साहित्य में पर्यावरण: हमें निरंतर जगा रहे हैं सजग रचनाकार

हिन्दी साहित्य में 1980 के बाद अखबार और पत्र-पत्रिकाओं ने भी पर्यावरण और विज्ञान में रुचि दिखाई, जिसने समाज को लाभान्वित किया 

On: Wednesday 20 October 2021
 
इलस्ट्रेशन: रितिका बोहरा

- महादेव टोप्पो - 

पिछले कुछ दशक तक माना जाता रहा है कि हिन्दी साहित्यकार का सामान्य ज्ञान, अन्य भाषा-भाषियों के मुकाबले कम होता है। इसको लेकर अस्सी के दशक में धर्मयुग जैसी पत्रिका ने एक परिचर्चा ही आयोजित कर दी थी। लेकिन, पिछले करीब बीस सालों के हिन्दी लेखन का अवलोकन करते हैं तो हम पाते हैं कि नब्बे के बाद हिन्दी में, विविधतापूर्ण लेखन की सार्थक शुरूआत हुई है। इसका एक बड़ा कारण तो यह था कि 1977 के बाद मुद्रण में आधुनिक तकनीक का आगमन हुआ। दूसरा आपातकाल के बाद देश में एक नई तरह का खुलापन, सोच और जिज्ञासा पत्रकारिता जगत में फूटी जो पारंपरिक सांचे से अलग कुछ कर दिखाना चाहती थी।

इस समय हिन्दी में कई युवा पत्रकारों की जमात पैदा हुई, जो हिन्दी में कुछ नया और बेहतर करके दिखाना चाहती थी। यही कारण है कि हिन्दी में 1980 के बाद कई ऐसे विषयों को हिन्दी में लिखा गया जिसके बारे सामान्यतः यह समझा जाता था कि यह अंग्रेजी में ही लिखा जा सकता है। आर्थिक, तकनीक, विज्ञान, खेल, पर्यावरण, विकास आदि विषयों पर कम ही पत्रिकाओं में लेख आदि छपते थे। लेकिन तब दिल्ली, मुंबई से कई साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक पत्र पत्रिकाएं प्रकाशित हुई हीं अन्य बड़े शहरों से भी साप्ताहिक, मासिक पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ। कई साप्ताहिक अखबार हिन्दी में प्रकाशित हुए। कई अंग्रेजी साप्ताहिकों का हिन्दी संस्करण भी प्रकाशित हुआ जैसे चौथी दुनिया, संडे ऑबजर्वर, संडे मेल आदि। इन सबका एक अच्छा परिणाम यह हुआ कि कई लेख आदि जो अंगरेजी में छपते थे, उनमें से कुछ हिन्दी में भी अनुदित होकर छपे।

वहीं कई लेखक पत्रकारों ने हिन्दी में नये विषयों, मुद्दों, समस्याओं पर भी लिखना शुरू किया जिनमे विदेश नीति, विज्ञान, खेल, आदिवासी समस्या, मानविकी, भूगोल, व्यापार, सिनेमा, तकनीक के अलावा पर्यावरण भी एक प्रमुख विषय था तब सुन्दरलाल बहुगुणा का चिपको आंदोलन शुरू हो चुका था और इस आंदोलन के बारे हिन्दी के साप्ताहिकों धर्मयुग, हिन्दुस्तान, रविवार, दिनमान आदि में लगातार प्रकाशित हुए। तब भारतीय प्रशासनिक अधिकारी ब्रह्मदेव शर्मा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति आयोग के कमिश्नर बने और उन्होंने अपनी रिपोर्ट मूलत- हिन्दी में लिखी।

इसकी हिन्दी जगत में बहुत प्रशंसा की गई थी क्योंकि आदिवासी, विकास तथा पर्यावरण के मुद्दों पर हिन्दी में लिखना जटिल कार्य समझा जाता था। कहने का आशय यह कि नब्बे के दशक में हिन्दी में विविधतापूर्ण विषयों पर लिखा जाना आरंभ हो चुका था। कह सकते हैं कि साहित्येतर या ज्ञान संबंधी विषयों पर हिन्दी में भी काफी कुछ लिखा जाने लगा था। गुणाकर मुले जैसे लेखकों के विज्ञान लेखो को काफी पसंद किया गया। हिन्दी में विविध विषयों पर पर्यावरण और विकास का मुद्दे भी एक प्रमुख विषय के रुप में लोकप्रिय हो रहे थे।

