मनरेगा: नए ग्रामीण भारत की रीढ़

तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद मनरेगा की सार्थकता उसके शुरू होने के चौदह साल बाद भी बरकरार है

By Sachin Kumar Jain

On: Monday 03 August 2020
 
फोटो: मनीष चन्द्र मिश्रा

आपको लग रहा होगा कि हम ये कौन से आंकड़े पढ़वा रहे हैं? कहीं स्वच्छता है, वृक्षारोपण है, आंगनवाड़ी है, पशुधन है, सिंचाई और भूमि सुधार, कहीं खेल मैदान।

ये सारे काम महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत पिछले डेढ़ दशक में ग्रामीण भारत में हुए हैं। अगर मनरेगा नहीं होती, तो संभवतः राष्ट्रीय राजमार्गों या विशाल अधोसंरचना की योजनाओं में दब कर भारत के गांव अब से कहीं ज्यादा दुखद स्थिति में होते। जिस योजना के तहत लगभग 5 करोड़ संरचनाएं बनाई गई हों, उस योजना की उपेक्षा अच्छी और नैतिक राजनीति नहीं कही जा सकती है। क्या आपको कभी बताया गया कि मनरेगा वास्तव में ग्रामीण भारत के निर्माण की, इसके पर्यावरण को सहेजने वाली योजना है? क्यों नहीं बताया गया?

मनरेगा से पुन: परिचय कीजिए

मनरेगा एक असामान्य कार्यक्रम इसलिए है, क्योंकि जिस काल में रोजगार और अधोसंरचना विकास के काम का बेतरतीब निजीकरण किया जा रहा था, उस काल में सामाजिक आन्दोलनों और जनपक्षीय राजनीति के दबाव के कारण भारत सरकार ने सभी ग्रामीण परिवारों को 100 दिन के काम का वैधानिक अधिकार दिया। 2005 में बनी यह योजना एक कानून के तहत संचालित होती है। सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर और असमानता बढ़ाने वाली आर्थिक नीतियों के पैरोकार हमेशा से रोजगार के कानूनी अधिकार के खिलाफ रहे हैं।

यह कानून कहता है कि हितग्राही के काम मांगने पर 15 दिनों के भीतर रोजगार दिया जाएगा। नहीं दिया तो सोलहवें दिन से बेरोजगारी भत्ता पाने का कानूनी अधिकार होगा। मनरेगा भारत के पर्यावरण को बेहतर करने के लिए भी एक बेहद महत्वपूर्ण कार्यक्रम रहा है और पानी के विकराल होते संकट के असर को कम करने में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 7 से 15 दिन की अवधि में मजदूरी का भुगतान किया जाएगा। देरी हुई, तो देरी के लिए भी मुआवजा दिया जाएगा। ग्राम सभा और पंचायत खुद तय करेंगी कि कौन से काम किये जाने हैं? उनसे क्या लाभ होगा? वे ही कामों का सोशल ऑडिट करने के लिए अधिकृत भी हैं। अब सवाल यह है कि क्या हम सरकारों से यह उम्मीद कर सकते हैं कि अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी को खुशहाल बनाने में मनरेगा की भूमिका को ईमानदारी से स्वीकार करेंगी और इसका संरक्षण भी करेंगी। (देखें, “ मनरेगा: 14 साल बाद”,)

सक्रिय जाॅबकार्ड और श्रमिक

मनरेगा में फिलहाल 13.87 करोड़ जाॅबकार्ड हैं। भारत के 55 प्रतिशत परिवार जाॅबकार्ड धारी हैं। उत्तरप्रदेश में 1.85 करोड़, बिहार में 1.86 करोड़, पश्चिम बंगाल में 1.27 करोड़, गुजरात में 40.95 लाख, राजस्थान में 1.08 करोड़ और मध्यप्रदेश में 71.33 लाख परिवारों के पास जॉबकार्ड हैं। इनमें से 7.81 करोड़ (56 प्रतिशत) जाबकार्ड धारी पिछले तीन सालों में योजना में श्रम करते रहे हैं। बिहार से सबसे ज्यादा पलायन होता है, वहां 1.86 करोड़ जॉबकार्ड धारी परिवारों में से केवल 54.12 लाख (29.1 प्रतिशत) ही सक्रिय हैं। छत्तीसगढ़ में 41.16 लाख जाॅबकार्डों में से 33.41 (81.2 प्रतिशत), मध्यप्रदेश में 71.33 लाख में से 52.58 लाख (73.7प्रतिशत), पश्चिम बंगाल में 83.48 लाख (65.6 प्रतिशत) और राजस्थान में 69.88 लाख (64.6 प्रतिशत) जाॅबकार्ड सक्रिय हैं।

मई 2020 की स्थिति में 13.87 करोड़ जाॅबकार्डों पर 27 करोड़ श्रमिक दर्ज हैं। इनमें से लगभग 12 करोड़ (कुल श्रमिकों का 44.3 प्रतिशत) ने पिछले तीन सालों में मनरेगा में श्रम किया है। बिहार में मनरेगा में दर्ज 2.61 करोड़ श्रमिकों में से केवल 63.23 लाख (24.2 प्रतिशत) श्रमिक ही सक्रिय हैं। जबकि छत्तीसगढ़ में 94.61 लाख में से 67.55 लाख (71.4 प्रतिशत), मध्यप्रदेश में 1.62 करोड़ में से 95 लाख (58.8 प्रतिशत) और पश्चिम बंगाल में 2.86 करोड़ में से 1.39 करोड़ (48.7 प्रतिशत) श्रमिक ही सक्रिय रहे हैं।

मनरेगा से संबंधित डाउन टू अर्थ की विशेष कवरेज पढ़ने के लिए क्लिक करें : मनरेगा 

मनरेगा-14 साल बाद

मनरेगा एक सुरक्षा जाल की तरह काम करता है, यह आज भी उतना ही प्रासंिगक है जितना शुरूआती दिनों में

एक सेशन के दौरान किसी ने मुझसे पूछा, “क्या आपको पता है कितनी संपत्ति सृजित हुई है? वह 2015 से 2017 के बीच के वर्षों में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत वारंगल जिले भर में कृषि क्षेत्रों के तटबंधों पर लगाए गए तीन करोड़ सागौन के पौधों का जिक्र कर रहे थे। शुरुआती देरी के बावजूद तीन साल की अवधि में कुछ दो लाख किसानों ने सागौन के पौधे लगाए। कुछ वर्षों में प्रत्येक पेड़ की कीमत न्यूनतम 1 लाख रुपए होगी। यही वह संपत्ति है जिसके बारे में बात की जा रही थी।

