक्षांश पर उपोष्ण उच्च वायुदाब कटिबंध (सब ट्रॉपिकल हाई प्रेशर बेल्ट) होता है। इन दोनों उच्च वायुदाब कटिबंध से शून्य डिग्री अक्षांश पर मौजूद भूमध्यरेखीय निम्न वायुदाब कटिबंध (ईक्यूटोरियल लो प्रेशर बेल्ट) के बीच में व्यापारिक पवनें पूरे वर्ष बहती हैं। जैसा कि नियम है कि उच्चदाब से न्यूनतम दाब की तरफ हवाएं आकर्षित होती हैं। तो ऐसे हम कह सकते हैं कि दक्षिणी गोलार्द्ध से उत्तरी गोलार्द्ध और उत्तरी गोलार्द्ध से दक्षिणी गोलार्द्ध की तरफ सीधा व्यापारिक पवनों को बहना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता।

वर्षा वाले बादलों का निर्माण

वैज्ञानिक फेरल के नियम के मुताबिक उच्चदाब क्षेत्र से न्यूनदाब की तरफ आने वाली नम हवाएं अपनी दिशा कोरिऑलिस बल के कारण बदल देती हैं। इसलिए उत्तरी गोलार्द्ध से भूमध्य रेखा की तरफ आने वाली व्यापारिक पवनें अपने दायीं तरफ (उत्तर पूर्व) और दक्षिणी गोलार्द्ध से भूमध्य रेखा की तरफ आने वाली व्यापारिक पवनें अपने बायीं तरफ (दक्षिण पूर्व) मुड़ जाती हैं। यह दोनों पवनें आपस में मिलकर भूमध्य रेखा पर इंटर ट्रॉपिकल कन्वर्जेंस जोन (आईटीसीजेड) का निर्माण करती हैं। जिससे वर्षा वाले सघन बादलों का निर्माण होता है जिससे भूमध्यरेखा के पास पूर्व से पश्चिम की तरफ देखें तो 3,000 किलोमीटर का चौड़ा और उत्तर से दक्षिण की तरफ देखें तो 300 से 500 किलोमीटर लंबी जगह पर बादलों की एक पट्टी बनती है जो वर्षा का कारण बनती है।

जनवरी महीने में आईटीसीजेड भूमध्यरेखा के दक्षिण में होता है जिस कारण दक्षिणी अफ्रीका, दक्षिणी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में वर्षा होती है। (देखें : ऐसे आता है मानसून,) आईटीसीजेड धीरे-धीरे मार्च में उत्तर की ओर और भूमध्य रेखा की तरफ बढ़ता है। मार्च में ही भारतीय उपमहाद्वीप की भूमि गर्म होना शुरू होती है और मई में उत्तर और उत्तर-पश्चिम की तरफ निम्न वायुदाब क्षेत्र का निर्माण करती है। यह निम्नवायु दाब क्षेत्र आईटीसीजेड को उत्तर की तरफ ढकेलता है फिर आईटीसीजेड मानसून ट्रफ से मिल जाता है, जिसके बाद भारत में जून में वर्षा होती है। जुलाई तक आईटीसीजेड पूरी कर्क रेखा पर फैल जाता है। ऐसे में बादलों की सघन अवस्था भूमध्य रेखा और न्यूनदाब क्षेत्र में सबसे अधिक वर्षा करती है। इसी वर्षा के कारण भूमध्य रेखा का क्षेत्र सबसे हरा-भरा यानी जैवविविधताओं वाला है। इसकी पुष्टि हाल ही में एक प्रवासी पक्षी ने 40 हजार किलोमीटर की यात्रा पूरी करके की।

मानचित्र: पुलाहा रॉय, संजीत कुमार

दुनिया में पहली बार एक मंगोलियाई कुकू पक्षी के प्रवास का रास्ता ट्रैक किया गया। जून, 2019 में शुरु हुई कुकू पक्षी दल की यात्रा कुल 16 महीनों तक चली थी। इसमें पक्षी दल ने 17 देशों की प्रवास यात्रा की थी। इस ट्रैकिंग परियोजना की शुरुआत करने वाले बर्ड बीजिंग के संस्थापक टेरी टाउनशेंड ने डाउन टू अर्थ को बताया कि इस यात्रा में ओनन नाम के कुकू पक्षी ने मंगोलिया से अफ्रीका तक अपनी कुल 40 हजार किलोमीटर की यात्रा तय की। इसमें अफ्रीका से वापसी के दौरान मानसून के वक्त मई में कुकू भारत पहुंचा और यहां उसने सबसे ज्यादा समय बिताया क्योंकि इस वक्त यहां उसे आराम और भोजन के लिए काफी कुछ मिला।

