जल संरक्षण व सूखा निवारण के मकसद से भटकी मनरेगा, 75 के मुकाबले 35 फीसदी ही हुआ खर्च

2014 में 75 प्रतिशत कार्यों को सीधे जल संरक्षण और सूखा निवारण से जोड़ने के लिए कानून में संशोधन किया गया था

By Jugal Mohapatra, Siraj Hussain

On: Monday 11 March 2024
 

एक शताब्दी से भी पहले 1909 में भारत में काम करने वाले एक ब्रिटिश अधिकारी ने बिल्कुल सही कहा था कि इस देश (भारत) में कृषि का अनुमान लगाना काफी हद तक बारिश पर जुआं खेलने जैसा है। उस समय भारत की कृषि की इस विशेषता पर किसी तरह का विवाद नहीं था क्योंकि देश में सिंचाई की कवरेज नगण्य थी और खेती ज्यादातर माॅनसून के व्यवहार पर निर्भर थी।

माॅनसून मेहरबान रहा तो किसानों की फसल अच्छी हुई। यदि बारिश नहीं हुई तो सूखे से ग्रामीण अर्थव्यवस्था का अनिवार्य रूप से तबाह होना तय था। यहां तक कि 1951-52 में जिस वर्ष भारत की पहली पंचवर्षीय योजना (राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्रम जो 2017 से बंद कर दिया गया है) शुरू की गई थी, सिंचाई के तहत आने वाले इलाके (शुद्ध सिंचित क्षेत्र और शुद्ध बोए गए क्षेत्र का अनुपात) 16 फीसद से कम थे।

पिछले 70 वर्षों में केंद्र और राज्य सरकारों ने सिंचाई पर भारी सार्वजनिक निवेश किया है जिसकी वजह से कवरेज लगभग 55 प्रतिशत तक बढ़ गया है। सिंचाई में विस्तार के इस क्रम के बावजूद देश की कृषि माॅनसून की अनियमितताओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। यहां तक कि उन क्षेत्रों में भी जहां नहरें और तालाब बनाए गए हैं, अपर्याप्त भंडारण की वजह से अक्सर जरूरत पड़ने पर खेतों में पानी की आपूर्ति में बाधा उत्पन्न करता है। इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि माॅनसून के व्यवहार को देश की अर्थव्यवस्था के लिए एक महत्वपूर्ण जोखिम के रूप में दर्शाया जा रहा है।

खराब माॅनसून न केवल किसानों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए संकट पैदा करता है। बल्कि मांग-पक्ष और आपूर्ति-पक्ष दोनों के अर्थशास्त्र को प्रभावित कर बाकी अर्थव्यवस्था पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। उदाहरण के लिए चालू वित्त वर्ष 2023-24 के दौरान माॅनसूनी वर्षा के विषम वितरण से दलहन और तिलहन के तहत क्षेत्र का कवरेज कम हो गया जिसकी वजह से आने वाले महीनों में खाद्य मुद्रास्फीति पर इसके प्रभाव के बारे में गंभीर चिंताएं पैदा हो गई हैं। कंज्यूमर ड्यूरेबल्स सहित उपभोक्ता वस्तुओं के आपूर्तिकर्ताओं ने पहले ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कम मांग पर अपनी आशंका व्यक्त की है।

पिछले 50 वर्षों में कृषि क्षेत्र में लचीलापन लाने और इसे सामान्य से कम माॅनसून की कमजोरियों से बचाने के लिए विभिन्न सार्वजनिक कार्यक्रम लागू किए गए हैं। सूखा प्रभावित क्षेत्र कार्यक्रम (डीपीएपी) केंद्र द्वारा 1973-74 में शुरू किया गया था जिसने 1995-96 में अपने चरम पर 13 राज्यों के 164 जिलों को कवर किया। 1995-96 में इस कार्यक्रम ने वाटरशेड नजरिया अपनाया और 2005-06 तक 10 वर्षों में की अवधि में 66 लाख हेक्टेयर सूखाग्रस्त क्षेत्रों को इसके दायरे में लाया गया।

