पहाड़ों पर चार फीट प्रति वर्ष की दर से ऊपर की ओर शिफ्ट हो रही है ट्री लाइन

वैश्विक स्तर पर 70 फीसदी ट्री लाइन ऊंचाई की ओर शिफ्ट हो गई है। चिंता की बात तो यह है कि सभी क्षेत्रों में इस बदलाव की गति लगातार तेज होती जा रही है

By Lalit Maurya

On: Tuesday 12 September 2023
 
उत्तराखंड में हिमालय के बर्फ से ढके पहाड़ के सामने दयारा का अद्भुत बुग्याल (घास का मैदान); फोटो: आईस्टॉक

जलवायु में आता बदलाव दुनिया भर में अलग-अलग पारिस्थितिक तंत्रों को अलग-अलग तरह से प्रभावित कर रहा है। ऊंचे पहाड़ भी इससे सुरक्षित नहीं है। रिसर्च में पता चला है कि बढ़ते तापमान के साथ पहाड़ों पर मौजूद वृक्ष अब पहले से अधिक ऊंचाई की ओर शिफ्ट हो रहे हैं, मतलब की पर्वतीय ट्री लाइन अब ऊंचाई की ओर शिफ्ट हो रही है।

इस बारे में चीन की साउदर्न यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों द्वारा किए नए अध्ययन से पता चला है कि पर्वतीय ट्री लाइन औसतन हर साल चार फीट (1.2 मीटर) की दर से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों की ओर शिफ्ट हो रही हैं। यह भी सामने आया है कि अन्य क्षेत्रों की तुलना में पेड़ों के ऊंचाई की ओर स्थानांतरित होने की यह प्रवत्ति उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में कहीं ज्यादा है, जहां वो हर साल 10.2 फीट (3.1 मीटर) की दर से ऊपरी क्षेत्रों की ओर बढ़ रही है।

आपकी जानकारी के लिए बता दें कि किसी क्षेत्र में ट्री लाइन या वृक्ष रेखाएं, पर्यावास की वो सीमा होती हैं, जिसके पार पर्यावरण की विषम परिस्थितियों जैसे बहुत कम तापमान, अपर्याप्त वायु दाब या आर्द्रता की कमी के चलते पेड़ उग पाने में असमर्थ होते हैं। ट्री लाइन को एक ऐसी कृत्रिम सीमा के रूप में समझ सकते हैं, जिसके पार पेड़ों का विकास अवरुद्ध हो जाता है। इसके आगे वो अक्सर घनी झाड़ियों के रूप में ही उगते हैं।

जर्नल ग्लोबल चेंज बायोलॉजी में प्रकाशित इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दुनिया भर में 243 से अधिक पर्वत श्रृंखलाओं पर 10 लाख किलोमीटर क्षेत्र में पर्वतीय ट्री लाइन में आते बदलावों का अध्ययन किया है। इसके लिए उन्होंने उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों की मदद ली है।

बढ़ते तापमान के साथ तेजी से हो रहा बदलाव

रिमोट सेंसिंग तकनीक की मदद से की गई इस रिसर्च से पता चला है कि 2000 से 2010 के बीच 70 फीसदी वृक्ष क्षेत्र ऊपर की ओर शिफ्ट हो गए हैं। सबसे ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि सभी क्षेत्रों में इस बदलाव की गति लगातार तेज होती जा रही है। देखा जाए तो पर्वतीय वृक्ष रेखाओं का ऊपर की ओर शिफ्ट होना पारिस्थितिक तंत्र पर जलवायु परिवर्तन के पड़ते प्रभावों का पुख्ता सबूत प्रदान करती है।

अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पर्वतों की चोटियों पर ऊंचाई में पाई जाने वाली वृक्ष रेखाओं का अध्ययन किया है जो आमतौर पर इंसानी प्रभावों से दूर होती हैं, क्योंकि वृक्ष रेखाएं भूमि उपयोग में आते बदलावों जैसे इंसानी प्रभावों के चलते भी ऊपर की ओर शिफ्ट हो सकती है। लेकिन इतनी ऊंचाई पर इन वृक्ष रेखाओं का अभी भी स्थानांतरित होना इस बात का सबूत है यह वृक्ष रेखाएं इंसानी प्रभाव से परे जलवायु में होने वाले बदलावों के प्रति भी संवेदनशील होती हैं। 

हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि इस ट्री लाइन के ऊपर की ओर शिफ्ट होने के क्या प्रभाव सामने आएंगे। लेकिन जैसे-जैसे तापमान में वृद्धि हो रहे है उसके चलते पहाड़ों पर अत्यधिक ऊंचाई पर जहां पहले पेड़ नहीं पाए जाते थे वहां भी इनका विस्तार होगा। यदि एक नजरिए से देखें तो यह फायदेमंद लग सकता है क्योंकि ज्यादा पेड़ों का मतलब है कि वातावरण से अधिक कार्बन डाइऑक्साइड को सोख लिया जाएगा। साथ ही इसकी वजह से इन जंगलों में रहने वाली कुछ प्रजातियों के आवास में भी विस्तार हो सकता है।

लेकिन दूसरी तरफ इसकी वजह से ऊंचाई पर मौजूद टुंड्रा क्षेत्र घट जाएगा, जिससे ठंडे वातावरण में विकसित होने वाली अल्पाइन प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा  पैदा हो सकता है। साथ ही इससे जल आपूर्ति भी प्रभावित हो सकती है।

खतरे की जद से बाहर नहीं हिमालय

यदि हिमालय की बात करें तो वो जलवायु परिवर्तन के प्रति बेहद संवेदनशील है। दुनिया के अन्य पर्वत श्रृंखलाओं की तुलना में यहां ट्री लाइन कुछ ज्यादा  3400-4900 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।

वैज्ञानिकों की मानें तो बढ़ता तापमान हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र को भी प्रभावित कर रहा है। इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) की एक रिपोर्ट से पता चला है कि पूर्वी हिमालय में खासकर सर्दियों और वसंत के दौरान तापमान बढ़ रहा है। इसका एक परिणाम यह है कि वहां वृक्षरेखा अधिक ऊंचाई की ओर स्थानांतरित हो रही है। यह परिवर्तन बुग्याल यानी अल्पाइन घास के मैदानों को नुकसान पहुंचा सकता है क्योंकि यदि वृक्षरेखा पहाड़ के ऊपर चली जाती है, तो बुग्यालों का अस्तित्व खतरा में पड़ सकता है।

बता दें कि यह क्षेत्र न केवल मवेशियों के लिए चरागाह के रूप में उपयोग किए जाते हैं साथ ही यह अपने अंदर एक अलग इकोसिस्टम को समेटे हुए हैं। ऐसे में यदि यह नष्ट होते हैं तो इनके साथ इनमें मौजूद दुर्लभ वनस्पतियां, जैवविविधता और अन्य जड़ी बूटियां भी विलुप्त हो सकती हैं।

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