साहित्य में पर्यावरण: चेतना की चेतावनी

कविताओें में मनुष्य और उसके अस्तित्व को बचने की चेतावनियां पर्यावरणीय चिंताओं की ओर इशारा करती रहीं हैं 

On: Tuesday 12 October 2021
 

- चिट्टि. अन्नपूर्णा-

भारत वर्ष का प्राकृतिक वातावरण और सौंदर्य अपने आप में बेजोड़ है । प्रकृति सौंदर्य की जो विविधता भारत में मिलती है, वैसी विश्व के अन्य देशों में नहीं देखी जाती। भारत की विलक्षणता और उसकी भारतीयता इसकी प्राकृतिक विविधता में ही है । इसलिए प्राचीन ऋषि-महर्षि प्रकृति के साथ मानव को एक- दूसरे से जोड़कर रखने का प्रयास किये थे। उन्होंने मानवों के सहज, सात्विक और अपने परिसर की प्रकृति और जीवों के साथ ममैक्य जीवन का विधान किया। तेलुगु भाषा में प्राचीन काल से कवियों ने प्रकृति की गोद में बैठकर अनेक काव्य रचनाएँ की हैं। प्रकृति के साथ तेलुगु प्रजा ममेक हो गई है। उसने प्रकृति में तत्व ज्ञान के दर्शन कर अपने जीवन का विधान किया। प्रकृति की गोद में खेला, पला और बड़ा हुआ। प्रकृति और पुरुष को अपने आराध्य बनाये।

प्रकृति के परिरक्षण के साथ अपने जीवन को भी संरक्षित करता आया। प्रकृति वह हो गई और वह प्रकृति हो गया था । पशु- पक्षियों को अपने जीवन का अंग बनाया। इसलिए भक्ति क्षेत्र में भी सांप, मकड़ी और हाथी जैसे जानवर, कीड़े-मकोड़ों को भक्ति के द्वार पर जाते हुए दर्शाया। श्रीकृष्ण देवराय के दरबार कवि धूर्जटि की कालहस्तीश्वर महात्म्य काव्य इसका निदर्शन है। श्री (कमड़ी), काळ (सर्प) और हस्ती (हाथी) जो घातुक प्राणी हैं, इनसे मानव ने सात्विक भक्ति के स्वरूप को सीखा। नदी-समुद्र स्नानों को पवित्र बताया है । विशेष ऋतुओं के विशेष पर्वों में नदी-समुद्र स्नान को एक पुण्य कार्य कहकर जीवन में उनके महत्व को प्रतिपादित किया गया।

पहाडों में देवी-देवताओं के मंदिरों को प्रतिष्ठित कर पत्थर-पहाडों को संरक्षित करने का उपाय निकाला। बन भोजन की परिकल्पना के द्वारा वनों का परिरक्षण और प्रकृति की गोद में आह्लाजनक वातावरण का आनंद उठाने की संकल्पना उसकी रही है । बन के प्रत्येक प्राणी चाहे वह पेड़-पौधे हों या पशु-पक्षी सब उसकी दृष्टि में वन देवताएँ ही रहीं । इसलिए प्राचीन कवि ने प्रकृति की इस शोभा को अपने मनोनेत्रों से कल्पना कर अपनी कविता में उसकी प्राण प्रतिष्ठा की। यह तेलुगुनाडु के सभ्य मानव का इतिहास है, उसके कोमल मनोभावनाओं का सहज स्वरूप है ।

लेकिन समय बदलने लगा । अर्जित संस्कारों को तिलांजलि देकर अपने पूर्व रूप की ओर अग्रसर हुआ है । तेलुगु साहित्य में आधुनिक मानव में आये बदलाव परिणाम स्वरूप उसके स्वार्थ की आग में जल रही प्रकृति, बढते प्रदूशन और उसके विनाशकारी रूप का चित्रण किया गया है।