वाटरशेड कार्यक्रम को 2015-16 में प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई) की फ्लैगशिप योजना के तहत शामिल किया गया था। हालांकि 2021-26 की अवधि के लिए 8,134 करोड़ के मामूली परिव्यय के साथ पीएमकेएसवाई का यह घटक इस तथ्य को देखते हुए बेहद कम वित्त पोषित है। शुद्ध बोए गए क्षेत्र का लगभग 45 प्रतिशत अभी भी वर्षा आधारित है।

इस बीच, 2006 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (2 अक्टूबर 2009 को इसका नाम बदलकर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम या मनरेगा कर दिया गया) को प्रत्येक ग्रामीण परिवार की मांग के आधार पर 100 दिनों की गारंटीकृत श्रम प्रदान करने के अधिकार-आधारित पात्रता कार्यक्रम के रूप में अधिसूचित किया गया था।

वर्तमान में यह दुनिया में सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित सबसे बड़ा गारंटीकृत कार्यक्रम है, जिसका वार्षिक बजटीय खर्च पिछले तीन वर्षों (वित्तीय वर्ष 2020-2021, 2021-22 और 2022-23) में से प्रत्येक में 1 करोड़ से अधिक है। लचीली ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए जल संरक्षण और सूखा-निरोधन की प्रधानता को स्वीकार करते हुए इन कार्यों को कानून के मूल संस्करण में भी सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई थी। 2014 में 75 प्रतिशत कार्यों को सीधे जल संरक्षण और सूखा निवारण से जोड़ने के लिए कानून में संशोधन किया गया था।

इस प्रकार, हाल के वर्षों में मनरेगा प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन (एनआरएम) और सूखा शमन कार्यों के लिए वित्त पोषण का सबसे बड़ा स्रोत बनकर उभरा है। हालांकि बदलती जलवायु में सूखा लगातार और गंभीर होता जा रहा है। इसलिए यह जांचना आवश्यक है, क्या कार्यान्वयन के दौरान मनरेगा, जल संरक्षण में सुधार पर पर्याप्त रूप से ध्यान केंद्रित कर रहा है? क्या मनरेगा के तहत निष्पादित जल संरक्षण और सूखारोधी परियोजनाएं अपेक्षित परिणाम दे रही हैं और कम से कम क्या असिंचित क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता सुनिश्चित कर रही हैं।

स्रोत- महात्मा गांधी नेशनल रूरल एंप्लाइमेंट गारंटी एक्ट की वेबसाइट से

प्रमुख मुद्दे

क्या जल संरक्षण और सूखारोधी कार्यों के लिए मनरेगा निधि का पर्याप्त आवंटन किया जा रहा है? क्या असिंचित और वर्षा सिंचित क्षेत्रों में इन कार्यों पर अधिक मनरेगा धनराशि खर्च की जाती है? n क्या उपलब्ध अनुभवजन्य साक्ष्य इस दावे की पुष्टि करते हैं कि ये हस्तक्षेप सूखाग्रस्त क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता बढ़ाने में सफल रहे हैं?

व्यवहारिक तौर पर अतार्किक

यह आकलन करने के लिए कि क्या मनरेगा कार्यान्वयन के दौरान जल संरक्षण और सूखा-रोधी कार्यों को प्राथमिकता दी गई है, कार्यक्रम के तहत सभी सार्वजनिक कार्यों पर कुल खर्च का विश्लेषण किया गया। इन कार्यों पर व्यय 2018-19 की तुलना में 2019-20 से काफी बढ़ गया है। 2018 से 2023 के बीच सरकार ने मनरेगा कार्यों पर 4,57,000 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। लेकिन इन पांच वर्षों में जल संरक्षण और सूखारोधी कार्यों पर व्यय कुल मनरेगा व्यय का लगभग 35 प्रतिशत यानी 1,62,000 करोड़ ही रहा है।

मनरेगा कानून में एनआरएम को दी गई सर्वोच्च प्राथमिकता को देखते हुए कोई भी उम्मीद करेगा कि कम से कम आधा मनरेगा खर्च इन कार्यों के लिए निर्धारित किया जाएगा।