देशभर में टिकाऊ, व्यक्तिगत और सामुदायिक संपत्ति के निर्माण के ऐसे कई उदाहरण हैं, हालांकि “गड्ढे खोदने” की स्थायी आलोचना बिना आधार के नहीं है।

योजना के कई आलोचकों के अनुसार, मनरेगा ने कृषि संकट को और गहरा कर दिया है और मजदूरों की संख्या में कमी आई है। लोगों को गड्ढे खोदने और उसी गड्ढे को दोबारा भरने के लिए पैसे दिए जा रहे हैं। हममें से जिन्होंने इस योजना पर सैकड़ों घंटे काम किया है, उनके लिए असल कहानी यह है कि इस योजना ने किस तरह ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी, पलायन और कर्ज के मुद्दों को सशक्त तरीके से संबोधित किया। कैसे मनरेगा मजदूरी ने ग्रामीण गरीबों की आय के पूरक के रूप में मदद की है, कैसे गरीब किसानों ने मनरेगा मजदूरी से हुई आय को अपनी भूमि पर खेती की गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किया है और कैसे विकास कार्यों ने मिट्टी की गुणवत्ता और जल स्तर में सुधार करने में मदद की है।

इन सबसे पहले, इस स्कीम के केंद्र में सशक्तिकरण था, भारतीय समाज के उस तबके को जो लंबे समय से स्थिर पड़ा था,उन्हें मनमाफिक काम मिलने का अधिकार देना। यह उनकी गरिमा व सम्मान का सवाल था। हमने गांवों के पावर डायनेमिक्स को रातोंरात बदलते देखा। पारंपरिक रूप से मजदूर काम के लिए किसानों पर निर्भर रहा करते थे, लेकिन अब हालात ठीक उलटे हैं। कभी-कभी तो मजदूर मिलते ही नहीं। इसके अलावा ग्रामीण मजदूरी भी नाटकीय रूप से बढ़ी। हैदराबाद से लगभग 100 किमी दूर महबूबनगर जिले में, एम्प्लाइमेंट गारंटी स्कीम (ईजीएस) लागू होने से पहले पुरुषों को 35 व महिलाओं को 25 रुपए प्रतिदिन का भुगतान किया जाता था। मनरेगा कार्यान्वयन के पहले ही सीजन में पुरुषों व महिलाओं दोनों का न्यूनतम वेतन बढ़कर 125 रुपए हो गया।

मनरेगा में कई अनूठी विशेषताएं हैं। मनरेगा के डिजाइन की महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक इसका स्वयं-चयन तंत्र है। इस स्कीम में लाभार्थी स्वयं को चुनते हैं, जिसके फलस्वरूप पिछले गरीबी विरोधी कार्यक्रमों की दो बड़ी समस्याओं का हल मिल गया है। पहला, लक्ष्यीकरण की कोई आवश्यकता नहीं है, जो सरकारों के लिए अत्यधिक कठिन कार्य साबित हुआ है। बहिष्करण (ऐसे लाभार्थी जो पात्र नहीं थे) और समावेशन (वे लोग जो पात्र नहीं थे, लेकिन स्कीम में शामिल थे) लगभग सभी पिछले कार्यक्रमों को प्रभावित करते थे, विशेषकर उन्हें जो बीपीएल परिवारों को लक्षित करके चलाए गए थे। राज्य द्वारा चयनतंत्र को हटाने से इस समस्या का समाधान हो गया। एक फायदा यह है कि इस स्कीम के तहत चयन का आधार गरीबी रेखा को नहीं बनाया गया। रिसर्च से पता चला है कि गरीबी रेखा अत्यधिक नीचे है जिसके फलस्वरूप अत्यधिक गरीबी में रहने वाले लोग भी इस रेखा के ऊपर आते हैं। विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, लगभग दो तिहाई भारतीय गरीबी रेखा से नीचे आते हैं और वे 3.40 डॉलर प्रतिदिन (लगभग पांचवां हिस्सा चरम गरीबी रेखा से नीचे यानि 1.90 डॉलर प्रतिदिन) पर अपना गुजारा करने को मजबूर हैं। इसका अर्थ है कि कई ऐसे लोग हैं जो सरकारी आंकड़ों केअनुसार बहुत गरीब नहीं हैं लेकिन असलियत में वे अपना जीवन विकट गरीबी में व्यतीत कर रहे हैं और उनके लिए मनरेगा जैसी स्कीमों की सख्त आवश्यकता है, खासकर संकट के इस समय में।

नकारात्मक पहलू की बात करें तो ग्रामीण इलाकों में “वर्क एथिक” का ह्रास हुआ है। औसत कार्य समय पहले 8 घंटे हुआ करते थे, जो अब काफी घट गया है। कुछ राज्यों में ही संस्थागत सोशल ऑडिट होता है। हालांकि अन्य रोजगार गारंटी योजनाओं की तुलना में यह साफ सुथरी है लेकिन फिर भी भ्रष्टाचार को अनदेखा नहीं किया जा सकता। कार्यान्वयन के लगभग 14 वर्षों के बाद भी मजदूरी चाहने वालों के जीवन स्तर में विकास की दर बहुत धीमी है। वे अब भी काम के लिए सरकार पर निर्भर हैं। जहां मनरेगा को लागू करने वालों का ध्यान विपणन, कोल्ड स्टोरेज आदि जैसे दूसरे मुद्दों पर होना चाहिए था, वहीं यह अभी भी उन बुनियादी कार्यों पर है जो शुरुआती दिनों में किए गए थे। इसके बावजूद, मनरेगा जो एक सामाजिक सुरक्षा जाल की तरह काम करता है, आज भी प्रासंगिक है जितना पहले था।