इतिहास में पहली बार दर्ज इस यात्रा से यह पता चला कि नेविगेटर्स की तरह एक लंबे प्रवास के लिए पक्षी भी मानसूनी पवनों की जानकारी रखते हैं और उसी के सहारे यात्रा करते हैं। इससे यह भी साबित हुआ कि भारतीय उपमहाद्वीप में मानसून जैव-विविधता के लिए क्या महत्व रखता है। भारत में चातक पक्षी के बारे में यह प्रसिद्ध है कि जब वह दिखाई दे, समझ जाएं कि मानसून की वर्षा आती ही होगी। बहरहाल इन अनुभवों और नई जानकारियों ने भी मानसून के अप्रत्याशित व्यवहार को नहीं सुलझने दिया है।

ताप और मानसून

वर्ष 1686 में सर एडमंड हेली ने मानसून को परिभाषित किया था। जो कई दशकों तक मानसून होने के बुनियादी सिद्धांत के तौर पर जमा हुआ है। एडमंड हेली ने बताया कि मानसून दरअसल धरती की सतह और समुद्र की सतह के ताप में अंतर का परिणाम है। इस बात को और समझें तो वातावरणीय दाब (एटमोस्फेरिक प्रेशर) में बदलाव ही मानसूनी पवनों का कारक है।

मानसून कैसे घटित होता है? सूर्य मकर रेखा (ट्रॉपिक ऑफ कैपरिकॉर्न) से उत्तर की ओर कर्क रेखा (ट्रॉपिक ऑफ कैंसर) की तरफ बढ़ता है। एशियाई भू-भाग का बड़ा हिस्सा खासतौर से तिब्बत का पठार सीधा सूरज की गर्मी में तपता है। वहीं, हर साल 21 जून को पड़ने वाली ग्रीष्म संक्रांति (समर सालिटिस) वह एक खास बिंदु है जब सूर्य की सबसे ज्यादा तपिश कच्छ और मध्य भारत तक पहुंच जाती है। एशियाई भू-भाग आस-पास घिरे महासागरों से अधिक गर्म हो जाते हैं, जिसके कारण एक बड़ा न्यूनदाब क्षेत्र बन जाता है जो कि सहारा मरुस्थल से लेकर मध्य एशिया के साथ अरब और पाकिस्तान, राजस्थान और मध्य भारत के सूखे क्षेत्र तक विस्तार करता है।

भारत में कर्क रेखा मिजोरम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड से होकर गुजरती है। दरअसल ग्रीष्म संक्रांति हमारी धरती के गरम होने और मानसून के पारंपरिक वैज्ञानिक सिद्धांत से जुड़ी हुई है। हालांकि गर्मी का चरम मई महीने में ही भारत में आ जाता है।

यूके में यूनिवर्सिटी ऑफ रेडींग के मौसम विज्ञान विभाग में शोधार्थी व स्वतंत्र मौसम विज्ञानी अक्षय देवरस बताते हैं कि भारतीय मानसून का बुनियादी तंत्र जमीन और महासागरों के ताप में अंतर होने से ही जुड़ा है क्योंकि ग्रीष्म ऋतु में जब तक हिंद महासागर (इंडियन ओशन) के मुकाबले भारतीय उपमहाद्वीप का भू-भाग ज्यादा गर्म नहीं होगा, तब तक दक्षिणी-पश्चिमी मानसूनी पवनें नहीं तैयार होंगी। हालांकि, वह बताते हैं कि महासागर और जमीन के ताप में अंतर होने वाले इस बुनियादी सिद्धांत से मानसून की पूरी समझ नहीं बनती है। मिसाल के तौर पर भारत में मई महीने में गर्मी अपने चरम पर होती है लेकिन सबसे ज्यादा वर्षा जुलाई और अगस्त में होती है। कुछ शोध अध्ययन यह बताते हैं कि जून से सितबंर की वर्षा और भू-भाग के साथ महासागर के ताप में अंतर के बीच कोई सकारात्मक संबंध नहीं मिला है। यहां तक कि महीने-दर-महीने मानसून में होने वाले बदलाव को भी यह जमीन और महासागर के ताप में अंतर वाला सिद्धांत ठीक से नहीं बता पाता। गर्मियों में महासागर के मुकाबले जमीन के ज्यादा गर्म होने की घटना भले ही मानसून की पूरी समझ नहीं देती हो, लेकिन यह मानसून के बनने की बुनियादी बात बता देती है। मसलन इक्वेटर यानी भूमध्यरेखा के आस-पास सघन वर्षा वाले बादलों के बनने की घटना ताप से जुड़ी हुई है।

देवरस बताते हैं कि इंटर ट्रॉपिकल कन्वर्जेंस जोन (आईटीसीजेड) का सीजनल माइग्रेशन ताप के कारण ही होता है। दरअसल आईटीसीजेड जनवरी में इक्वेटर के नीचे होता है। गर्मी बढ़ने के साथ ही आईटीसीजेड इक्वेटर को पार कर जाता है और उसके आस-पास सघन वर्षा वाले बादलों का निर्माण करता है। इसे ही मानसूनी वर्षा का कारण माना जाता है।

