कॉप28 में जीवाश्म ईंधन की भूमिका पर तो दिया गया ध्यान, लेकिन इक्विटी को कर दिया नजरअंदाज: सीएसई

सीएसई का कहना है कि कॉप28 में जीवाश्म ईंधन की भूमिका पर तो ध्यान दिया गया, लेकिन इक्विटी के मुद्दे को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया है। 

By Lalit Maurya

On: Thursday 14 December 2023
 

जलवायु परिवर्तन पर होने वाला कुंभ यानी 28वां संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन (कॉप-28) अब समाप्त हो चुका है। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन पर चर्चा का एक अध्याय अब पूरा हो चुका है, हालांकि इस सम्मेलन की उपलब्धियों पर जो प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं वो कुल मिलाकर मिली-जुली हैं।

नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) का इस बारे में कहना है कि इस साल कॉप28 के दौरान जलवायु में आते बदलावों के लिए जीवाश्म ईंधन की भूमिका पर तो ध्यान दिया गया, लेकिन साथ ही इक्विटी के मुद्दे को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया। हालांकि वार्ता के पहले ही दिन विकसित देशों ने हानि और क्षति से जुड़ी वित्तीय योजना पर सहमति जताते हुए एक समझौता करने का प्रयास किया। यह एक ऐसा कदम था जिसका स्वागत किया गया। इस कदम से सम्मेलन के सुखद परिणामों को लेकर भी उम्मीदें जगीं थी।

इस फण्ड का स्वागत करते हुए सीएसई ने भी अपने बयान में कहा है, "हम इस फंड के लिए उच्च और मध्यम आय वाले देशों द्वारा 65.59 करोड़ डॉलर देने के उनके वादे की सराहना करते हैं।" लेकिन साथ ही सीएसई का यह भी कहना है कि विकासशील देशों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए इस फण्ड में विकसित देशों द्वारा समय-समय पर नए और अतिरिक्त अनुदान-आधारित वित्त की पूर्ति की जानी चाहिए। इसके साथ ही यह वित्त बिना किसी शर्तों के दिया जाना चाहिए।

कॉप28 का समापन पहले ग्लोबल स्टॉकटेक (जीएसटी) के परिणामों को अपनाने के साथ हुआ। बता दें कि ग्लोबल स्टॉकटेक पेरिस समझौते के लक्ष्यों पर हुई प्रगति का आकलन करता है। इस बारे में सीएसई ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी देते हुए लिखा है कि कॉप28 में जिन मुद्दों पर सहमति बनी है, उनके बारे में 'यूएई आम सहमति' नामक एक पाठ जारी किया गया है। जीएसटी पेरिस समझौते में किए डेढ़ डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल करने के लिए ग्रीनहाउस गैसों में पर्याप्त, तेज और निरंतर कटौती की आवश्यकता को स्वीकार करता है।

विकसित देशों से क्यों नहीं छूट रहा जीवाश्म ईंधन का मोह

इसमें देशों से वैश्विक स्तर पर अक्षय ऊर्जा क्षमता को तीन गुना करने की बात कही गई है। साथ ही कोयला आधारित ऊर्जा को चरणबद्ध तरीके से कम करने और ऊर्जा प्रणालियों में जीवाश्म ईंधन से दूरी बनाने का भी आह्वान किया गया है।

गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन में जीवाश्म ईंधन की भूमिका की यह स्वीकृति ऐतिहासिक है और 30 से अधिक वर्षों के दौरान हुई जलवायु वार्ताओं में ऐसा पहली बार हुआ है। सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण का इस बारे में कहना है कि जीवाश्म ईंधन को जीएसटी में शामिल करना दुनिया के लिए आगे की राह पर चर्चा का एक महत्वपूर्ण शुरुआती बिंदु है, जोकि फंडिंग और निष्पक्षता पर आधारित होना चाहिए।

हालांकि सीएसई के शोधकर्ताओं का कहना है कि इस दस्तावेज में जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के लिए स्पष्ट योजना का अभाव है। उनके मुताबिक विकसित और विकासशील देशों के लिए अलग-अलग समय सीमा जरूरी है। जहां विकसित देश इस दिशा में तत्काल बदलावों को अपना सकते हैं। वहीं विकासशील देशों को उनके विकास के लिए कहीं ज्यादा कार्बन स्पेस दिया जाना चाहिए।

उनके अनुसार यह विकासशील देशों के लिए आवश्यक वित्तीय सहायता को तत्काल बढ़ाने पर भी जोर देने में विफल रहा है, जिसे विकसित देशों द्वारा जीवाश्म ईंधन से दूर जाने के लिए दिया जाना चाहिए। ऐसे में यह दस्तावेज जलवायु परिवर्तन से निपटने की जंग में सभी देशों पर समान बोझ डालकर समानता के सिद्धांत को कमजोर करता है।

