याद न रखी जाने वाली प्रजातियां एक बार नहीं दो बार विलुप्त होती हैं: शोध

कई देशों में पारंपरिक जड़ी-बूटियों की जगह आधुनिक चिकित्सा ने ले लिया है जिसने कई औषधीय पौधों से संबंधित सामान्य ज्ञान को कम कर दिया है, जिससे वे सामाजिक रूप से विलुप्त हो गए हैं

By Dayanidhi

On: Tuesday 22 February 2022
 
फोटो : विकिमीडिया कॉमन्स, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय

नया शोध जीवों के सामाजिक रूप से विलुप्त होने की घटनाओं के बारे में पता लगता है। सामाजिक विलुप्ति हमारी सामूहिक रूप से प्रजातियों को याद और ध्यान न रखने से होने वाला नुकसान है। प्रजातियां हमारे समाज, संस्कृतियों से उस समय गायब हो सकती हैं, जब उन्हें विभिन्न इंसानी क्रियाकलापों द्वारा जैविक रूप से विलुप्त कर दिया जाता है।

यह शोध ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के जूलॉजी विभाग के शोधकर्ताओं ने किया है। वैज्ञानिकों की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने पता लगाया कि क्या कोई प्रजाति सामाजिक रूप से विलुप्त हो सकती है या नहीं, उन्होंने कहा यह कई कारणों पर निर्भर करता है।

इनमें जीवों के सांस्कृतिक महत्व शामिल होते हैं, चाहे यह कितने समय पहले ही विलुप्त क्यों न हो गए हो। इनकी सीमा मनुष्यों से कितनी दूर और अलग-अलग क्यों न हो। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के रिसर्च फेलो डॉ डिओगो वेरिसिमो और सह-अध्ययनकर्ता ने कहा सामाजिक विलुप्ति न केवल विलुप्त प्रजातियों में होती है, बल्कि उन प्रजातियों में भी होती है जो अभी भी हमारे बीच रह रही हैं।

अक्सर सामाजिक या सांस्कृतिक बदलावों के कारण इस तरह की घटनाएं होती हैं। उदाहरण के लिए, समाज का शहरीकरण या डिजिटलीकरण, जो प्रकृति के साथ हमारे संबंधों को मौलिक रूप से बदल सकता है और बदलने की अगुवाई कर सकता है।

शोधकर्ता ने एक उदाहरण देते हुए बताया कि जैसे यूरोप में पारंपरिक जड़ी-बूटियों की जगह आधुनिक चिकित्सा ने ले लिया है। ऐसा माना जाता है कि इसने कई औषधीय पौधों से संबंधित सामान्य ज्ञान को कम कर दिया है, जिससे वे सामाजिक रूप से विलुप्त हो गए हैं।

जैसे-जैसे अधिक से अधिक प्रजातियां खतरे या विलुप्त होती जा रही हैं, वे भी लोगों से अलग हो जाती हैं। यह अनुभव के विलुप्त होने की ओर ले जाता है। जैसे-जैसे समय बीतता है ऐसी प्रजातियां लोगों की याददाश्त से पूरी तरह से गायब हो जाते हैं।

उदाहरण के लिए, दक्षिण-पश्चिमी चीन में समुदायों और बोलीविया में स्वदेशी लोगों के बीच किए गए अध्ययनों ने स्थानीय ज्ञान और विलुप्त पक्षी प्रजातियों के बारे में याददाश्त के नुकसान का पता चला है।

हालांकि प्रभाव इसके विपरीत भी हो सकते हैं। नेगेव के बेन-गुरियन विश्वविद्यालय के सह-अध्ययनकर्ता और शोधकर्ता डॉ उरी रोल ने बताया कि प्रजातियां विलुप्त होने के बाद भी सामूहिक रूप से जानी जा सकती हैं, या अधिक लोकप्रिय भी हो सकती हैं।

हालांकि, ऐसी प्रजातियों के बारे में हमारी जागरूकता और यादास्त धीरे-धीरे बदल जाती है, अक्सर गलत हो जाती है और यह वास्तविक प्रजातियों से अलग हो जाती है।

उदाहरण के लिए स्पिक्स के जंगली मैकॉ के में विलुप्त होने के बाद, इसकी पूर्व सीमा के भीतर स्थानीय समुदायों के बच्चों ने माना कि यह प्रजाति रियो डी जनेरियो में रहती है, क्योंकि यह एनिमेटेड फिल्म रियो में दिखाई दी थी जो की गलत है। यहां बताते चलें की मैकॉ एक प्रकार का तोता है।

प्रमुख अध्ययनकर्ता डॉ इवान जरीक ने कहा कि यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अधिकांश प्रजातियां वास्तव में सामाजिक रूप से विलुप्त नहीं हो सकतीं, केवल इसलिए कि उनकी शुरुआत में कभी सामाजिक उपस्थिति थी ही नहीं। डॉ जरीक चेक विज्ञान अकादमी के जीव विज्ञान केंद्र में शोधकर्ता हैं।

यह अस्वाभाविक, छोटी, गुप्त, या दुर्गम प्रजातियों में आम है, विशेष रूप से अकशेरुकी जीव, पौधे, कवक और सूक्ष्म जीवों के बीच - जिनमें से कई के बारे में अभी तक वैज्ञानिकों द्वारा औपचारिक रूप से उल्लेख नहीं किया हैं या जिन्हें लोग नहीं जानते हैं। डॉ जारिक ने कहा कि उनकी गिरावट और विलुप्ति लोगों और समाज द्वारा चुप्पी सादे रहना और अनदेखी की जाती है।

ऑक्सफोर्ड के जूलॉजी विभाग में अध्ययन और रिसर्च फेलो के सह-लेखक डॉ जोश फर्थ ने कहा कि सामाजिक विलुप्ति जैव विविधता की रक्षा के उद्देश्य से संरक्षण के प्रयासों पर असर डाल सकती है। क्योंकि यह पर्यावरण की हमारी अपेक्षाओं और इसकी प्राकृतिक स्थिति के बारे में हमारी धारणाओं को सीमित  कर सकती है।

आगे के शोध अब इस बात का आकलन करेंगे कि कैसे सामाजिक विलुप्त होने से जैव विविधता और वास्तविक विलुप्त होने की दर के खतरों की गंभीरता की झूठी धारणाएं पैदा हो सकती हैं। इस तरह की धारणाएं यूके में यूरेशियन बीवर के पुन: वापस आने जैसे संरक्षण और बहाली के प्रयासों के लिए सार्वजनिक समर्थन को कम कर सकता है। यह शोध ट्रेंड्स इन इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन जर्नल में प्रकाशित हुआ है।

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