“व्हाइट कॉलर” नौकरियों के सृजन की योजनाएं पूरी तरह से विफल रही हैं और वर्तमान परिदृश्य में अर्थव्यवस्था लोगों को काम देने में विफल है। ऐसे में मनरेगा स्कीम राहत प्रदान करने की संभावना बनाए रखती है। इस सीजन में काम ढूंढने वालों की संख्या में बेतहाशा तेजी देखी गई है। उच्च शिक्षित भी मनरेगा में काम करने आ रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानो यह पूरे देश में रोजगार प्रदान करने का एक विलक्षण साधन बन गया है। अब समय या चुका है जब इस योजना के द्वितीय संस्करण को लाया जाए। इस स्कीम में शहरी क्षेत्रों एवं उनकी जरूरतों को शामिल किए जाने की भी आवश्यकता है। इसके अलावा कुशल कारीगरों के लिए अलग काम की भी व्यवस्था होनी चाहिए।

(पूर्व निदेशक, मनरेगा, पूर्ववर्ती आंध्र प्रदेश, 2012-2014)



मनरेगा में विसंगतियां

मनरेगा के कुछ प्रावधानों में और बहुत सारी इनके क्रियान्वयन में विसंगतियां हैं। पिछले 20 वर्षों की स्थिति यह रही है कि इन परिवारों को 300 दिन में से अन्य स्रोतों से 75 से 100 दिन का ही रोजगार हासिल हो पाता है, ऐसी अवस्था में उन्हें 200 दिन के रोजगार की जरूरत रही है, लेकिन मनरेगा भी केवल 100 दिन का रोजगार देने के प्रावधान के कारण पूरा विश्वास स्थापित नहीं कर पाया। दूसरी बड़ी विसंगति मनरेगा की मजदूरी भारत की न्यूनतम मजदूरी की दर से वर्ष 2019-20 तक लगभग 18 से 20 प्रतिशत कम रही है। तीसरी बात मजदूरों को 6 से 12 महीनों की देरी से मजदूरी का भुगतान होना है। भ्रष्टाचार, सोशल आडिट न होना, मशीनों से काम कराया जाना भी कारक रहे हैं। (देखें,“विसंगतियां”,)

विसंगतियां

न्यूनतम से भी न्यूनतम मजदूरी

अध्ययन से पता चलता है कि मनरेगा में मजदूरों को तय मजदूरी से भी कम का भुगतान होता है। वर्ष 2020-21 की केंद्रीय ग्रामीण मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात में मजदूरों को 188 रुपए के हिसाब से ही भुगतान हुआ है, जबकि वहां मनरेगा में मजदूरी की दर 224 रुपए प्रतिदिन है, राजस्थान में 220 के स्थान पर औसतन 167, मध्यप्रदेश में 190 रुपए के स्थान पर 180, पश्चिम बंगाल में 204 के स्थान पर 193, छत्तीसगढ़ में 190 प्रतिदिन के स्थान पर 174 रुपए की मजदूरी का भुगतान हुआ है। मजदूरी के कम मूल्यांकन के कारण भी लाखों मजदूरों ने किनारा किया है। (देखें, “वाजिब मजूदरी नहीं”) 100 दिन के रोजगार का सच क्या है? कोविड-19 के कारण लगभग 1.5 से 2.0 करोड़ मजदूरों के गांव वापस लौटने का अनुमान है। बिहार का नागरिक किन हालातों में मुंबई या बंगलुरु पलायन करता होगा? क्या वास्तव में वहां ज्यादा मजदूरी मिलती है? ऐसा तो नहीं है। बंगलुरु में भी औसतन 350 से 400 रुपये की मजदूरी मिलती है, जो बिहार के औसत से ज्यादा है, किन्तु जब पलायन पर रहने के खर्चों के आधार पर गणित लगाते हैं, तो पता चलता है कि वास्तव में उन्हें बिहार की दर से 15 से 20 प्रतिशत मजदूरी ही ज्यादा मिलती है। तब सवाल यह है कि मजदूर पलायन क्यों करता है? शोषण, लगातार रोजगार नहीं मिलने और नए विकास की चमक को अपनी आंखों में उतार लेने की अपेक्षा के कारण! सच तो यह भी है कि सरकारों ने मनरेगा के लिए बजट जरूर आवंटित किया है, किन्तु इस पर विश्वास नहीं किया।

मनरेगा कभी भी ग्रामीण परिवारों को 100 दिन का रोजगार देने के करीब नहीं पहुंच पाया। वर्ष 2016-17 से वर्ष 2019-20 के केंद्रीय ग्रामीण मंत्रालय के अध्ययन से पता चला कि इस अवधि में औसतन 7.81 करोड़ सक्रिय जाब कार्डधारी परिवारों में से केवल 40.7 लाख (5.2 प्रतिशत) को ही 100 दिन का रोजगार मिला। बिहार में 54.12 लाख सक्रिय जाॅबकार्ड में से केवल 20 हज़ार (0.3 प्रतिशत) परिवारों ने, उत्तरप्रदेश में 85.72 लाख सक्रिय जाॅबकार्ड्स में से औसतन 70 हजार (0.8 प्रतिशत) परिवारों ने, मध्यप्रदेश में 52.58 लाख सक्रिय जाॅबकार्ड धारियों में से केवल 1.1 लाख (2.1 प्रतिशत) परिवारों ने, छत्तीसगढ़ में 33.41 लाख जाॅबकार्ड धारी परिवारों में से 2.9 लाख (8.8 प्रतिशत), कर्नाटक में 33.39 लाख सक्रिय जाॅबकार्ड धारियों में से 1.6 लाख (4.7 प्रतिशत) पश्चिम बंगाल में 83.48 लाख कार्ड धारियों में से 6.1 लाख (7.4 प्रतिशत) और राजस्थान में 69.88 लाख जाॅबकार्ड धारियों में से 5.2 लाख (7.5 प्रतिशत) परिवारों ने ही यह लक्ष्य हासिल किया। मनरेगा में हर पंचायत की वार्षिक और पंचवर्षीय कार्ययोजना बनाने का प्रावधान है, लेकिन क्रियान्वयन में सही ढंग से नियोजन न होना, एक बड़ी चुनौती रही है। चार साल की रिपोर्ट्स बताती हैं कि मनरेगा में हर साल औसतन 184.1 लाख काम या तो नए शुरू होते हैं या फिर पहले से चले आ रहे होते हैं। हर साल औसतन 39.4 प्रतिशत काम ही पूरे हो रहे हैं, बाकी अगले साल की कार्ययोजना में जुड़ जाते हैं। सबसे खराब स्थिति बिहार की है। वहां औसतन 12.4 लाख काम खोले गए, जिनमें से औसतन 2.1 लाख (16.1 प्रतिशत) ही पूरे किये गए। छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में 40 प्रतिशत से ज्यादा काम पूरे हुए।