आधुनिक तेलुगु साहित्य में आधुनिक कवि जैसे विश्वनाथ सत्यानारायण, रायप्रोलु सुब्बारावु, देवुलपल्लि कृष्ण शास्त्री, गुर्रं जाषुआ, वेंकटेश्वर पार्वतीश कवि, नायनि सुब्बारावु, वेदुल सत्यनारायण, श्रीरंगं श्रीनिवासरावु, आरुद्र, नारायण आदि कवियों ने प्रकृति के साथ मानव जीवन के गमन और समायोजन को चित्रित किया है। हिन्दी की छायावादी कवि की तरह तेलुगु के भाव कवि प्रकृति के साथ सूक्ष्म अनुभूतियों को जोड़ा । इन्होंने प्रकृति को अपनी कविता का प्रधान अंश बनाया । भाव कविता के बाद अभ्युदय कविता, जो हिन्दी में प्रगतिवादी कविता से प्रसिद्ध है, का आविर्भाव होने के कारण तेलुगु साहित्य में प्रकृति के सूक्ष्म रूप के स्थान पर मानव के अस्तित्व के संघर्ष को अभिव्यक्ति मिलने लगी ।

तब से कविता में प्रकृति गौण वस्तु बनी और व्यक्ति की कुण्ठाएँ, उसका संघर्ष, असंतुष्टि प्रधान विषय बन गये हैं। कवि में लोक मगंल भावना का अभाव और व्यक्तिवादी चिंतन ने काव्य को प्रकृति से दूर रखे । इसलिए भाव कविता के बाद विकसित अभ्युदयवादी कविता में प्रकृति के शांत स्वरूप के स्थान पर ओजमय रूप का चित्रण होने लगा। अपने आक्रोश और संघर्ष को कवि प्रकृति के माध्यम से व्यक्त करने लगा। पिछले चंद वर्षों तक तेलुगु साहित्य में प्रकृति की यही स्थिति रही ।

वैश्वीकरण के दौर में विश्व के देशों की आपसी स्पर्था, आर्थिक उन्नति के कारण व्यक्ति ने मानवता और मानवीय गुणों को विस्मृत किया। सदियों से जिन ऋषियों और संतों के प्रकृति माँ के परिरक्षण के प्रयास रहे, वे आज के दौर में वे सब निष्प्रभ हो गये हैं ।

अब इन विकृत परिस्थितियों में व्यक्ति को उसकी विकृत मानसिकता से मुक्त करना अत्यंत आवश्यक है । उसमें फिर से कोमल भावनाओं को जागृत करने की आवश्यकता है । उसे फिर से मानव बनाकर उसके आसपास की प्रकृति को संरक्षित करने की प्रेरणा देनी है।

जैसे-जैसे मानव नागरिक बनता आया, तो वह प्रकृति से दूर होने लगा । उसकी भाषा और भाव भी अप्राकृतिक होने लगे हैं। नगर बस गये हैं । जहाँ हरे-भरे खेत रहें, वहाँ अब कल-कारखाने निर्मित हुए हैं । मानव में विकसित क्रूर स्वभाव के कारण कोमल भावनाएँ लुप्त प्राय हो गये हैं ।

मनुष्य में बदले स्वभाव के कारण मनुष्य में कोमल कवि का रूप भी मिट गया है । इसलिए आधुनिक कविता में कवि समष्टि भाव को छोड़कर अकेले का दुख रो रहा है । उसकी व्यथा, उसकी कुण्ठाएँ, उसका अहं ही आज की कविता के प्रधान मुद्दे बन कर रह गये हैं। इसलिए आधुनिक कविता में कहीं भी लहलहाती प्रकृति सौदर्य का वर्णन नहीं दिखता है । लिंग, जाति, धर्म के नाम पर विभाजित कविता ही दिखाई देती न कि सुंदर, सुकोमल प्रकृति।

मानव के विकृत स्वभाव के कारण प्रकृति भी कविता में उपेक्षित रह गयी साहित्य के अन्य वादों की तरह अब तेलुगु साहित्य में पर्यावरण संरक्षण भी एक वाद के रूप में पहचाना जा रहा है । कवि व साहित्यकार इस ओर अपना ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं । तेलुगु साहित्यकार पर्यावरण के प्रति चेतना लाने के लिए पर्यावरण विकृत होने के कारणों को बताकर उससे होने वाले दुष्परिणामों के प्रति सजग करने का साहित्य लिख रहे हैं । उनके द्वारा पर्यावरण प्रदूषण से होनेवाले परिणामों से अवगत करानेवाली कविताएँ भी लिखी जा रही हैं ।

