क्या राजनीतिक छत्रछाया में पल रहा चीनी उद्योग पर्यावरण, खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य के लिए भी है फायदेमंद?

स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी ने भारत के चीनी उद्योग का व्यापक विश्लेषण किया है, जो बेहद रोचक है

By Lalit Maurya

On: Tuesday 04 August 2020
 

भारत में दशकों से ही चीनी उद्योग पर राजनीति की विशेष कृपा रही है। यही वजह है कि लम्बे समय से यह उद्योग देश में फलता-फूलता रहा है और आज देश दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा चीनी उत्पादक है। पर इसी को समझने के लिए स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा एक व्यापक विश्लेषण किया गया है।

विश्लेषण में इस उद्योग के चलते भोजन, पानी और ऊर्जा सुरक्षा किस तरह प्रभावित हो रही है, उसे समझने का प्रयास किया गया है। साथ ही राजनैतिक हितों ने उसपर किस तरह असर डाला है, उसे भी समझने की कोशिश की गई है। यह शोध 24 जुलाई 2020 को जर्नल एनवायरनमेंट रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित हुआ है। 

देश के कई चीनी मिलें राजनेताओं द्वारा चलाई जा रही है या फिर उन मिलों में उनकी पूरी नहीं तो कुछ हिस्सेदारी जरूर है। ऐसे में जाहिर सी बात है जो नीतियां बनाई जाएंगी उसमें अपने हितों को तो दरकिनार नहीं किया जा सकता। 

गन्ना छोड़ ऐसी दूसरी कोई फसल नहीं है, जो किसी राज्य की राजनीति से इतने करीब से जुड़ी हो, जितनी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक की सियासत में गन्ने की अहमियत है। तीनों बड़े गन्ना उत्पादक राज्यों में कुल 156 लोकसभा सीटें हैं। 2019 में इन सीटों में बीजेपी के हिस्से में 128 सीटें आई हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि गन्ना और चीनी मिल पर कब्जे का अर्थ है देश की 545 लोकसभा सीटों में से एक तिहाई सीटों पर अपना राजनीतिक वर्चस्व कायम करना। 

देश के लिए कितनी फायदेमंद है गन्ने से बनी ऊर्जा 

भारत सरकार ने 2030 तक इथेनॉल से गैसोलीन ब्लेंडिंग की दर को 6 फीसदी से बढ़ाकर 20 फीसदी करने का लक्ष्य रखा है। साथ ही गन्ने से इथेनॉल के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए भी कई नीतियां पेश की हैं। ऐसा ऊर्जा सुरक्षा को और मजबूत करने के लिए किया जा रहा है। पर शोधकर्ताओं के अनुसार मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि फीडस्टॉक के लिए किस चीज का इस्तेमाल करते हैं। 

भारत की राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति में हाल ही में गुड़ और खांड के साथ-साथ इथेनॉल बनाने के लिए गन्ने के रस के भी उपयोग की अनुमति दे दी है। शोध के अनुसार गन्ने के रस से सीधे इथेनॉल का उत्पादन जल और ऊर्जा संसाधनों को अधिक सस्टेनेबल बना सकता है। साथ ही इससे अन्य पोषक फसलों के लिए भूमि और जल की उपलब्धता भी बनी रहेगी।

इस शोध की सह लेखक अंजुली जैन फिगुएरोआ के अनुसार “यदि भारतीय ऊर्जा उद्योग अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए बायोइथेनॉल फीडस्टॉक के रूप में गुड़ अथवा खांड का उपयोग जारी रखेगा तो उससे सिंचाई के लिए अतिरिक्त जल और जमीन की जरुरत पड़ेगी। जबकि इसके विपरीत यदि उद्योग इथेनॉल का उत्पादन करने के लिए गन्ने के रस का उपयोग करता है, तो बिना अतिरिक्त भूमि और जल के लक्ष्यों को हासिल किया जा सकेगा।” 