सब्सिडी नहीं, श्रम का पारिश्रमिक

वर्ष 2019-20 के बजट पर चर्चा करते हुए भारत के ग्रामीण विकास मंत्री ने कहा था कि हमारी सरकार मनरेगा को हमेशा नहीं चलाये रखना चाहती है। यह योजना गरीबों की मदद के लिए है और हम गरीबी मिटा देंगे ताकि यह योजना बंद की जा सके। इस वक्तव्य से यह स्पष्ट दिखता है कि भारत सरकार यह जानती ही नहीं है कि इस योजना से केवल मजदूरों को काम नहीं मिलता है, इससे ऐसी परिसंपत्तियों का निर्माण भी होता है, जिनसे गांवों की बदहाली पर रोक लग रही है। इनसे पानी-पेड़ों-खेतों-पशुपालन-आवागमन का ढांचा भी तैयार हुआ है।

आलोचना के बावजूद उसी साल ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 60 हजार करोड़ रुपये का आवंटन भी किया। कहा था कि इस राशि से 1.52 लाख सूक्ष्म सिंचाई इकाइयां बनाई जाएंगी। वनीकरण के 32 हजार काम किये जाएंगे। इस राशि से कुल मिलाकर 58.21 लाख परिसंपत्तियां बनाने या उनकी मरम्मत का काम किया जाएगा। कभी सोचियेगा कि मनरेगा का भारत को बदहाली से बचाने में क्या योगदान है? इसी कार्यक्रम ने शहरी भारत और ग्रामीण भारत के बीच असमानता की खाई को असीमित होने से और गांवों को फिर से जीवन देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

यह बहुत ही सामान्य सा विषय रहा है कि छोटे किसानों और गांवों को आर्थिक विकास का लाभ दिलाने के लिए उनके संसाधनों को ज्यादा उत्पादक बनाना होगा। यही कारण है कि मनरेगा में खेत तालाब, मेढ़ बंधान, निजी प्रांगण या जमीन पर कुएं खोदना और अब पोषण वाटिका लगाने जैसे काम भी इसमें शामिल हैं। वर्ष 2020-21 के शुरूआती 2 महीनों में ही इस तरह के 1.37 करोड़ व्यक्तिगत कामों को मनरेगा में शामिल करके, उन पर काम चालू किया गया। भारत के सुरक्षित और संपन्न तबकों को इतना तो अहसास होना ही चाहिए कि जिस देश को वे इतना प्रेम करते हैं, वहां गांव और गांव के मजदूरों के जीवन में भी सकारात्मक बदलाव आए। जो लोग यह मानते हैं कि मनरेगा के लिए किया जाने वाला खर्च मध्यमवर्गीय परिवारों पर बोझ बनता है, तो उन्हें केवल एक जानकारी ग्रहण कर लेना चाहिए। जब वर्ष 2020-21 के लिए भारत सरकार ने मनरेगा के लिए 61,500 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया, तो वह किसी दान या मुफ्त वितरण के लिए आवंटन नहीं था। इस राशि से 5.5 करोड़ परिवार (और 7.8 करोड़ मजदूर) मेहनत करके भारत को ठोस विकास अवस्था में ले जाते हैं। इससे उत्पादन बढ़ता और भारत की खाद्य असुरक्षा और गरीबी में कमी आती और महंगाई दर नियंत्रण में रहती।

पानी और वनीकरण का काम इसी राशि से एक साल में मजदूर वनीकरण के 40 हजार काम करते हैं। इन कामों से लगभग 40 से 50 करोड़ पेड़ लगाए और संरक्षित किये जाते हैं। इससे विकास के नाम पर छील दी गयी धरती को वस्त्र मिलते हैं। इससे मॉनसून व्यवस्थित होता और पृथ्वी का तापमान भी थोड़ा नियंत्रण में आता है। ये पेड़ यात्रियों को छांव भी देते हैं और पंछियों को आशियाना भी। और ये काम करते हैं मनरेगा के मजदूर। भारत सरकार के इस आवंटन से वर्ष 2020-21 में साढ़े पांच करोड़ मजदूर पानी के भण्डारण और संग्रहण के 1.27 लाख स्रोत बनाते हैं। वे छोटे-छोटे तालाब बनाते हैं, खेतों की मेड़ें बनाते हैं। जिन गांवों में पानी का संकट है, वहां पुराने कुएं और बावड़ियां साफ़ करते, उनकी मरम्मत करते हैं। इससे धरती के पेट में पानी जाता है। भारत ने पिछले 30 सालों में पानी के 40 लाख स्रोतों को खत्म किया है। तालाब सुखाकर उन पर इमारतें बना ली हैं।

बड़ी-बड़ी सड़कें बन गयी हैं, उन पर सरपट महंगी गाड़ियां दौड़ रही हैं, लेकिन हमें यह आभास नहीं है कि गाड़ियां सड़कों पर नहीं, खेतों, जंगल और तालाबों की कब्र पर दौड़ती हैं। चूंकि यह अहसास खत्म हो गया है, इसलिए भारत के अमीरों और मध्यमवर्गीय परिवारों को ऐसा महसूस होता है कि सरकार उनसे टैक्स लेकर इन मजदूरों को मुफ्त में लुटाये दे रही है, किन्तु सच तो यह है कि अमीरों और मध्यमवर्गीय समाज के अपराधों से खड़े हो रहे संकट को दूर धकेलने की काम करते हैं, मनरेगा के मजदूर! 7.8 करोड़ लोग 8 घंटे शारीरिक श्रम करते हैं, तब जाकर मजदूर को कर्नाटक में 270 रुपये, बिहार में 194 रुपये, उत्तर प्रदेश में 201 रुपये राजस्थान में 167 रुपये, पश्चिम बंगाल में 194 रुपये छत्तीसगढ़ में 168 रुपये और मध्यप्रदेश में 180 रुपये का ही पारिश्रमिक मिल रहा है। (देखें, “ दो तिहाई जल संपत्तियों का निर्माण”)

