स्टेन स्वामी: एक जुझारू योद्धा, शांति के पुरोधा और एक महान इंसान

स्टेन स्वामी ने हमेशा भारतीय संविधान को लागू करने और हाशिए पर रहने वाले लोगों के लिए बने कानूनों और नीतियों को सुरक्षित बनाए रखने पर जोर दिया

By Gladson Dungdung

On: Tuesday 06 July 2021
 

 

मैं फादर स्टेन स्वामी को एक दशक से भी ज्यादा वक़्त से जानता था। मुझे उनके साथ काम करने का मौका भी मिला। इस दौरान हमने आदिवासियों के सरकार समर्थित मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ कुछ वर्षों तक एक साथ काम किया।

हमने सुरक्षा बलों द्वारा निर्दोष आदिवासियों की नृशंस हत्या के बारे में जानने के लिए शुरू किए गए फैक्ट-फाइंडिंग मिशन के दौरान झारखंड के तथाकथित रेड कॉरिडोर के घने जंगलों के अंदर कई बार एक साथ यात्रा की थी।

फादर स्टेन एक निडर, जुझारू, तटस्थ, संवेदनशील और बहादुर मानवाधिकार कार्यकर्ता थे। वह एक महान योद्धा थे। उन्होंने हमेशा भारतीय संविधान को लागू करने और हाशिए पर रहने वाले लोगों के लिए बने कानूनों और नीतियों को सुरक्षित बनाए रखने पर जोर दिया।

वह हजारों निर्दोष आदिवासियों की क्रूर हत्याओं, बलात्कार, यातनाओं, पुलिस हिरासत के दौरान हुए अपराधों और झूठे मामलों के खिलाफ लड़ रहे थे। दुर्भाग्य से सरकार ने उन्हें इन्हीं हाशिए पर पड़े लोगों की आवाज उठाने के लिए फंसाया गया।

जब मैं पहली बार 2006 में स्टेन स्वामी से मिला तो वे झारखंड के एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जो मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में जाने जाते थे। तब तक उन्हें मानवाधिकारों के खुले तौर पर होने वाले उल्लंघन के मामलों पर काम करने का अच्छा-खासा अनुभव हो चुका था।

उनको राज्य में खनन के खिलाफ आवाज उठाने वाले कार्यकर्त्ता के रूप में भी जाना जाता था। उन्होंने राज्य के सारंडा जंगल में लोहे के खनन के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। मानवाधिकारों के क्षेत्र में मेरी रुचि के बारे में जानकर उन्हें बहुत खुशी हुई। वास्तव में, वह चाहते थे कि युवा आदिवासी अपने समुदाय के मुद्दों को उठाएं।

स्टेन स्वामी मानवाधिकारों से जुड़ी गतिविधियों के अलावा एक महान प्रशिक्षक और लेखक भी थे। उन्होंने हजारों आदिवासी पुरुषों, महिलाओं और युवाओं को प्रशिक्षित किया जो बाद में कार्यकर्ता बन गए और जो अब अपने समुदायों के मुद्दों के लिए लड़ रहे हैं। उन्होंने आदिवासी मुद्दों पर भी लगातार लेखन किया। वह एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने आदिवासी जीवन दर्शन को समझा, एक ऐसा दर्शन जो एक तरह से हम सभी का भविष्य है।

मैंने स्टेन स्वामी के साथ ऐसे समय में काम किया, जब केंद्र सरकार ने आदिवासियों के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाया हुआ था। केंद्र सरकार ने अक्टूबर 2009 में माओवादी प्रभावित सभी नौ राज्यों में ऑपरेशन ग्रीन हंट नाम का एक संयुक्त माओवादी-विरोधी अभियान शुरू किया था। इस क्षेत्र को 'रेड कॉरिडोर' का नाम दिया गया था और सरकार का मिशन इन सभी इलाकों को माओवादियों से मुक्त करना था।

इसके बजाय सुरक्षा बलों ने निर्दोष आदिवासियों को शिकार बनाना शुरू कर दिया। झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा जैसे राज्यों में न्यायेतर हत्याओं, बलात्कारों, हिरासत में यातना, दुर्व्यवहार और झूठे आरोपों में फंसाने के मामले बहुत तेजी से बढ़ने लगे।