सीएसई के मुताबिक जीएसटी 'ट्रान्सिशनल फ्यूल्स' के उपयोग को अनुमति देकर इसकी महत्वाकांक्षा को कमजोर करता है। ऐसे में ड्राफ्ट में मौजूद इस खामी का उपयोग तेल और गैस उत्पादक देश अपने उत्पादन और उपयोग को बढ़ावा देने के लिए कर सकते हैं। वास्तव में, जीएसटी कोयले को ईंधन के रूप में अलग करता है, और वहीं तेल और गैस के बारे में इसमें कोई उल्लेख नहीं किया गया है।

यह तब है, जब अमेरिका जैसे देश अपने एलएनजी निर्यात को रिकॉर्ड स्तर तक बढ़ा रहे हैं। वहीं अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) द्वारा जीवाश्म ईंधन की मांग बढ़ने की चेतावनी के बावजूद, यूरोपियन यूनियन बदस्तूर नए एलएनजी आयात टर्मिनलों का निर्माण कर रहा है। सीएसई शोधकर्ताओं का कहना है कि इस तरह के निवेश से कम से कम सदी के मध्य और उसके आगे भी कार्बन उत्सर्जन के होते रहने का जोखिम बना रहेगा।

क्या जलवायु नायक होने का छलावा भर कर रहे हैं विकसित देश

सीएसई की जलवायु परिवर्तन विभाग की प्रोग्राम मैनेजर अवंतिका गोस्वामी का कहना है कि अंतिम निर्णय से पहले के दिनों में एक भूमिका बांधी गई थी, जिसमें दर्शाया गया था कि विकसित देश 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य को हासिल करने को लेकर उत्सुक हैं और जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना चाहते हैं। वहीं बड़ी, उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं इस राह में रोड़ा डाल रही हैं।"

उनके मुताबिक यह भ्रामक है, क्योंकि विकासशील देशों की मांग ऊर्जा परिवर्तन के लिए अलग-अलग समयसीमा और वित्त की थी। वहीं इसे नजरअंदाज करके, विकसित देश इक्विटी की उपेक्षा करते हुए जलवायु नायकों की तरह दिखाई देते हैं। वहीं साथ ही वो तेल और गैस के प्रमुख उत्पादक और उपभोक्ता भी बने हुए हैं।

वहीं जीएसटी पर लिए फैसले के बाकी हिस्से में कुछ सकारात्मक तो कुछ नकारात्मक दोनों पहलू मौजूद हैं। इक्विटी के मुद्दे पर प्रकाश डालते हुए सीएसई की क्लाइमेट चेंज यूनिट की प्रोग्राम ऑफिसर तमन्ना सेनगुप्ता का कहना है कि "यह दस्तावेज विकसित देशों को उनके ऐतिहासिक उत्सर्जन के लिए जवाबदेह न ठहराकर समानता पर उसके रुख को कमजोर करता है।"

जिस एक और महत्वपूर्ण मुद्दे पर सहमति बनी है वो अनुकूलन पर वैश्विक लक्ष्य (जीजीए) है, जो अफ्रीकी समूह की एक प्रमुख मांग थी। इसको लेकर जो अंतिम निर्णय जारी किया गया है उसमें कुछ सकारात्मक तो कुछ नकारात्मक पहलू मौजूद हैं। इसमें जो बड़ी चूक सामने आई है वो यह है कि इस पाठ में सीबीडीआर-आरसी सिद्धांत नदारद है।

इस सिद्धांत का सार है कि विकसित देशों को जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध कार्रवाई में कमजोर और विकासशील देशों की तुलना में अधिक जिम्मेवारी लेनी चाहिए, क्योंकि विकसित होने की प्रक्रिया में इन देशों ने सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन किया है और ये देश जलवायु परिवर्तन के लिए कहीं अधिक जिम्मेवार हैं। बता दें कि पेरिस जलवायु समझौते के अंतर्गत विभिन्न देशों की भिन्न-भिन्न परिस्थितियों को देखते हुए उनके लिए अलग-अलग उत्तरदायित्त्वों और संबंधित क्षमताओं के सिद्धांत का पालन किया गया है।

साथ ही कार्यान्वयन के साधनों और विशेष रूप से वित्तीय लक्ष्य के संबंध में कहीं न कहीं जो भाषा प्रयोग की गई है वो कमजोर है। वहीं डाउन टू अर्थ से जुड़े अक्षित सांगोमला का कहना है कि इसका एक सकारात्मक पहलू यह है कि इसमें विभिन्न लक्ष्यों को हासिल करने के लिए 2030 की समय-सीमा तय की गई है।

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