वंगाल सैदाचारी की कविता मेरा गाँव (ना पल्लि) कविता पेड़-पौधों और फसलों से हरे भरे, भीड़-भाड़, सुख-संतोष से भरे गाँव का सुंदर दृश्य प्रस्तुत कर प्रकृति निलय गाँवों के सौंदर्य के प्रति पाठक को आकृष्ट करती है । प्रकृति सौंदर्य वर्णन से व्यक्ति के मन में प्रकृति के प्रति प्रेम जागृत करने की तकनीकी को चंद कवियों ने अपनायी । बहुत पहले ही जंध्याल पापय्यश्स्त्री ने प्रकृति को मानव का सहज गुरु बताते हुए पेड़ों से मानव को होने वाले उपकारों का बयान किया है किः सिर पर जलाने वाले ताप धारण कर ठंडी छाया पथिकों को देनेवाली, कठोर शिलाओं में भी उगकर भी फल फूल देनेवाली, प्राण त्याग के उपरांत भी अपनी काया को काट कर देने वाली, इस लोक में नर जाति को परमार्थ बोध करनेवाले पेड ही उसके गुरु हैं ।

इसमें वृक्षों की परोपकारी, निस्वार्थ बुद्धि से सीख ग्रहण करने का संदेश है। पापिनेनी शिवशंकर ने अपनी हरे रंग का लोक (आकुपच्चनि लोकं) कविता में क्रूर जंतुओं का निवास घने जंगल के पेड़ तक ने गुरुओं को आश्रय देकर मानव जीवन को पथ प्रदर्शन करनेवाली बनदेवता के रूप में दर्शन दिये ।

मानव ने नदी तटों पर अपने जीवन की रूप कल्पना की । नदीं हमारा जीवनाधार है । लेकिन ऐसी नदी आज मनुष्य के स्वार्थ के कारण कलुषित होकर जल पर निर्भर समस्त प्राणियों के लिए घातुक बनी है । डाँ महम्मद शरीफ जल प्रदूषण से हो रहे दुष्परिणामों का बयान करते हुए मनुष्य से जल प्रदूषित होने से बचाने की विनति करते हैं ।

प्रकृति की रक्षा करो (प्रकृतिनि रक्षिंचु) कविता में लिखते हैं किः

प्रदूषित जल को नालों में छोड़ने से, विकृत रोग फैल रहे हैं, धर्ती का सार क्षीण होकर घट रही है आयु, कृषि क्षीण हुई, पशु संपदा घट गई, जल प्रदूषण फैली, बोल प्रदूषण फैली, अब तो रोक दो, हे नर, रक्षा करो इस अवनी को।

पर्यावरण पर कुठाराघात तभी आरंभ हुआ जब मनुष्य स्वयं अपने जन्म दिये माता-पिता को तिरस्कार करने लगा। जन्म दिये माता-पिता को ही उनके बुढ़ापे में घर से निष्कासित करने वाली संतान प्रकृति माँ को कहाँ तक समझेगा और उसका संरक्षण कहाँ तक करेगा। उसकी यह मानसिकता ही उसके पतन की प्रथम सीढ़ी बनी है। मनुष्य का अहंकार स्वार्थ और भोग मानसिकता पर्यावरण के लिए काफी घातक सिद्ध हुई है ।

अपनी सीमाओं को भूलकर व्यवहार करनेवाले मनुष्य को कवि सिरिसिल्ल गफुर शिक्षक अपनी कविता प्राणुलु-पर्यावरण कविता में ऐसी सीख देते हैं किः

आस्मान पर थूकता है, तो वह तुझपर ही गिरेगा, प्रकृति का कोप शाप बनकर जलायेगा तुझे, अहंकार ही है, मनुष्य का प्रलय बनकर डुबोयेगा, स्वार्थ ही बानाता है प्राणियों की ज़िंदगियों को प्रश्नार्थक।

आचंटि श्रीनिवासराव मनुष्य के कुकृत्यों से प्रकृति माता को पहुँच रही हानि, मनुष्य की बदली मानसिकता पर इस प्रकार चिंता जाहिर करते हैं किः जननियों की जननी है, वह आदि जननी है, मानव जन्म का यही स्थाल है, चारों ओर पेड़-जंतुजाल है, जननी ने किये कई उपकार, फिरभी बदला है काल ने, उसके मन पर बिछाया जाल, अपनायी वनों को काटने की बुद्धि ने, लायी है संसाधनों को चुराने का स्वभाव।

कवि रापोलु अरुणस्वामी बढ़ते नगर और घटते गाँवों को प्रदूषण का कारण बताते हुए कहते हैं किः बढ़ रहा है नगरवास, घट रहा है गाँव धन, खेतों को हो रहा है अन्याय, बन रहे हैं निवास स्थान।

