विश्व पर्यावरण दिवस: उत्तराखंड में ऑर्किड फूलों से लेकर लुप्त होने की कगार पर पहुंची वनस्पतियों को बचाने की कोशिश

लेडीज़ स्लिपर यानी स्त्रियों के जूते के आकार सरीखे ऑर्किड फूल पश्चिमी हिमालय में खतरे की जद में आ गई प्रजातियों में शामिल है। वहीं, बेली लिप ऑर्किड फूलों की दुनिया पर खतरा अधिक गंभीर है

By Varsha Singh

On: Saturday 05 June 2021
 

लेडीज़ स्लिपर यानी स्त्रियों के जूते के आकार सरीखे ऑर्किड फूल पश्चिमी हिमालय में खतरे की जद में आ गई प्रजातियों में शामिल है। वहीं, बेली लिप ऑर्किड फूलों की दुनिया पर खतरा अधिक गंभीर है। चमोली के मंडल में वन अनुसंधान केंद्र के सेंटर में इस समय इन फूलों की बहार आई हुई है। जलवायु परिवर्तन, सिकुड़ते प्राकृतिक आवास, अत्यधिक दोहन जैसी मुश्किलों के चलते फूलों, जड़ी-बूटियों और पेड़-पौधों की कई प्रजातियां अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जूझ रही हैं। इनमें से कुछ प्रजातियां धरती पर बनी रहेंगी। उत्तराखंड वन विभाग के अनुसंधान विंग ने ये सुनिश्चित करने का प्रयास किया है। 

संरक्षण

उत्तराखंड वन विभाग के अनुसंधान विंग ने कई दुर्लभ फूलों और संकटग्रस्त प्रजातियों समेत वनस्पतियों के संरक्षण की सालाना रिपोर्ट जारी की है। कुल 1576 प्रजातियों का संरक्षण किया गया है। आईयूसीएन की लिस्ट के मुताबिक इनमें से 11 प्रजातियां गंभीर रूप से संकट (critically endangered) की श्रेणी में शामिल हैं। 20 प्रजातियां संकटग्रस्त (endangered) हैं और 11 वे प्रजातियां हैं जिन पर भविष्य में लुप्त होने का खतरा (vulnerable) आ सकता है। 13 अन्य प्रजातियां भी खतरे (near threatened) का सामना कर रही हैं। 

पर्यावरण से जुड़ी सूचनाओं को साझा करने के लिए बने  इनवायरमेंटल इनफॉर्मेशन सिस्टम ने भी देश में अस्तित्व के संकट से जूझ रही वनस्पतियों की सूची तैयार की है। उत्तराखंड अनुसंधान विंग ने एनविस के मुताबिक संकटग्रस्त एक प्रजाति, खतरे की जद में आ रही 3 प्रजाति और 4 दुर्लभ प्रजातियों का संरक्षण किया है।

बॉटेनिकल सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक 5 गंभीर तौर पर संकटग्रस्त, 8 संकटग्रस्त और खतरे की जद में आ रही 5 प्रजातियां शामिल हैं। 

उत्तराखंड वन अनुसंधान केंद्र के चमोली, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ समेत अलग-अलग सेंटर्स में इन प्रजातियों का संरक्षण किया गया है। इनमें कई वनस्पतियां स्थानिक यानी ख़ास जगह से ताल्लुक रखने वाली हैं। अपने मूल निवास क्षेत्र से एक बार ये खत्म हो गईं तो हमेशा के लिए धरती से विदा हो जाएंगी। सहेजी गई 1576 प्रजातियों में से 61 स्थानिक (endemic) हैं जबकि 7 उत्तराखंड में ही पायी जाती हैं। इनके अलावा 10 हिमालयी क्षेत्र में और 9 प्रजातियां देश के लिहाज से स्थानिक हैं। 