दो तिहाई जल संपत्तियाें का निर्माण

मनरेगा को और मजबूत करने व नई जरूरतों को पूरा करने के योग्य बनाने की आवश्यकता

नोवेल कोरोनावायरस का दुनियाभर में ऐसा प्रभाव पड़ा कि ये आम लोगों के लिए चर्चा का विषय बना रहा। सोशल मीडिया और तो और भू-राजनीति तक में कोरोनावायरस की चर्चा केंद्र बिन्दु बनी रही। ऐसे में कहा जा सकता है कि साल 2020 को “कोविड-19” के साल के रूप में याद किया जा सकता है। जब मैं ये लेख लिख रहा हूं, तो भारत में कोरोनावायरस से संक्रमित मामलों की संख्या 4,74,391 पर पहुंच गई है और कोरोना प्रभावित शीर्ष चार वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं में अमेरिका, ब्राजील और रूस के साथ भारत भी शामिल है। भारत में तेजी से फैल रहे संक्रमण को देखते हुए मार्च के आखिरी हफ्ते में भारत सरकार ने देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की, जिसने भारत की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया। केंद्र सरकार ने अर्थव्यवस्था में जान डालने के लिए 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर के रिकवरी पैकेज की घोषणा की है, जिसमें दुनिया की सबसे बड़ी रोजगार योजना महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी स्कीम के लिए अतिरिक्त 6 बिलियन डॉलर आवंटित किया गया है।

कोविड-19 के जितने भी मामले अब तक सामने आए हैं, उनमें अधिकांश मामले शहरों में दर्ज हुए हैं। देश के जिन जिलों में भारत के 25 बड़े शहर आते हैं, वहां देश की कुल आबादी का महज 10 प्रतिशत हिस्सा रहता है। लेकिन, भारत में कोविड-19 के जितने मामले सामने आए हैं, उनमें से 60 प्रतिशत मामले इसी आबादी में मिले हैं। इसका मतलब है कि फौरी तौर पर बाजार में पहुंच में व्यवधान और जरूरी चीजों की कीमत में अस्थिरता को छोड़ दें, तो भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर कोविड-19 का प्रभाव नहीं पड़ा। वैसे, किसी भी सूरत में तार्किक तौर पर कृषि, अर्थव्यवस्था का वो सेक्टर है, जो सबसे कम प्रभावित होता है। इसे निराशा से भरी अर्थव्यवस्था में एक चमकदार बिंदु माना जाता है, जो रफ्तार पकड़ने की ओर अग्रसर है और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में अग्रणी भूमिका निभाएगा। रबी सीजन में बम्पर पैदावार एक अच्छा संकेत है, लेकिन एक पहलू है, जो कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है, वह है कृषि मजदूरी अर्थव्यवस्था।

लॉकडाउन के कारण शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों से बड़े पैमाने पर कामगारों का रिवर्स माइग्रेशन हुआ है। इसका तात्कालिक प्रभाव ये होगा कि ग्रामीण क्षेत्रों में कामगारों की तादाद बढ़ेगी। ग्रामीण क्षेत्रों में कामगारों की तादाद बढ़ेगी, तो मजदूरी कम मिलेगी और हम देखेंगे कि संभवत: मनरेगा के तहत काम की मांग बढ़ेगी, खासकर उन इलाकों में जहां गरीबी है। मनरेगा स्थानीय श्रम बाजार में चार तरीके से काम करता है।

टाइप I- अनुपयुक्त: जहां स्थानीय स्तर पर मजदूरी दर मनरेगा से ज्यादा होती है, वहां अध्ययन में पता चला है कि मनरेगा बहुत कारगार नहीं होता है और समुदाय मनरेगा के काम में रुचि नहीं लेता है। ऐसा शहरों से सटे इलाके औद्योगिक जिलों में देखा जाता है।

टाइप II- अपर्याप्त: जब मनरेगा मजदूरी दर स्थानीय मजदूरी दर से अधिक होती है, लेकिन मनरेगा लागू करने का स्कोप व स्केल छोटा हो और मजदूरों की कमी हो, तो मनरेगा अपर्याप्त होता है। ऐसा सामान्य तौर पर वहां देखा जाता है जहां स्थानीय प्रशासन पर्याप्त स्थितियां होते हुए भी मनरेगा के काम की मांग पैदा नहीं कर पाते हैं।

टाइप III- संभावित तौर पर महत्वपूर्ण: ऐसे मामले में भी मनरेगा की मजदूरी दर स्थानीय मजदूरी दर के मुकाबले ज्यादा होती है और इससे मनरेगा के काम की मांग भी पैदा होती है। लेकिन, मजबूत मांग होने के बावजूद स्थानीय जनप्रतिनिधियों द्वारा मनरेगा लागू करने में व्यवधान डाला जाता है। टाइप IV- महत्वपूर्ण: जब मनरेगा की मजदूरी दर स्थानीय मजदूरी दर से अधिक हो, स्थानीय प्रशासन अतिसक्रिय होता है और ग्रामीण नेता अपनी क्षमता दिखाते हुए जब मनरेगा का इस्तेमाल अपनी सियासी पूंजी बढ़ाने में करते हैं, तो मजदूरी दर और कार्यक्षेत्र के माहौल में महत्वपूर्ण और सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इससे लंबे समय तक चलने वाली संपत्ति का निर्माण होता है।

टाइप-1 क्षेत्र में रिवर्स माइग्रेशन के चलते श्रमिकों की कमी हो सकती है, जिससे कृषि के क्षेत्र में या तो मशीनरी का इस्तेमाल बढ़ सकता है। ट्रेक्टर की बिक्री में उछाल (Sree Ram 2020) में इसके कुछ संकेत साफ दिख रहे हैं। दूसरी तरफ, टाइप-IV क्षेत्रों में जहां मनरेगा ग्रामीण स्तर पर मजदूरी दर और आजीविका में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, वहां मनरेगा के तहत काम और संपत्ति निर्माण की मांग और बढ़ सकती है। टाइप- II और टाइप-III क्षेत्र उस भूगोल का प्रतिनिधित्व करते हैं, जहां मनरेगा को प्रभावशाली तरीके से लागू करने की जरूरत है ताकि मजदूरों को उनके घरों के पास काम का अवसर मिले।

सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी पर काम सुनिश्चित करने वाले मनरेगा की विशेषता है कि ये “स्वलक्षित” है। हालांकि, कुछ मामलों में ग्रामीण स्तर पर इसका पालन नहीं होता है। मनरेगा मुख्य तौर पर ग्राम पंचायत और स्थानीय प्रखंड व जिला प्रशासन की समर्थता पर निर्भर करता है कि वे निर्बाध तरीके से काम करते हुए वार्षिक श्रम बजट और संपत्तियों ने निर्माण की योजना तैयार करें। प्रायः ये देखा जाता है कि जहां मनरेगा के काम की जरूरत सबसे ज्यादा होती है वहां ग्राम पंचायत व स्थानीय प्रशासन कमजोर होते हैं। अध्ययन में पता चला है कि गरीब राज्यों में भी मनरेगा के काम की मांग पूरी नहीं हो पाती है।

मनरेगा स्कीम लगभग डेढ़ दशक से चल रही है। ऐसे में ये आकलन करने का सही वक्त है कि इस स्कीम ने ग्रामीण श्रम बाजार और कृषि व्यवस्था में क्या बदलाव किए हैं। दस्तावेज में दर्ज है कि मनरेगा से जितनी संपत्तियां तैयार होती हैं, उनका दो तिहाई हिस्सा “जल संपत्तियां” होती हैं।

(लेखक इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट से संबद्ध हैं)

मनरेगा इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि इसमें विकलांगता से प्रभावित लोगों को भी कोई न कोई काम देने का प्रावधान किया गया है। संभवतः मनरेगा भारत में विकलांगता से प्रभावित सबसे अधिक लोगों को रोजगार देने वाला कार्यक्रम भी है। इस योजना में पिछले चार सालों में हर साल औसतन 4.67 लाख विकलांग लोगों को भी रोजगार मिला। औसतन 250 करोड़ मानव दिवस का रोजगार मनरेगा के तहत सृजित किया गया। इसमें से हर साल 50 करोड़ दिनों का रोजगार आदिवासी समुदाय के और 42 करोड़ दिवस रोजगार अनुसूचित जाति के समुदाय से जुड़े लोगों को मिला। महिलाओं के जीवन को भी यही कार्यक्रम व्यवस्थागत हक उपलब्ध करवाता है। महिलाओं को लगभग 56 प्रतिशत अवसर मिलता है। ऐसे कार्यक्रम को बंद किए जाने या कमजोर किए जाने के षडयंत्र का समर्थन करना वाजिब है क्या?

3.50 लाख करोड़ रुपए की जरूरत

वर्ष 2007-08 की वैश्विक आर्थिक मंदी में भारत की अर्थव्यवस्था को गहरे झटके से बचाने में मनरेगा का बड़ा योगदान था और अब, जबकि भारत कोविड-19 महामारी से जूझ रहा है, तब भी मनरेगा ही समाज-सरकार-बाजार के लिए सबसे बड़ा सहारा साबित हो रहा है। वर्तमान परिस्थितियों से निपटने के लिए मनरेगा को एक सबसे माकूल रणनीति के रूप में स्वीकार करना होगा। बात बहुत ही सीधी है। मनरेगा में सभी सक्रिय जाॅबकार्ड धारियों को 100 से 150 दिनों के काम की उपलब्धता सुनिश्चित करना। वर्तमान आवंटन 1.015 लाख करोड़ रुपए है। लेकिन यदि वास्तव में सभी सक्रिय 7.81 करोड़ जाॅबकार्ड धारियों को 150 दिन का रोजगार उपलब्ध करवाना है, तो भारत सरकार को 3.38 लाख करोड़ रुपए का आवंटन करना होगा। इसमें से 70 प्रतिशत राशि (2.25 लाख करोड़ रुपए) केवल मजदूरी के लिए व्यय होना चाहिए। यदि सभी सक्रिय जाॅबकार्ड धारियों को 100 दिन का रोजगार देने की मंशा है, तो उस मंशा को साबित करने के लिए 2.37 लाख करोड़ रुपए का आवंटन करना होगा, जिसमें से लगभग 1.58 लाख करोड़ रुपए केवल मजदूरी के लिए दिए जाने चाहिए। (देखें, “आपदा में सक्षम बनाएगा मनरेगा”,)

आपदा में सक्षम बनाएगा मनरेगा

मनरेगा को सरकार ताकत देगी तो, वह भी सरकार को कोरोना से सामना करने में मदद करेगां

लॉकडाउन और कोरोनावायरस के व्यापक असर के बाद भारत के श्रमिक वर्ग की जो थोड़ा बहुत स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता थी, वह भी खत्म हो गई है l करोड़ों की संख्या में अपने घरों से दूर काम करने वाले मजदूरों ने अनुभव किया है कि उनके प्रवासी होने के नाते, उनके काम, रहने, खाने और आवास की कोई गारंटी नहीं है l इसीलिए तीन हफ्ते के पहले वाले लॉकडाउन की घोषणा को सुनते ही, बहुत बड़ी संख्या में श्रमिक और उनके परिवार रोजगार की जगह से अपने गांव की ओर चल पड़े।

सवाल है कि ये अपना घर और गुजारा कैसे चलाएंगे? जिन्होंने रोजगार की तलाश में गांव छोड़ा था, उन्हें अब उसी गांव में इस बेरोजगारी के दौर में क्या रोजगार मिलेगा? हकीकत में आज ग्रामीण भारत में कोई रोजगार मिलने की सम्भावना है, तो वह मनरेगा के तहत ही है l इस कानूनी हक को वर्तमान प्रधानमंत्री सहित, कई अर्थशास्त्रियों ने एक विफलता का प्रतीक बताया था, लेकिन आज मनरेगा एक जीवन रेखा बन गया है l

मनरेगा में इस वर्ष 40,000 करोड़ रुपए अतिरिक्त आने से, यह कार्यक्रम कुछ रफ्तार से चलने लगा है। घरों में चूल्हे जलने लगे हैं। भूख का डर कम हुआ है। मनरेगा ठीक से चलेगा, तो कोई भूखा नहीं मरेगा l लेकिन, इस बार 100 दिन प्रति परिवार के हक को बढ़ाना पड़ेगा। मनरेगा केवल रोजगार नहीं है l मनरेगा ने अपने-अपने गांवों में विकास की कुछ धाराओं को खोज निकाला है l जगह-जगह पानी रुकेगा, हैण्डपम्प और कुएं रिचार्ज होंगे l बाड़ी, तालाब, एनिकट बनने से, खेती में जान आएगी। लोगों ने भी अपनी दिशा बदली है l जिसका खेती के तरफ ज्यादा ध्यान नहीं था, अब पूरा ध्यान अपने खेतों को संवारने में जाने लगा है l मनरेगा को ठीक से चलने के लिए, सबसे पहले अपने मूल हकों को ठीक से स्थापित करना पड़ेगा l यह हक इन तीन नारों के रूप में रचे गए हैं, और वे सबको बखूबी समझ में आते हैं।
“हर हाथ को काम मिले, काम का पूरा दाम मिले और समय पर भुगतान मिले l”