पोषण के न होने के बावजूद देश में आज भी चीनी पर दी जा रही है सब्सिडी 

भारत में चीनी के लिए जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली  प्रयोग की जा रही यही वो 1950 के दशक की है। जब लगातार पड़ते अकाल ने देश को त्रस्त कर दिया था। इसके बाद, चीनी ने कैलोरी की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद की थी। लेकिन आज परिस्थितियां बदल गई हैं। अब पोषण की कमी ज्यादा बड़ी समस्या है। माइक्रोन्यूट्रिएंट की कमी से बीमारी, विकलांगता और यहां तक कि मौत भी हो रही है। 

देश में जिस तरह से गन्ने की खेती पर बल दिया गया है उससे इसके उत्पादन में वृद्धि हो रही है। इसमें नीतियों का बहुत बड़ा हाथ है जैसे गन्ने का न्यूनतम मूल्य, इसकी खरीद की गारंटी और चीनी को सार्वजनिक वितरण प्रणाली में शामिल किया जाना। जिसके कारण देश के 60 लाख किसानों के लिए यह फसल एक फायदे का सौदा है, यही वजह है कि किसान लम्बे समय से इसको ऊगा रहे हैं। पर इसका असर माइक्रोन्यूट्रिशन से भरपूर अन्य फसलों के उत्पादन पर पड़ रहा है क्योंकि इसके कारण उन न्यूट्रिशन से भरपूर फसलों के लिए उपलब्ध संसाधन कम हो रहे हैं। 

पोषण से भरपूर अन्य फसलों पर भी दिया जाना चाहिए ध्यान 

ऐसे में शोधकर्ताओं का मानना है कि एक ऐसी फसल पर जोर देने से जो न्यूटिशन की जरूरतों को पूरा नहीं कर सकती, इससे वैश्विक खाद्य प्रणाली पर दबाव बढ़ेगा। क्योंकि इसके चलते भारत को अपनी बढ़ती जरूरतों के लिए अधिक मात्रा में खाद्य पदार्थों को आयात करने की जरुरत पड़ेगी।    

अपने इस शोध के लिए शोधकर्ताओं ने महाराष्ट्र के गन्ना उद्योग का विश्लेषण किया है। जोकि देश का एक प्रमुख गन्ना उत्पादक राज्य है। पिछले 50 सालों में गन्ने की खेती 7 गुना बढ़ गई है जोकि राज्य में सिंचाई के लिए उपलब्ध जल की एक बड़ी मात्रा खर्च कर रही है। शोध के अनुसार 2010-11 में महाराष्ट्र की कुल कृषि भूमि के केवल 4 फीसदी हिस्से में ही इसकी खेती की जाती थी, पर इसके लिए राज्य के 61 फीसदी सिंचाई जल की जरुरत पड़ती थी। जबकि पोषक तत्वों से भरपूर अन्य फसलों के लिए सिंचाई की उपलब्धता राष्ट्रीय औसत से भी कम थी। 

2018-19 के आंकड़े बताते हैं कि राज्य की 195 चीनी मिलों में से 54 मराठवाड़ा में हैं, जोकि सूखा ग्रस्त क्षेत्र है। 2012-13 में, जब मराठवाड़ा के गांवों में टैंकरों के जरिए पीने के पानी की व्यवस्था की गई थी, तब इस क्षेत्र में 20 नई चीनी मिलों ने काम शुरू किया था। 

इस शोध से जुड़े स्टीवन गोरेलिक ने बताया कि हमने जिस क्षेत्र में अध्ययन किया है वहां गन्ने की फसल अन्य फसलों की तुलना में चार गुना है। जिसमें 2000 से 2010 के बीच दोगुनी वृद्धि हो चुकी है। जिसके परिणामस्वरूप इस अवधि में नदी के प्रवाह में लगभग 50 फीसदी की कमी आई है। चूंकि यह क्षेत्र सूखे के लिए अतिसंवेदनशील है ऐसे में भविष्य में इस के लिए जल प्रबंधन काफी मुश्किल हो जाएगा।”

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