विकास के आखिरी पायदान पर खड़े हैं आदिवासी: रिपोर्ट

पहली जनजातीय विकास रिपोर्ट में कहा गया है कि कई कारणों के चलते विकास आदिवासियों तक पहुंच नहीं पाता है

By Shuchita Jha

On: Wednesday 30 November 2022
 

भारत रूरल लाइवलीहुड फाउंडेशन ने 28 नवंबर को दो खंडों में पहली जनजातीय विकास रिपोर्ट जारी की। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में दो दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जहां रिपोर्ट के लेखकों ने अपने पेपर्स और निष्कर्षों पर चर्चा की।

रिपोर्ट आजीविका, कृषि, प्राकृतिक संसाधन, अर्थव्यवस्था, प्रवासन, शासन, मानव विकास, लिंग, स्वास्थ्य, शिक्षा, कला और संस्कृति के संबंध में अखिल भारतीय स्तर और मध्य भारत में जनजातीय समुदायों की स्थिति पर केंद्रित है। उल्लेखनीय है कि मध्य भारत देश के 80% आदिवासी समुदायों का घर है।

29 नवंबर को कार्यक्रम के दूसरे दिन श्रोताओं को संबोधित करते हुए बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल, असम के मुख्य कार्यकारी सदस्य प्रमोद बोरो ने असम में आदिवासी समुदायों के मुद्दों के बारे में बात की और कहा कि आदिवासियों की विशेषताओं को समझना उनके लिए नीतियां बनाने के लिए महत्वपूर्ण है।

उन्होंने बताया कि कई आदिवासी समुदाय हैं जो एकांत और शांति पसंद करते हैं। वे शर्मीले होते हैं और वे स्वयं बाहर की दुनिया से संपर्क साधना नहीं जानते। नीति निर्माताओं और देश के नेताओं को इस विशेषता को समझने की जरूरत है। वे ये विशेषताएं समझ के उनके लिए कल्याण के कार्य करेंगे तो आदिवासियों से बेहतर तरीके से जुड़ पाएंगे। अक्सर आदिवासी क्षेत्र ऐसे क्षेत्र हैं जो बहुत अशांति और संघर्ष का सामना करते हैं। यही वजह है कि कई सरकारी कल्याणकारी योजनाएं और नीतियां इन क्षेत्रों में शुरू नहीं हो पाती हैं। ऐसे क्षेत्रों में संकट दोनों पक्षों को प्रभावित करता है।

आजादी के 75 वर्षों में यह अपनी तरह की पहली रिपोर्ट है और मानव विकास के विभिन्न संकेतकों के बारे में बात करती है और पाती है कि भारत के आदिवासी समुदायें विकास पिरामिड में सबसे निचले स्तर पर हैं ।

बीआरएलएफ के मुख्य कार्यकारी अधिकारी प्रमथेश अंबस्ता कहते हैं, “यदि हम स्वच्छता, पोषण, पीने के पानी और शिक्षा तक किसी भी मुद्दे को देखें, तो हम पाएंगे कि आजादी के 75 वर्षों के बावजूद आदिवासी सबसे अधिक वंचित हैं। इसलिए आदिवासियों के सामने आने वाली चुनौतियों पर ध्यान देना महत्वपूर्ण हो जाता है।” 

रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के स्वदेशी समुदायों को उर्वर मैदानों और उपजाऊ नदी घाटियों से दूर पहाड़ियों, जंगलों और शुष्क भूमि जैसे देश के सबसे कठोर पारिस्थितिक क्षेत्रों में धकेल दिया गया है। 257 आदिवासी जिलों में से 230 जिले (90%) या तो जंगल या पहाड़ी या सूखे हैं, लेकिन वे देश की 80% जनजातीय आबादी के गढ़ हैं।

इसमें आगे कहा गया है कि औपनिवेशिक शासन के दौरान, आदिवासियों और उनके तत्काल पर्यावरण के साथ सहजीवन के संबंध टूट गए थे और 1980 में वन संरक्षण अधिनियम के लागू होने के बाद, पर्यावरण संरक्षण और स्थानीय आदिवासियों की जरूरतों को एक दुसरे का विरोधी माना जाने लगा ।

1988 की राष्ट्रीय वन नीति में पहली बार स्थानीय लोगों की घरेलू आवश्यकताओं को स्पष्ट रूप से मान्यता दी गई थी। नीति में आदिवासियों के परंपरागत अधिकारों की रक्षा करने और वनों की सुरक्षा में आदिवासियों को जोड़ने पर जोर दिया गया था, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है।

यह रिपोर्ट आदिवासी जीवन और आजीविका के महत्वपूर्ण आयामों पर सरकारी स्रोतों, केस स्टडी, अभिलेखीय शोध और साक्षात्कार से डेटा को जोड़ती है। लक्ष्य जनजातीय मुद्दों के दायरे को समझने में मदद करने के लिए प्रमुख नीति निर्माताओं, चिकित्सकों, कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों को सूचित करना है।

रिपोर्ट मध्य भारत के आदिवासी समुदायों के लिए आजीविका के व्यापक विषय पर केंद्रित है। यह समग्र व्यापक आर्थिक स्थिति, कृषि, भूमि, ऊर्जा और जल उपयोग, विशेष रूप से भूजल प्रबंधन पर एक संगठित रिपोर्ट है।

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