मनरेगा एकमात्र ऐसा कानून है,जो सरकार द्वारा बनाए हुए बजट की सीमाओं को अपने आप पार कर सकता है l फिर भी, सरकार को पैसे उपलब्ध करने ही पड़ेंगे l भारत सरकार ने कोरोना महामारी के दौरान कई बार गरीब लोगों और श्रमिकों को सहायता देने के आश्वासन दिया l दो बार “पैकेज” कि घोषणा हुई l देश में चारों तरफ देखें, तो मनरेगा एकमात्र कार्यक्रम है जिसमें लोगों को कुछ राहत मिलते हुए दिख रहा है l जो पैसे दिए गए हैं वो जल्द ही खत्म होंगे l यह विश्लेषण किया गया है कि एक लाख करोड़ रुपए की आवश्यकता सामान्य वर्ष में ही है l मनरेगा के 2019-20 के बजट में 40,000 करोड़ रुपए जोड़ने के बाद, एक लाख करोड़ की राशि बनती है।

कई राज्यों में लाखों की संख्या में मजदूर, प्रवासी मजदूर, एवं स्थानीय लोग, रोजगार पाने के लिए मनरेगा कार्यस्थलों पर जा रहे हैं l आज कार्यक्रम में फिलहाल पैसा होने की वजह से सारे रोजगार सृजित करने के रिकॉर्ड तोड़े जा रहे हैं l पिछले सालों में राजस्थान में अधिकतम 32 लाख मजदूरों की संख्या रही है। यह बढ़कर 52 लाख हो गई है l उत्तर प्रदेश में भी 50 लाख से ज्यादा मजदूर मनरेगा के तहत रोजगार मांग रहे हैं। पूरे भारत में भी इसी प्रकार मजदूरों की संख्या 3.19 करोड़ से संख्या बढ़कर 4.89 करोड़ पहुंच चुकी है l मनरेगा को ज्यादा से ज्यादा लोगों के लिए एक सहारा और आधार बनाना है, इस साल रोजगार गारंटी में मजदूरों के दिन बढ़ाने पड़ेंगे।

योजना में प्रावधान है कि आपदा पड़ने पर 50 दिन प्रति परिवार का रोजगार बढ़ाया जा सकता है l इस साल यह हक 200 दिन कर देना चाहिए l मनरेगा में पूरी पारदर्शिता हो, कार्य के क्रियान्वयन में ग्रामीणों की हिस्सेदारी हो, निगरानी और अंकेक्षण में भी जन भागीदारी सुनिश्चित करें l जो काम हों, वह लोग ही मिलकर चयन करें l स्पष्ट है कि रोजगार गारंटी में सामूहिक हित के काम सबसे प्रमुख हैंं लेकिन, कुछ राज्यों में सामूहिक या सरकारी जमीन है और कई राज्यों में इतनी सामूहिक या पड़त भूमि नहीं है। जहां सामूहिक काम के लिए जमीन की कमी है तो दिन बढ़ाने के साथ-साथ, सामूहिक हित की सेवाओं की तरफ भी रोजगार गारंटी के काम को मोड़ना पड़ेगा l उत्पादन और सामूहिक हित को बढ़ाने के लिए जल, जंगल, जमीन तथा खेती-किसानी के तरफ ध्यान देना, पर्यावरण की रक्षा करना और मानव संसाधनों को सृजित करने के काम के बारे में भी सोचा जा सकता है l

आखिर में हमें समझना पड़ेगा कि सुचारू रूप से चल रहा मनरेगा स्थानीय बाजारों को भी जान देगा l यदि उपरोक्त नियमों और सिद्धांतों को रोजगार गारंटी के नीव में डालें, तो रोजगार गारंटी कार्यक्रम न केवल लोगों के घर में कुछ पैसा लाएगा और बाजार में भी डिमांड जगाएगा, वह सरकार और स्थानीय निकायों को इस आपदा का सामना करने में और सक्षम बनाएगा l मनरेगा को सरकार ताकत देगी, तो मनरेगा भी सरकार को करोना का सामना करने में ताकत देगा l
(लेखक मजदूर किसान शक्ति संगठन के संस्थापक सदस्य हैं)

इस निवेश से ग्रामीण बाजार में सीधे नकदी आएगी। लोग अपनी जरूरतें भी पूरी कर पाएंगे और उत्पादन को भी प्रोत्साहन मिलेगा। इसके लिए बड़ी कंपनियों और कारखानों को प्रत्यक्ष सहायता देते रहने की नीति में बदलाव करना होगा और निम्न आयवर्ग के ग्रामीण परिवारों को सीधे सहायता पहुंचाने की नीति में विश्वास करना होगा। मजदूरी की दर को संकुचित रखने के कारण ही अर्थव्यवस्था और ज्यादा संकुचित होती जाएगी। अतः जरूरी है कि मजदूरी को कम से कम 300 रुपए किया जाना चाहिए। इससे 7.81 करोड़ सक्रिय मनरेगा परिवारों को 150 दिन के काम के एवज में साल भर में 45,000 रुपए मिलेंगे और मजदूरों को सीधे 3.51 लाख करोड़ रुपए मिलेंगे। इससे स्थानीय बाजार में नकद का प्रवाह भी बढ़ेगा। सरकारी कर्मचारियों को वेतनमान वृद्धि देते समय भारत सरकार यही तर्क देती है कि इससे बाजार में पैसा आता है।

कोविड-19 के कारण उत्पन्न हुई स्थिति से अब वे परिवार काम करना चाहेंगे, जो संभवतः पलायन पर जा रहे थे या जिन्हें और कोई अन्य विकल्प उपलब्ध हो रहे थे। कोविड-19 के बाद मनरेगा में काम करने वाले परिवारों की संख्या 5.25 करोड़ से बढ़कर 7.81 करोड़ हो जाने की संभावना है, अगर सरकार माकूल कोशिशें करेगी, तो उसे 2.56 करोड़ परिवारों को रोजगार उपलब्ध करवाना होगा।