इस पैमाने पर यह मानना पूरी तरह से अनुचित नहीं होगा कि मनरेगा के तहत जल संरक्षण और सूखा-निरोधन पर कुल व्यय अब तक वांछित स्तर से कम हो गया है। दूसरा यह मानना उचित है कि जिन राज्यों में असिंचित क्षेत्रों या वर्षा आधारित क्षेत्रों का प्रतिशत अधिक है वहां मनरेगा निधि का एक बड़ा हिस्सा जल संरक्षण और सूखा-रोधी कार्यों पर खर्च किया जाएगा।

इसके विपरीत सिंचित क्षेत्रों की अधिक हिस्सेदारी वाले राज्यों से जल संरक्षण और सूखारोधी कार्यों पर अपेक्षाकृत कम खर्च करने की उम्मीद की जाती है। इसका मतलब यह है कि यदि कोई राज्यों के सिंचित क्षेत्रों का प्रतिशत, जल संरक्षण और सूखारोधी कार्यों पर मनरेगा व्यय का हिस्सा एक ग्राफ पर दिखाता है तो इसे एक महत्वपूर्ण उलटा संबंध दिखाना चाहिए।

दो चरणों के बीच यह सत्यापित करने के लिए कि क्या साक्ष्य इस अनुमान का समर्थन करते हैं? 18 बड़े राज्यों के लिए 2020-21 के आंकड़ों का विश्लेषण सीएसई ने किया है। वह वर्ष जिसमें जल संरक्षण और सूखा-निरोधन पर खर्च सबसे अधिक था। सीएसई इन राज्यों के सिंचित क्षेत्रों का प्रतिशत और जल संरक्षण और सूखारोधी पर मनरेगा व्यय का हिस्सा एक चार्ट पर अंकित किया है।

अपेक्षा के विपरीत, इन राज्यों में सिंचाई कवरेज की सीमा और जल संरक्षण और सूखा-रोधी कार्यों के लिए आवंटित मनरेगा निधि के अनुपात के बीच कोई व्यवस्थित व्युत्क्रम संबंध नहीं है। 60-80 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र वाले कुछ राज्यों ने 20-40 प्रतिशत सिंचाई कवरेज वाले राज्यों की तुलना में इन कार्यों पर मनरेगा निधि का बहुत अधिक प्रतिशत खर्च किया है।

उन लोगों के लाभ के लिए जो सांख्यिकीय विश्लेषण की कठोरता के प्रति अधिक इच्छुक हैं, इन दो चरों (वेरीअबल्ज) के बीच सहसंबंध गुणांक लगभग शून्य और सांख्यिकीय रूप से महत्वहीन हैं।

यह बात समझने के लिए डेटा का विश्लेषण किया है कि क्या अपेक्षाकृत कम सिंचाई कवरेज वाले राज्यों में इन कार्यों पर शुद्ध बोए गए क्षेत्र की प्रति यूनिट अधिक मनरेगा निधि का उपयोग किया जा रहा है। इसके लिए राज्यों के शुद्ध सिंचित क्षेत्र का प्रतिशत और जल संरक्षण और सूखारोधी कार्यों पर खर्च प्रति हजार हेक्टेयर शुद्ध बोए गए क्षेत्र को एक ग्राफ पर दर्शाया है।

आदर्श रूप से दो चरणों के बीच एक महत्वपूर्ण नकारात्मक संबंध देखना चाहिए था। लेकिन ग्राफ दो चरों के बीच एक व्युत्क्रम संबंध दिखाता है, उनके बीच सहसंबंध काफी कमजोर और सांख्यिकीय रूप से महत्वहीन हैं।

निष्कर्षों का सारांश, 2018-23 के दौरान जल संरक्षण और सूखा-रोधी कार्यों पर मनरेगा खर्च कार्यक्रम की मानक आवश्यकता के अनुरूप नहीं प्रतीत होता है। दूसरे उम्मीद के विपरीत कम सिंचाई क्षेत्र वाले राज्यों में इन कार्यों पर मनरेगा खर्च बहुत अधिक नहीं होता दिख रहा है।

कम सिंचाई कवरेज वाले राज्यों में शुद्ध बोए गए क्षेत्र पर प्रति हेक्टेयर मनरेगा व्यय भी बहुत अधिक नहीं लगता है। इसका मतलब यह है कि जल संरक्षण और सूखा शमन कार्यों को मनरेगा दिशानिर्देशों के अनुसार वांछित प्राथमिकता नहीं दी गई है, खासकर उन राज्यों में जहां कम सिंचाई कवरेज और उच्च वर्षा वाले क्षेत्र हैं।

