जलवायु परिवर्तन के लिए निजी क्षेत्र को जवाबदेह बनाना जरूरी

जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए मौलिक रणनीतियां अपनाने का वक्त आ गया है

By Chandra Bhushan

On: Monday 27 May 2019
 

संजीत / सीएसई

पिछले 25 वर्षों के दौरान हमने काफी प्रगति की है, फिर भी दुनिया जलवायु परिवर्तन से मुकाबला करने की दौड़ में काफी पीछे है। जलवायु परिवर्तन से निपटने की जितनी जरूरत आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। हालांकि 25 वर्ष पहले शुरू किए गए काम के कारण हम इसे आगे बढ़ाने के लिए आज बेहतर तरीके से एकजुट हैं। हमारे पास पेरिस समझौता है और इस समझौते को मजबूत करने के लिए दिशानिर्देश भी हैं। यह यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के 25 वर्ष पूरे होने के अवसर पर कन्वेंशन की कार्यकारी सचिव पेट्रीशिया एस्पिनोसा के वक्तव्य का सार है। मैं जलवायु परिवर्तन से निपटने की आवश्यकता को लेकर उनकी भावनाओं से सहमत हूं तथापि दो बातों को लेकर असहमत भी हूं। पहली, यूएनएफसीसीसी द्वारा की गई अब तक की प्रगति और दूसरा भविष्य में इसके द्वारा नतीजे देने की संभावना। वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैस की सघनता (जीएचजी) को स्थिर करने के उद्देश्य के साथ यूएनएफसीसीसी को अपनाया गया था। पिछले 25 वर्षों के दौरान जीएचजी में स्थिरता आने की बजाय यह रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है। कार्बन डाईऑक्साइड की सघनता 1994 में 358 पार्ट्स पर मिलियन (पीपीएम) से बढ़कर 2018 में 412 पीपीएम हो गई। लगभग 30 लाख वर्ष पहले पृथ्वी में 400 पीपीएम दर्ज किया गया था।

इसमें शक नहीं है कि वैश्विक तापमान में भी वृद्धि हुई है। 1990 के दशक के शुरुआत में यह वृद्धि 0.25 डिग्री सेल्सियस थी। साल 2018 में यह वृद्धि 1.1 डिग्री सेल्सियस हो गई। इस दौरान मौसम के उग्र होने की घटनाओं और गंभीरता दोनों में काफी इजाफा हुआ है। वर्ष 1997 से 2016 के दौरान मौसम की उग्रता ने दुनियाभर में 5 लाख से अधिक लोगों की जान ली तथा अर्थव्यवस्था को 3 लाख 16 हजार करोड़ अमेरिकी डॉलर का नुकसान पहुंचाया। यदि हम जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की “1.5 डिग्री सेल्सियस संबंधी विशेष रिपोर्ट” पर नजर डालें तो पता चलेगा कि आने वाले 10 वर्षों में ये आंकड़े नगण्य लगने लगेंगे।

एक प्रोटोकॉल (क्योटो), दो समझौते (कैनकन और पेरिस) तथा जलवायु परिवर्तन संबंधी अनेक मुद्दों पर सैकड़ों निर्णयों के बावजूद नतीजे के रूप में यूएनएफसीसीसी के पास ज्यादा कुछ नहीं है। आज जीएचजीएस वर्ष 1994 के स्तर से 60 प्रतिशत अधिक है। उत्सर्जन में कमी लाने की शपथ लेने वाले विकसित देशों में भी उत्सर्जन बढ़ा है। सच तो यह है कि यूएनएफसीसीसी पिछले 25 वर्षों के दौरान वैश्विक ऊर्जा व्यवस्था में परिवर्तन को प्रेरित करने में असफल रहा है। वर्ष 1994 में विश्व की प्राथमिक ऊर्जा आपूर्ति में लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा जीवाश्म ईंधन का था। वर्ष 2018 में भी इस आंकड़े में कोई बदलाव नहीं हुआ। वर्ष 1994 और 2018 में ऊर्जा के मामले में गरीब लोगों की संख्या भी नहीं बदली। अब भी 280 करोड़ लोग खाना बनाने के लिए प्रदूषित ठोस ईंधन का ही इस्तेमाल कर रहे हैं।

आईपीसीसी की विशेष रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री पर रोकने के लिए उत्सर्जन का स्तर वर्ष 2010 की तुलना में 2030 तक 45 प्रतिशत कम करना होगा। इसका अर्थ है कि ऊर्जा व्यवस्था में बदलाव करने के लिए हमारे पास 12 वर्ष हैं। क्या यूएनएफसीसीसी इतने कम समय में नतीजे दे सकता है? यह मुश्किल लगता है क्योंकि पेरिस समझौते में जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए एकजुट वैश्विक कार्रवाई करने की शक्ति नहीं है। अब यूएनएफसीसीसी जानकारी एकत्र करने, इसका विश्लेषण और वितरण करने का मंच है। ऐसी स्थिति में यूएनएफसीसीसी में जारी अंतरराष्ट्रीय प्रयासों में कमी लानी चाहिए तथा इसमें लगने वाली शक्ति को कहीं और लगाना चाहिए।

सच तो यह है कि जलवायु परिवर्तन से मुकाबले के लिए अब कठोर लक्ष्य और त्वरित परिवर्तन की आवश्यकता है। यह तभी हो सकता है जब हम बिल्कुल अलग रणनीतियां अपनाएं। मैं दो रणनीतियों का प्रस्ताव देना चाहता हूं। पहला, ऊर्जा, परिवहन, कृषि और औद्योगिक क्षेत्रों में वास्तविक परिवर्तन हासिल करने के लिए अंतरराष्ट्रीय और प्रादेशिक परिवर्तन को बढ़ावा दिया जाए और एक से अधिक मंचों का निर्माण किया जाए।

दूसरा, जलवायु परिवर्तन इतना महत्वपूर्ण मुद्दा है कि इसे अकेले सरकार पर नहीं छोड़ना चाहिए। हमें सरकार से आगे की रणनीति बनानी होगी, खासतौर पर निजी क्षेत्रों को ठोस कदम उठाने होंगे। निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए हमें जलवायु परिवर्तन को निजी क्षेत्र की जिम्मेदारी बनाना होगा तथा जलवायु को प्रदूषित करने के लिए उसे जवाबदेह भी। मुझे पता है कि इन सुझावों को स्वीकार नहीं किया जाएगा। लेकिन बाद में पछताने से बेहतर है कि अभी से कुछ अलग कदम उठाए जाएं।

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