पेंटिंग्स: योगेन्द्र आनंदभारतीय मानसून : 2 करोड़ वर्ष पहले

मानसून की उत्पत्ति डायनासोर युग यानी करीब 6 से 8 करोड़ वर्ष पहले मानी जाती है। हालांकि कोलकाता स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च के प्रसंता सान्याल और आईआईटी खड़गपुर के राजीव सिन्हा अपने शोधपत्र इवोल्यूशन ऑफ द इंडियन समर मानसून : सिंथेसिस ऑफ कंटिनेंटल रिकॉर्ड्स में बताते हैं कि भारतीय मानसून सिस्टम 2 करोड़ वर्ष पहले तैयार हुआ क्योंकि तिब्बत के पठार (तिब्बत प्लेटो) की ऊंचाई एक बिंदु से भी काफी ऊंचा उठ गए। गर्मियों के दिनों में तिब्बत के पठार गर्म होने के कारण एक न्यून वातावरणीय दाब (लो एटमोस्फेरिक प्रेशर) बनाते हैं। यह एक शक्तिशाली इंजन पंप की तरह काम करता है जो कि महासागरों से नम हवाओं को सतह की तरफ उठा लाता है, जिसके कारण भारी वर्षा होती है। इन्हीं पवनों की वापसी हिंद महासागर की तरफ ठंड में होती है क्योंकि तिब्बत के पठार महासागरों के मुकाबले ठंडे हो जाते हैं।

लेकिन मानसून आता कहां से है? इस सवाल के जवाब में डॉ रॉक्सी बताते हैं कि गर्मी में भारतीय उपमहाद्वीप के भू-भाग के तपने के बाद मार्च से मई के बीच व्यापारिक पवनें (ट्रेंड विंड) ऑस्ट्रेलिया से अफ्रीका की तरफ आती हैं। (देखें : ऐसे आता है मानसून,) यह पवनें अपनी दिशा मेडागास्कर की तरफ मोड़ लेती है और दक्षिण-पश्चिम की तरफ से उत्तर-पूर्व की तरफ बहना शुरु कर देती हैं। इसे हम दक्षिण-पश्चिम मानसून कहते हैं जो कि मई के अंत या जून की शुरुआत में सामान्य तौर पर केरल के तटों से टकराता है। मानसून जुलाई तक पूरे देश को तर कर देता है। मानसून के आने से लेकर उसकी विदाई तक वैज्ञानिक तमाम मॉडल और वैश्विक कारकों का इस्तेमाल करते हुए मौसम की भविष्यवाणी करते हैं। हालांकि, महासागरीय-वायुमंडलीय कारक इसे करोड़ों वर्ष से अप्रत्याशित बनाए हुए हैं।

अप्रत्याशित और चंचल मानसून

वातावरणीय संचरण मॉडल (एटमोस्फेरिक जनरल सर्कुलेशन मॉडल) के प्रयोग बताते हैं कि हिमालयी-तिब्बत की उंचाई में बदलाव मानसून की तीव्रता पर अहम प्रभाव डालते हैं। ऐसे कई और वैश्विक महासागरीय-वायुमंडलीय कारक भी हैं जो भारतीय मानसून को अप्रत्याशित और चंचल बना देते हैं।

हमारे मानसून की डोर दुनिया के कई हिस्सों में जारी महासागरीय-वायुमंडलीय उथल-पुथल से जुड़ी हुई है। इनमें हिंद महासागर द्विध्रुव (इंडियन ओशन डाईपोल -आईओडी), अल-नीनो और मैडेन जूलियन ऑसीलेशन (एमजेओ) ऐसी ही महासागरीय और वायुमंडलीय घटनाएं हैं, जो बड़े पैमाने पर मौसम यानी मानसून को प्रभावित करती हैं। इनमें सिर्फ आईओडी हिंद महासागर से संबंधित है जबकि अलनीनो और एमएजेओ बाकी दो वैश्विक स्तर पर मौसम को मध्य अक्षांश तक प्रभावित करती हैं।

मछुआरों ने पहली बार पेरू के तट से काफी दूर सतह के जल को गर्म होने के बारे में यानी अल नीनो के बारे में पता लगाया था। जल्द ही अल नीनो का उपयोग तटीय सतह के जल के गर्म होने के बजाय अनियमित एवं तीव्र जलवायु परिवर्तनों का वर्णन करने के लिये किया जाने लगा। अल नीनो घटना एक नियमित चक्र नहीं है, इनकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। ये दो से सात वर्ष के अंतराल पर अनियमित रूप से होती हैं।