पर्याप्त साक्ष्य

जल संरक्षण और सूखा शमन के लिए मनरेगा हस्तक्षेपों के परिणाम के बारे में अधिकांश साक्ष्य, विशेष रूप से वर्षा आधारित क्षेत्रों में संभवतः विश्वसनीय क्षेत्र-स्तरीय टिप्पणियों पर आधारित हैं। ग्रामीण विकास विभाग का एमजीएनआरईजीए पोर्टल केस स्टडीज के तीन खंड उपलब्ध कराता है। जल संग्रह खंड I, II और III जो विभिन्न राज्यों में योजना के तहत जल संरक्षण की कहानियों का दस्तावेजीकरण करते हैं।

2017 में ग्रामीण विकास विभाग ने दिल्ली के एक प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थान, इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ (आईईजी) को एमजीएनआरईजीए के तहत एनआरएम कार्यों का तेजी से मूल्यांकन भी सौंपा। आईईजी ने 21 राज्यों और 14 कृषि-जलवायु क्षेत्रों में फैले 30 जिलों में एक संरचित प्रश्नावली के माध्यम से एक सर्वेक्षण किया, जिसमें मनरेगा परिसंपत्तियों के 1,200 लाभार्थी परिवारों को शामिल किया गया। इन जिलों का चयन प्रति मनरेगा श्रमिक एनआरएम घटक पर व्यय के आधार पर किया गया था।

जिन जिलों का प्रति व्यक्ति व्यय उनके संबंधित कृषि-जलवायु क्षेत्र में औसत प्रति व्यक्ति व्यय के करीब था, उनका चयन किया गया। अन्य बातों के अलावा, इस सर्वेक्षण से पता चला कि लगभग 78 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने मनरेगा के तहत बनाई गई एनआरएम परिसंपत्तियों से एक प्रमुख पारिस्थितिकी तंत्र लाभ के रूप में जल स्तर में वृद्धि की सूचना दी। ऐसे कई स्वतंत्र अनुभव आधारित अध्ययन भी हैं जिन्होंने जल संरक्षण और जल उपलब्धता पर मनरेगा कार्यों के प्रभाव का विश्लेषण किया है।

28 दिसंबर 2013 को इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित पर्यावरणीय लाभ उत्पन्न करने और जलवायु जोखिमों के प्रति कृषि उत्पादन की संवेदनशीलता को कम करने के लिए मनरेगा के तहत एनआरएम कार्यों का एक अनुभवजन्य साक्ष्य-आधारित मूल्यांकन चार चयनित जल की कमी वाले जिलों को कवर करता है। मेडक (आंध्र प्रदेश) , चित्रदुर्ग (कर्नाटक), धार (मध्य प्रदेश) और भीलवाड़ा (राजस्थान)। प्रत्येक जिले में बेहतरीन काम करने वाले एक ब्लॉक और 10 गांवों को अध्ययन के लिए चुना गया था।

अन्य बातों के अलावा निष्कर्षों से पता चला कि इन कार्यों का अधिकांश जगहों में भू जल पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। 40 में से 30 गांवों में भूजल का उपयोग करके बोरवेल और खुले कुओं द्वारा सिंचित क्षेत्र की सीमा में बढ़ोतरी की जानकारी मिली थी।

इन स्रोतों से पानी की उपलब्धता के दिनों की संख्या में मेडक में 13 से 88 दिन, भीलवाड़ा में 30 से 90 दिन, चित्रदुर्ग में 5 से 45 दिन और धार में 190 से 365 दिन की वृद्धि दर्ज की गई है। इसी तरह सतही सिंचाई पर निर्भर क्षेत्रों में मनरेगा कार्यों ने चित्रदुर्ग में सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता के दिनों की संख्या में 20 से 40 दिन, भीलवाड़ा में 15 से 90 दिन और धार में 108 से 240 दिन की वृद्धि हुई।