बड़े बाँधों,अभ्यारण्यों के निर्माण संबंधी जंगल बचाओ, नदी बचाओ जैसे आंदोलनों के बारे, इनके विविध पक्षों, जटिलताओं, खतरों के बारे भी जानकारीपूर्ण आलेख, रिपोर्ट इन हिन्दी साप्ताहिकों में छप रहीं थी। मेधा पाटकर नर्मदा आंदोलन में सक्रिय हो गई थी। अनुपम मिश्र द्वारा हिन्दी में पर्यावरण पर लिखित पुस्तक ने काफी प्रशंसा पा रही थी और आज देखते हैं कि पर्यावरण पर उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं। बाँध एवं जल प्रबंधन समस्या जैसे जन सरोकार के मुद्दे पर “जब नदी बंधी” पुस्तक “हेमन्त एवं रंजीव” द्वारा संपादित कर प्रकाशित की गई।

हेमन्त द्वारा संपादित एक अन्य पुस्तक “इस देस में जो गंगा बहती है” भी प्रकाशित हुई। बाँध एवं विस्थापन की समस्या पर वीरेन्द्र यादव को उपन्यास डूब भी प्रकाशित हुआ और पाठकों, समीक्षकों द्वारा प्रशंसा पाने में सफल रहा। संजीव के के उपन्यासों में पर्यावरण संबंधी मुद्दे शामिल हैं जैसे पाँव तले की दूब, रणेन्द्र का उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता पर्यावरण के विविध मुद्दों व विकास के घातक प्रभावों में जीते मनुष्यों के समस्याओं, तकलीफों को चित्रित करता है। प्रकृति पर बेशरम व निष्ठुर आक्रमण।

प्राकृतिक संसाधनों की अनुशासनहीन व बेतरतीब लूट आगे कुछ लेखकों के विषय बने। महुआ मांजी का उपन्यास “मरंग गोड़ा नीलकंठ ” हुआ में यूरेनियम से प्रभावित आदिवासी क्षेत्र का विशद वर्णन है। इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंच पर ले जाने को उपन्यास में दर्शाया गया है। इतना कुछ होने के बाद भी हिन्दी में पर्यावरण को मुद्दा मुख्य धारा के अधिकांश लेखकों, रचनाकारों को प्रभावित नहीं कर सका था। लेकिन 2012 के बाद धीरे धीरे लोगों में पर्यावरण का मुद्दा आकर्षित करने लगा। सन् 2014 के बाद कई आदिवासी रचनाकारों के कविता संग्रह प्रकाशित हुए।

हालांकि भारत भर के रचनाकारों का एक संग्रह “इक्कीसवीं सदी में आदिवासी स्वर” सन् 2002 में रमणिका गुप्ता के संपादन में प्रकाशित हो चुका था। फिर “कलम को तीर होने दो’ संग्रह रमणिका गुप्ता के संपादन में ही प्रकाशित हुआ, जिसमें झारखंड के सत्रह आदिवासी कवियों की रचनाएं प्रकाशित हुईं। सन् 2004 में निर्मला पुतुल की कविता संग्रह नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द पुस्तक के बारे अरुण कमल ने लिखा – ये कविताएँ स्वाधीनता के बाद हमारे राष्ट्रीय विकास के चरित्र पर प्रश्न करती हैं। सभ्यता के विकास और प्रगति की अवधारणा को चुनौती देती ये कविताएं एक अर्थ में सामाजिक-सांस्कृतिक श्वेत-पत्र भी हैं।” इन प्रकाशनों के अलावा कई विश्वविद्यालयों में आदिवासी साहित्य को लेकर कई संगोष्ठियों पूरे भारत में आयोजित की जाती रहीं हैं और आज तक राष्ट्रीय स्तर पर यह आयोजन निरंतर चल रहा है।