बल्ला विजयकुमार मनुष्य की मूर्खता पर अफसोस जताते हुए लिखते है किः जिस डाल पर बैठे, उसी पर न कर कुठाराघात, हरी-भरी जमीन को खराब न कर, गरल को हवा में मत फैल, सुधारना है अपनी गलतियों को बदलना, बदलना है आदतों को, बोना है पेड़ चारों ओर... हटाना है कष्ट। इसी प्रकार डाँ भास्करराव आसोदु हरे भरे पेड़ो के साथ जो दुर्व्यवहार हो रहा है, इस कारण दुखित पेड़ की मर्म वेदना को प्रस्तुत करते हैं। इस कविता में कवि लिखते हैं कि आर्थिक उन्नति के नाम पर मनुष्य के द्वारा किये जा रहे कुकर्मों के परिणाम स्वरूप धर्ती माता सूख रही है। उद्योंगों का निर्माण, उनसे प्रदूषित हो रही हवा, पानी और प्रत्येक प्रकृति पदार्थ पर गौर करते हुए अपने क्रूर स्वभाव को बदलने का संदेश देते हैं ।

मनुष्य के साथ सहजीवन जीने वाली प्रकृति के हर जड़-चेतन पदार्थ के साथ संतुलित व्यवहार करने का और समन्वय स्थापित करने का उपदेश कवि अन्वेषी सहजीवों की संतुलन नामक कविता में देते हैं किः अनगिनत जीव राशियों के अधिपति भी एक ही है, तू एक से नहीं भरेगी यह धरती, .... तेरा अस्थित्व धुंधुला होने से पहते... तेरे स्वार्थ युक्त दाँत तोड़कर, सकल जीव संरक्षण के लिए कदम आगे बढ़ा दे ।

यही बात गणपति राजु वोंकट शेषगिरि रावु भी समझाते हैं किः जिस डाली पर बैठा, उसी पर कुल्हाड़ी मारनेवाला मनुष्य, हास-विलास को छोड़, देख आँख खोलकर तेरी स्थिति को, जमीन छोड़कर युद्ध न कर देह भूलकर, पाताल में गिरता तो फिर उबर न पाएगा । कवयित्री सुहासिना आदुर्ति अपनी कविता प्रकृतिलोनि उदयाले (प्रकृति के उदय) कविता में एक कदम आगे बढ़कर कहती हैं कि हम भारतीय, जीव विविधता के वारिस हैं, स्वच्छ नीलगगन, स्वच्छंद हवा, घोषित करेंगे कि हमारे ही हैं।

कलाश्री सौरं प्रवीण कुमार जीव ववैविद्य के परिरक्षण केलिए कमर कसने का उद्बोध करते हुए अपनी मानव जातिकि मरण शासनं ( मानव जाति का मरण शासन) कविता में कहते हैं कि मानव जाति के लिए मरण शासन मत लिखो, जीव वैविध्य के परिरक्षण के लिए कमर कसो।

पर्यावरण के प्रति मनुष्य की दुश्चेष्टाओं पर अवाक् होकर कवयित्री चयनं महालक्ष्मी लिखती हैं कि ओ सभ्य मानव, नवसभ्य मानव, आकाश को सीढ़ियाँ डालनेवाले ओ आधुनिक मानव, चाहे बिना ही पृथ्वी पर अवतरित ओ मानव, चाहने पर भी न रुकने वाली मृत्यु को अपने साथ ले आये हो।

जीव वैविध्य को मानव धर्म साबित करते हुए बि. मल्लय्या ने सृष्टि मनकोसं-प्रकृति मन कोसं कविता में जीव वैविद्य केवल मानव के हित के लिए निर्मित होने की और उसके परिरक्षण की जिम्मेदारी हमारी होने की बत पर बल देते हैं किः क्या काल का मतलब प्रकृति नहीं है, क्या प्रकृति का मतलब प्राण नहीं है, क्या प्राण का मतलब परोपकार नहीं है, क्या परोपकार का मतलब त्याग नही है, क्या त्याग का मतलब जीव वैविद्य नहीं है, क्या जैव वैविद्य का परिरक्षण मानव का धर्म नहीं है ।

आधुनिक समय में पर्यावरण विषय को केन्द्र में रखकर अनेक रचनाएँ लिखी जा रही है । इस ओर तेलुगु कवियों की सेवा सराहनीय है।

(लेखिका मद्रास विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं)

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