कौन है ये चिड़िया जो बताती है कि पक गया काफल
इन दिनों उत्तराखंड के पहाड़ों पर एक चिड़िया यह बताने आती है कि काफल (एक तरह का फल) पक गए हैं। जानें, कौन है यह चिड़िया...
On: Tuesday 02 June 2020
हिमालयी क्षेत्रों में इस समय रातों में एक चिड़िया खूब सुरीली तान देती है। इसकी चार लड़ियोंवाली सीटी दिन ही नहीं देर रात तक गूंजती है। पहाड़ के लोगों से पूछेंगे तो वे बताएंगे इस चिड़िया का नाम काफल-पाको है। पहाड़ का जंगली फल काफल इस समय खूब पक रहा है और लोग मानते हैं कि चिड़िया अपनी सुरीली तान से लोगों को काफल पकने की सूचना देती है।
कम दिखनेवाली और ज्यादा सुनायी देनेवाली इस इंडियन कुक्कू का वैज्ञानिक नाम कुकुलस माइक्रोप्टेरस (Cuculus Micropterus) है। गर्मियों और मानसून सीजन में मध्य भारत से उत्तरी भारत तक प्रवास करने वाली चिड़िया का असल ठिकाना पता लगाना, वैज्ञानिकों के लिए अब भी एक चुनौती है। लेकिन इसकी तैयारी शुरू हो चुकी है।
भारतीय वन्यजीव संस्थान में डिपार्टमेंट ऑफ इनडेन्जर्ड स्पीसीज मैनेजमेंट के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. सुरेश कुमार कहते हैं कि इंडियन कुक्कू समर विजिटर है। गर्मियों में काफल पकने का समय ही इसके पहुंचने का समय होता है। मानसून खत्म होने के साथ ही ये लौट जाती है। लेकिन वैज्ञानिकों के लिए अब भी ये अध्ययन का विषय है कि इंडियन कुक्कू लौटकर कहां जाती है। इस दौरान ये यहां अपने बच्चों को जन्म देती है। लंबी दूरी तय करने के बाद जब ये चिड़ियां पहुंच जाती हैं तो अपनी आवाज से अपने क्षेत्र का निर्धारण करती हैं।
सुरेश बताते हैं कि दूसरी कुक्कू को आगाह भी करती हैं कि ये उनका इलाका है। अपने साथी को आकर्षित करने के लिए भी इनकी सीटी गूंजती है। इनकी खास बात ये है कि कोयल की तरह ये भी अपने अंडे दूसरी चिड़िया के घोंसले में डालती है। बैबलर चिड़िया जिन्हें झुंड में रहने की वजह से सात भाई या सात बहन भी कहा जाता है, कुक्कू ज्यादातर इन्हीं के घोंसले में अपने अंडे रखती है। ये प्रकृति की अनूठी बात है कि कुक्कू अपने अंडे ठीक वैसा ही तैयार करती है, जैसे अंडे बैबलर के होते हैं। आश्चर्यजनक ये भी है कि बैबलर अपने और कुक्कू के अंडे में फर्क नहीं कर पाती। उनके अंडे और बाद में उसमें से निकले चूजों का वैसे ही ख्याल रखती है जैसे उसके खुद के बच्चे हों। जबकि कुक्कू और बैबलर देखने में बिलकुल अलग होते हैं।
इंडियन कुक्कू की सम्मोहक आवाज भी उसके आने के एक-दो महीने तक ही सुनायी देती है। पेड़-पौधों को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़े-मकोड़े इसका प्रिय भोजन हैं। इस तरह उनकी आबादी को नियंत्रित कर, पारिस्थितकीय तंत्र में ये चिड़िया अपनी अहम भूमिका निभाती है। इंडियन कुक्कू के साथ ही यूरेशनियन, हिमालयी, पाइड (चातक) समेत कई तरह की कुक्कू चिड़िया अलग-अलग रंग और प्रजाति के साथ मौजूद हैं।
चातक चिड़ियां भी दो-तीन रोज पहले यहां पहुंच चुकी हैं। उनके दिखने का मतलब होता है कि मानसून आने ही वाला है। लोककथाओं का हिस्सा रही चातक चिड़िया दिखने के बाद किसान खेत तैयार करने लगते हैं कि अब बारिश होगी। वैज्ञानिक भी इस बात से नहीं इंकार करते। सुरेश बताते हैं कि इन्हीं चातक चिड़िया पर इस बार एक छोटा सा ट्रांसमीटर लगाने की तैयारी है। इनकी ट्रैकिंग स्टडी की जाएगी। ट्रांसमीटर सेटेलाइट के जरिये ये सूचना देगा कि ये चिड़िया किन रास्तों से गुजरती हुई, कहां लौटती हैं। चातक के बाद अन्य कुक्कू चिड़िया पर भी इस तरह का प्रयोग किया जाएगा।
काफल-पाको चिड़िया की लोककथा
पहाड़ों में मानते हैं कि एक गरीब मां ने बड़ी मेहनत से जंगल से काफल जुटाए कि इसे बेचकर दो पैसे मिलेंगे। दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम होगा। काफल की टोकरी की देखभाल की जिम्मेदार मां ने अपनी नन्ही बेटी को सौंपी और खुद मवेशियों के लिए चारा लाने जंगल चली गई। धूप में रखे काफल सिकुड़ गए। मां जंगल से लौटी तो उसे टोकरी में काफल कुछ कम लगे। वहीं उसकी बेटी सो रही थी। उसने नींद में लेटी बच्ची को ही ज़ोर से मारा। बच्ची की मौत हो गई। सदमे से कुछ दिनों बाद मां की भी मौत हो गई। यही मां-बेटी काफल-पाको चिड़िया बन गईं। जब काफल पकते हैं, मां चिड़िया कहती है “काफल-पाको”, बेटी चिड़िया बोलती है “मैं नि चाख्यो (मैंने नहीं चखा)”। यही धुन चिड़िया की आवाज़ से सुनायी देती है।
काफल के बारे में
काफल उत्तराखंड का जंगली फल है। चटक लाल-काले रंग का ये फल देखने में खूबसूरत और खट्टे-मीठे स्वाद वाला होता है। इसका औषधीय इस्तेमाल भी खूब होता है। पहाड़ों में ये आर्थिकी का ज़रिया भी है। जंगलों में चिड़ियों-जानवरों के भोजन के काम आता है।