वंदना टेटे के अलावा केदार प्रसाद मीणा जैसे कई संपादकों ने हिन्दी और भारतीय भाषाओं के रचनाकारों के संग्रह संपादित किए। चूंकि आदिवासी रचनाकार जल, जंगल, जमीन के सवाल को मुखरता से अपनी रचनाओं में व्यक्त करते रहे हैं। अतः, उनकी रचनाओं में व्याप्त, आक्रोश, गुस्सा, प्रतिरोध आदि ने लगता है मुख्यधारा के उन कवियों व नये रचनाकारों को प्रभावित किया, प्रतीत होता है जो लिखना आरंभ कर रहे थे। मंगलेश डबराल की कविताओं में यह चिन्ता लगातार उपस्थित है।

अब कई नये कवि तक विकास, पर्यावरण, प्रकृति पर संकट की चिंता में कुछ न कुछ लिख रहे हैं और अपनी सशक्त कविताओं से अपनी उपस्थिति दर्ज की है। इस तरह कभी पर्यावरण की समस्या पर चर्चा करना या तो पर्यावरणविदों का या आदिवासियों का मुद्दा माना जाता था। परंतु आज मुख्यधारा के अधिकांश कवियों का यह प्रिय, प्रमुख विषय व चिंता बनता जा रहा है. यही कारण है वर्तमान में हिन्दी की अधिकांश पत्रिकाओं में ऐसी रचनाएं प्रमुखता से स्थान पाने लगीं हैं जिसमें प्रकृति व पर्यावरण संबंधी विभिन्न खतरों आदि के बारे में चिंतन या वर्णन है।

कुछ कवियों के कविता संग्रह का शीर्षक है पर गौर करे - जंगल में फिर आग लगी है, जंगल,पागल हाथी और ढोल, जंगल पहाड़ के पाठ, शाल वन की धरा से आदि। अधिकांश हिन्दी कवि आज जंगल, पहाड़, नदी, पेड़, पौधे, जीव जंतुओं, हरियाली, धरती की उर्वरता आदि की चिंता करते दिख रहे हैं और ऐसी संवेदनशील, दृष्टिसंपन्न रचनाओं की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। क्योंकि हिन्दी कवि को पता चल गया है कि – लॉक़डाउन से/ प्रकृति निखर गई है/ नदियाँ हो गईं/ और स्वच्छ/ चिड़ियां भरने लगी/ स्वच्छंद उड़ान/ और जो उसके दुश्मन थे/चले गए/ तिलिस्मी खोह में (प्रकृति – नीलोत्पल रमेश) आगे इसी कविता में कहा गया है – कोरोना वायरस ने/ वह सबकुछ / कर दिया संभव / जिसके लिए / लगातार बहते रहे / पानी की तरह पैसे / और प्रकृति / उन्मुक्त हंसी / हंसती रही / हम मनुष्यों पर.” लेकिन अनिल अनलहातु नदियों के खोने पर बेचैन है और कहते है – “वह नदी जो गाँव के, पश्चिमी सिवान पर बहती थी, बची रह गई है स्मृतियों में।”

सजग रचनाकार हमें निरंतर जगा रहे हैं, सचेत कर रहे है। लेकिन हम प्राकृतिक संसाधनों को लगातार विकास के नाम खो रहे हैं। अपने आस-पास की हरियाली और पेड़ों की शीतल छाँव से भी वंचित होते जा रहे हैं। और तो और न तो शुद्ध पानी पा रहे हैं और न हवा और न बचा पा रहे हैं। न प्यारी सुन्दर धरती। ऐसे में सभी को गंभीरतापूर्वक सोचना है कि यह आदमखोर, धरतीखोर, मुनाफाखोर, पूँजीवादी अनियंत्रित-विकास तथा उपभोक्तावादी-संस्कृति हमसे और क्या क्या छीनेगी ? और हम इससे कैसे बच सकेंगे?

(लेखक आदिवासी विषयों के जानकार और साहित्यकार हैं)

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