फादर स्टेन के नेतृत्व में हमने फैक्ट-फाइंडिंग, कानूनी रूप से हस्तक्षेप और वस्तुस्थिति के बारे में लिखना शुरू किया। हमने झारखंड में भी विरोध-प्रदर्शन करना शुरू किया। जब स्कूलों को सैन्य शिविरों में बदला जाने लगा, तब हमनें इस कदम का भी कड़ा विरोध किया। इसके चलते कई स्कूल खाली हो गए थे।

मैं स्टेन स्वामी से जुड़ी एक दिलचस्प घटना का जिक्र करना चाहूंगा। जून 2010 में, हमने रांची में एक बड़ी रैली का आयोजन किया था, जिसे वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने प्रतिबंधित कर दिया था। उन्होंने आरोप लगाया था कि यह माओवादियों की रैली है।

झारखंड उस समय राष्ट्रपति शासन के अधीन था। मैंने और स्टेन ने राज्यपाल के सलाहकार आरआर प्रसाद से मिलने का फैसला किया, जो गृह विभाग के प्रभारी थे। जब हमने उनके कार्यालय में प्रवेश किया तो उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा: "आप (स्टेन) एक वरिष्ठ माओवादी हैं और वह (ग्लैडसन) एक जूनियर माओवादी हैं। मैं आप लोगों के लिए क्या कर सकता हूँ?”

हमने उनसे अनुरोध किया कि हमें रैली करने की अनुमति दें। वह सहमत हो गए और पुलिस महानिदेशक से हमें एक रैली करने की अनुमति देने के लिए कहा। हमें तब एहसास हुआ कि राज्य की नजरों में हम क्या हैं। हमें लगा कि हम तो पहले ही उसके दुश्मन बन चुके थे।

स्टेन स्वामी आदिवासियों के लिए आवाज उठा रहे थे, वे उनके दिल के बेहद करीब थे। वे बहुत खुले विचारों वाले व्यक्ति थे। वे मूल रूप से न्याय और सुलह के मूल्यों में विश्वास करते थे।

वह हर उस व्यक्ति के साथ जुड़ते थे, जो हाशिए पर पड़े लोगों के लिए संघर्ष करता था। यही मुख्य कारण था कि वह राज्य के निशाने पर भी आ गए।

सरकार ने उनका नाम माओवादियों/नक्सलियों के साथ जोड़ना शुरू कर दिया। वह सार्वभौमिक न्याय के लिए प्रतिबद्ध थे। इसके साथ-साथ वे बहुत बहादुर भी थे। जब मामला बहुत बढ़ गया और उनकी गिरफ्तारी अपरिहार्य हो गई तो कई लोगों ने उनको सुझाव दिया कि वह छिप जाएं। लेकिन उन्होंने पलक झपकते ही उन सुझावों को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वह इसका सामना करेंगे। वह राज्य से असहज प्रश्न पूछने के परिणाम भुगतने के लिए हमेशा तैयार रहते थे।

जब स्टेन स्वामी राज्य सरकार के निशाने पर आए तो दक्षिणपंथी ताकतों ने भी उन पर आदिवासियों का धर्मांतरण कराने का आरोप लगाया, जो पूरी तरह निराधार था। मुझे इन बेतुके आरोपों पर हंसी आती है, क्योंकि मैंने कभी भी उन्हें चर्च या अन्य जगहों पर लोगों को धर्मांतरण की पेशकश करते हुए नहीं देखा है।

बेशक, ये मेरे लिए भी बहुत बड़े आश्चर्य की तरह था। क्या किसी कैथोलिक पादरी से ये उम्मीद की जा सकती है कि वह अपनी धार्मिक जिम्मेदारियों से खुद को अलग रखे? सच्चाई ये है कि वे आदिवासियों के धर्मांतरण के बजाय न्याय और सुलह के अपने अभियान को ही आगे बढ़ा रहे थे। वे सही मायनों में न्याय और शान्ति से प्यार करने वाले व्यक्ति थे। वे एक महान इंसान थे।

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