अलनीनो एवं ला नीना एक जटिल मौसम प्रवृत्ति है जो उत्तरी गोलार्द्ध में ठंड के दौरान चरम पर घटती हैं। यह दोनों घटनाएं अल नीनो-दक्षिणी दोलन (अल नीनो सदर्न ओसिलेशन-ईएनएसओ) चक्र की विपरीत अवस्थाएं होती हैं जो विषुवतीय प्रशांत महासगरीय क्षेत्र ( इक्वेटोरियल पैसिफिक ओसियन एरिया) में समुद्र के तापमान में अंतर के कारण घटित होती हैं। अलनीनो गर्म धारा होती है और ला नीना ठंडी जलधारा। अल नीनो एक जलवायु पैटर्न है जो पूर्वी उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर (ईस्टर्न पैसिफिक ओसिएयन ) में सतह के जल के असामान्य रूप से गर्म होने की स्थिति को दर्शाता है। वहीं, ला नीना एक शीत अवस्था होती है, यह पैटर्न पूर्वी उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागरीय क्षेत्र (ईस्टर्न पैसिफिक ओसियन ) के असामान्य रूप में ठंडा होने को दर्शाता है। यह घटनाएं आमतौर पर 9 से 12 महीनों तक चलती हैं लेकिन कुछ लंबे समय तक चलने वाली घटनाएं वर्षों तक टिकी रहती हैं। ला नीना की तुलना में अलनीनो ज्यादा बार दर्ज की गई है।

आईआईटी, कानपुर के प्रोफेसर सच्चिदानंद त्रिपाठी बताते हैं कि प्रशांत महासागर में जब भी अल नीनो पड़ा है उस वर्ष के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में सूखा जरूर पड़ा, जबकि ला नीना की घटनाएं हमेशा भरपूर मानसून वर्षा से संबंधित होती हैं। इसी तरह मानसून के लिए इंडियन ओशन डाईपोल (आईओडी) की घटना है जो कि आठ चरणों से होकर गुजरती है। जब यह मानसून के दौरान हिंद महासागर के ऊपर होता है, तो संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में अच्छी बारिश होती है। दूसरी ओर, जब यह एक लंबे चक्र की समयावधि के रूप में होता है और प्रशांत महासागर के ऊपर रहता है तब भारतीय मानसूनी मौसम में कम वर्षा होती है। इसे भी भारतीय मानसूनी वर्षा के लिए अहम माना जाता है। जबकि मैडेन-जूलियन ऑसीलेशन (एमजेओ) के बारे में कहा जाता है कि यदि यह लगभग 30 दिनों तक बना रहता है तो मानसून के मौसम में इसके कारण अच्छी बारिश होती है। वहीं, यदि यह 40 दिन से अधिक समय तक बना रहता है तो अच्छी बारिश नहीं होती और सूखे की स्थिति बन सकती है। ऐसा माना जाता है कि एमजेओ का चक्र जितना छोटा होगा, भारतीय मानसून उतना ही बेहतर होगा। इसके पीछे कारण यह है कि यह चार महीने की लंबी अवधि के दौरान हिंद महासागर क्षेत्र से गुजरता है। वहीं, अल-नीनो के साथ प्रशांत महासागर के ऊपर एमजेओ की उपस्थिति मानसूनी बारिश के लिये हानिकारक होती है। मानसून की वर्षा के बारे में जो भविष्यवाणियां होती हैं उसमें कई तरह की बाधाएं हैं।

मौसम विज्ञानी अक्षय देवरस बताते हैं कि इसमें सबसे बड़ी बाधा पहाड़ के कारण है। मिसाल के तौर पर पश्चिमी घाट और हिमालय। वेदर मॉडल में मानसून और पहाड़ों के बीच घटित होने वाली घटनाओं को सही से वैज्ञानिक पकड़ नहीं पाते। वहीं, समूचे भारत में जून से सितंबर के बीत 50 फीसदी वर्षा और अकेले पूर्वी भारत में 70 फीसदी वर्षा का कारण लो प्रेशर सिस्टम होता है। लो प्रेशर सिस्टम की पहचान में भी काफी कमियां होती हैं जो भविष्यवाणियों को गलत बताते हैं।

मानसून के अनिश्चितिता का दौर अब तक जारी है। भारत में मानसून रोजी-रोटी का सवाल है। इस बार खेती को तगड़ा नुकसान हुआ है। किसान टकटकी लगाए वर्षा का इंतजार कर रहे हैं। इसीलिए कहते हैं कि मानसून भारत का सच्चा वित्त मंत्री है जो हमारे पूरे जीवन और आजीविका को प्रभावित कर सकता है।

पढ़ें- अगली कड़ी चौमास कथा-2: मानसून को क्यों कहा जाता है देश का असली वित्त मंत्री?

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