जैव-विविधता

पिछले वर्ष 2020 में भी पेड़-पौधों के संरक्षण से जुड़ी पहली रिपोर्ट जारी की गई थी। उस समय तक 1147 प्रजातियों का संरक्षण किया गया था। जो अब बढ़कर 1576 हो गई है। अनुसंधान विंग के मुख्य वन संरक्षक संजीव चतुर्वेदी कहते हैं “जब हम जैव-विविधता संरक्षण की बात करते हैं तो ज्यादातर ध्यान बाघ-हाथी जैसे बड़े वन्यजीवों पर ही केंद्रित रहता है। हमारी कोशिश “प्लांट ब्लाइंडनेस” को खत्म करने की है। फ्लांट ब्लाइंडनेस यानी अपने आसपास मौजूद पौधों को नोटिस न करना। हमने कुल 73 थ्रेटेन्ड और दुर्लभ पौधों को संरक्षित किया है। जबकि 56 स्थानिक प्रजातियों का संरक्षण किया है। हमारी ये कोशिश जारी है”।

उत्तराखंड जैव-विविधता के लिहाज से बेहद समृद्ध है। यहां 1503 पीढ़ियों और 2133 परिवारों के फूलों वाले पौधे पाए जाते हैं। इनमें से 93 स्थानिक हैं। गंगा के मैदानी हिस्सों, शिवालिक पहाड़ियों, बुग्यालों से लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्र तक यहां जैव-विविधता का संसार बसा है।

कीटभक्षी फूल

पेड़-पौधों का संसार भी अजूबों से भरा है। कीटभक्षी यानी कीड़े खाने वाले फूल चमोली के मंडल केंद्र में संरक्षित किये गए हैं। बेहद चटक रंगों वाले ये फूल अपनी सुगंध से कीटों को आकर्षित करते हैं। कीटों के शिकार के लिए इन पर बारीक बालों जैसी संरचना होती है। जैसे ही कीट इन बालों को छूते हैं, फूल का मुंह खुलता है और कीड़े को निगल लेता है। ऐसे फूल भी हैं जो 6-7 वर्षों के अंतराल पर खिलते हैं। इनके बीज बनने की प्रक्रिया लंबी और जटिल होती है। इनकी विलुप्ति का खतरा भी बड़ा होता है। ऐसा ही एक फूल है पिंजिकुला अल्पाइना। जो उत्तराखंड के साथ सिक्किम और जम्मू-कश्मीर में भी पाया जाता है। 

वन विभाग ने 8 कीटभक्षी प्रजातियों को संरक्षित किया है। इसमें से 3 हिमालयी क्षेत्र में ही पायी जाती हैं और औषधीय गुणों वाली होती हैं। 

इसके साथ ही पेड़ों की 416 प्रजाति, 130 किस्म की जड़ी-बूटियां, झाड़ियां-115, बांस की 37 प्रजातियां, जंगली लताएं-76, बेंत-9, घास की 89 किस्में, फर्न-96, ऑर्किड-87, अल्पाइन (बुग्याल) क्षेत्र में पाए जाने वाले 15 किस्म के फूल, जंगली फूल-37, पाम-67, साइकड-7, कैक्टस प्रजातियां-213, जलीय पौधे-45, लाइकन-85, ब्रायोफाइट (काई सरीखे)-85, एयर प्लांट्स (जो मिट्टी में नहीं उगते)-6, शैवाल-2 शामिल हैं।

वन अनुसंधान केंद्र की रिपोर्ट के मुताबिक विश्व 28,000 से अधिक वनस्पति प्रजातियों का औषधीय रूप से इस्तेमाल किया जाता है। ख़ून साफ़ करने से लेकर कैंसर से बचाव की दवाएं भी पेड़-पौधों के संसार से मिलती हैं। कोरोना के समय में आयुर्वेद पर लोगों का भरोसा बढ़ा है। 

अलग-अलग थीम जैसे हल्द्वानी का पॉलीनेटर पार्क, नैनीताल में कई संरक्षण और शोध सेंटर, अल्मोड़ा में वन-उपचार केंद्र जैसे तरीकों से वन अनुसंधान केंद्र पौधों की किस्में, शोध और संरक्षण जैसे मुद्दों पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश कर रहा है। पेड़-पौधे दुनिया के सबसे बड़े अक्षय प्राकृतिक संसाधन हैं और तेज़ी से गायब हो रहे हैं। इनके संरक्षण के लिए बहुत तत्परता से कार्य करने की जरूरत है। इससे पहले कि बहुत देर हो जाए।

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