दिलचस्प बात यह है कि इस अध्ययन में नमूना क्षेत्र में मनरेगा कार्यों के प्रभाव का आकलन करने के लिए आठ संकेतकों पर आधारित एक बहुआयामी कृषि भेद्यता सूचकांक का उपयोग किया गया, जिसमें भूजल की गहराई, फसल की सघनता, सिंचाई की प्रबलता, शुद्ध सिंचित क्षेत्र और मिट्टी का कटाव शामिल है। ये सभी फसल उत्पादन प्रणालियों से जुड़े हैं। नतीजों से पता चला कि लाभार्थी परिवारों की कृषि भेद्यता मेडक में 13-52 प्रतिशत, चित्रदुर्ग में 4-49 प्रतिशत, भीलवाड़ा में 8-30 प्रतिशत और धार में 28-52 प्रतिशत घट गई।

विरोधाभासी निष्कर्ष

2020 में भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की एक हालिया रिपोर्ट जलयुक्त शिवार अभियान (जल संरक्षण के लिए एक विशेष अभियान) के तहत महाराष्ट्र के छह जिलों में मनरेगा कार्यों की प्रभावशीलता के ऑडिट पर आधारित है। लेकिन 2019 तक राज्य को सूखा-मुक्त करने की योजना ने इस संबंध में कुछ विपरीत निष्कर्ष निकाले हैं। साइट सर्वेक्षण और क्षेत्र जांच के आधार पर सीएजी ऑडिट से पता चला कि अध्ययन में शामिल 120 गांवों में से 83 में (70 प्रतिशत गांवों का अध्ययन किया गया) बनाया गया भंडारण पीने के पानी और सिंचाई आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं था, जैसा कि संबंधित गांव की योजना में संकेत दिया गया है।

सीएजी रिपोर्ट और एनआरएम कार्यों के लिए मनरेगा के तहत वास्तव में किए जा रहे व्यय के नजरिए से एक मजबूत समवर्ती निगरानी और मूल्यांकन (एमएंडई) प्रणाली को संस्थागत बनाना आवश्यक है, यह उनके (जल संरक्षण और सूखा निवारण) प्रभाव के विश्वसनीय व जमीनी स्तर के साक्ष्य प्रदान करेगा। चूंकि मनरेगा के तहत बनाई गई संपत्तियों को कथित तौर पर पहले से ही जियो-टैग किया गया है, इसलिए उच्च-रिजॉल्यूशन उपग्रह इमेजरी पर आधारित रिमोट सेंसिंग तकनीकों का उपयोग संभवतः इस उद्देश्य के लिए किया जा सकता है। इस संदर्भ में यह उल्लेख करना उचित है कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान बॉम्बे के शोधकर्ताओं ने एक नया कम लागत वाला रिमोट सेंसिंग-आधारित पारिस्थितिक सूचकांक (आरएसआई) विकसित और क्षेत्र-परीक्षण किया है जो समग्र मूल्यांकन के लिए वास्तविक समय के साक्ष्य प्रदान करेगा।

भूमि की सतहों की पारिस्थितिक स्थिति जिसका श्रेय मनरेगा के तहत किए गए जल संरक्षण और सूखा-रोधी कार्यों को दिया जा सकता है। ऐसा निगरानी तंत्र मध्य-पाठ्यक्रम सुधार के लिए खराब प्रदर्शन वाले क्षेत्रों की पहचान करने के लिए एक प्रभावी, डेटा-संचालित निर्णय-समर्थन प्रणाली के रूप में भी काम करेगा। सीएसई ने ग्रामीण विकास विभाग से जल संरक्षण और सूखा शमन के लिए मनरेगा की प्रभावशीलता की समवर्ती निगरानी और मूल्यांकन के लिए इस तरह के आरएसआई-आधारित एम एंड ई ढांचे को जल्द से जल्द शुरू करने का अनुरोध किया है। जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए कम और अनियमित मॉनसून के कारण कृषि की संवेदनशीलता को कम करना अत्यावश्यक हो गया है। जैसा कि भारत में हरित क्रांति के वास्तुकार एम एस स्वामीनाथन ने एक बार टिप्पणी की थी, “यदि कृषि गलत हो गई, तो इस देश में किसी और चीज को सही होने का मौका नहीं मिलेगा।”

(जुगल मोहापात्रा ग्रामीण विकास मंत्रालय के पूर्व सचिव हैं और सिराज हुसैन भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के पूर्व सचिव हैं)

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