वर्ष 2016-17 से 2019-20 के वित्तीय वर्षों में भारत सरकार ने औसतन 59,111 करोड़ रुपये की राशि मनरेगा के लिए जारी की। केंद्र सरकार द्वारा दी गयी राशि से भी यह स्पष्ट होता है कि मजदूरों की जरूरत और उनकी स्थिति में बदलाव लाने के मकसद से मनरेगा का क्रियान्वयन नहीं किया गया है। केंद्र सरकार द्वारा पिछले चार सालों में सबसे ज्यादा जाॅबकार्ड वाले और जरूरतमंद राज्यों बिहार को औसतन 2,553 करोड़ रुपए और उत्तरप्रदेश को 4,769 करोड़ रुपए की राशि जारी की गई। यही कारण है कि केवल इन दो राज्यों में 1.50 करोड़ सक्रिय जाॅबकार्ड धारी परिवारों में से 77 लाख ने ही काम किया। बाकी ने पलायन या फिर अन्य कामों में विकल्प तलाशे होंगे। इसके अलावा पश्चिम बंगाल को 6,798 करोड़ रुपए, राजस्थान को 5,483 करोड़ रुपए, मध्यप्रदेश को 4,127 करोड़ रुपए की राशि जारी की गई। अगर कानून के मंशा के मुताबिक इस साल सभी को 100 दिन का रोजगार उपलब्ध करवाना है तो योजना में 2.25 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान करना होगा। इसमें से वर्तमान औसत मजदूरी की दर 202 रुपए के मान से 1.58 लाख करोड़ रुपए (यानी 70 प्रतिशत) राशि मजदूरी के रूप में खर्च की जानी होगी। अब तक सरकार ने मनरेगा के लिए 1.05 लाख करोड़ रुपए का आवंटन किया है। इस हिसाब से 1.20 लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त आवंटन किए जाने की जरूरत होगी। उम्मीद करना चाहिए कि काम के दिनों की संख्या बढ़ाकर 150 से 200 दिन की जाएगी। साथ ही मजदूरी की दर भी औसतन 300 रुपए की जाए, ताकि तात्कालिक भुखमरी और आर्थिक बदहाली के हालात स्थायी न बन जाएं।

आगे का रास्ता

सबसे पहले रोजगार के अधिकार के दिनों की संख्या 100 से बढ़ाकर 150 दिन होनी चाहिए ताकि निम्न आयवर्ग के 7.81 करोड़ परिवारों के सामने अति गरीब हो जाने की स्थिति पैदा न हो जाए। इसके लिए 3.38 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान करना होगा, जिसमें से 2.37 लाख करोड़ रुपये का व्यय केवल मजदूरी पर किया जाना होगा। मध्यप्रदेश को 22,769, बिहार को 23,426, उत्तरप्रदेश को 37,105, पश्चिम बंगाल को 36,135 और राजस्थान को 30,248 करोड़ रुपए की जरूरत होगी। दूसरा, यदि औसत मजदूरी की दर 202 रुपए से बढ़ाकर 300 रुपए की जाती है तो भारत सरकार को मजदूरी के भुगतान के लिए 3.51 लाख करोड़ रुपए आवंटित करने होंगे।

(साथ में बिहार से उमेश कुमार राय व अश्वेत सिंह, झारखंड से आसिफ असरार, यूपी से रणविजय सिंह व राजस्थान से माधव शर्मा)

शहरी रोजगार गारंटी की जरूरत

यह कार्यक्रम जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न आर्थिक और पारिस्थितिक नुकसान से उबरने में मदद करेगा

दुनिया के सबसे बड़े लॉकडाउन को भारत ने कैसे झेला, इसका पता इस बात से चलेगा कि हमारे राज्य और समाज ने हमारे श्रमिकों के साथ क्या व्यवहार किया और इस समस्या से कैसे निपटा? बड़े पैमाने पर ये श्रमिक खुद के भरोसे छोड़ दिए गए। ये ऐसे लोग थे, जिन्होंने इन शहरों का निर्माण किया और उनकी सेवा की, चमकदार राजमार्गों और फ्लाईओवर का निर्माण किया और एक दिन उन्हीं चमकदार रास्तों से सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घर पैदल वापस आने के लिए मजबूर हो गए। स्ट्रीट वेंडर्स देखते रहे कि कैसे पुलिस की गाड़ियों ने उनके फलों और सब्जियों के ठेले उजाड़ दिए। ये वही ठेले थे, जिसके जरिए उन घरों तक डोर स्टेप डिलीवरी की जाती थी, जो “सोशल डिस्टेंसिंग” बनाए रखते हुए अपने लिए सुविधाएं तलाश रहे थे।

यह संकट हमें फिर से याद दिलाता है कि हमारे अधिकतर नागरिकों का जीवन कितना अनिश्चित और कमजोर है। हालांकि भारत का ग्रामीण और कृषि संकट पहले से चल रहा था और इस वक्त शहरी श्रमिकों का जीवन भी सामाजिक सुरक्षा की कमी के कारण कठिन बन गया। ग्रामीण श्रमिकों की मनरेगा तक पहुंच है, लेकिन शहरी श्रमिकों के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं है।

इसलिए, शहरी रोजगार गारंटी कार्यक्रम की दिशा में काम करने का ये एक उपयुक्त समय है। शहरी श्रमिकों को रोजगार का कानूनी अधिकार प्रदान करने से शहरी अर्थव्यवस्था में कम आमदनी पर काम करने वाले श्रमिकों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इतना ही नहीं, ये शहरी बुनियादी ढांचे और सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार करेगा। इस तरह का कार्यक्रम न केवल कोविड-19 के कारण शहरी अर्थव्यवस्था को पहुंचे झटके से उबरने के उपाय के रूप में काम करेगा, बल्कि जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न होने वाले आर्थिक और पारिस्थितिक नुकसान से उबरने में काफी मदद करेगा।

मनरेगा का ये शहरी संस्करण उन कार्यों की प्रकृति को व्यापक बना सकता है, जो रोजगार गारंटी के माध्यम से किए जा सकते हैं। खासकर, “ग्रीन जॉब्स” जैसे सामूहिक जल निकायों का निर्माण और मरम्मत, शहरी मैदान और आर्द्रभूमि का कायाकल्प, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन, वनस्पति और पेड़ लगाना, सार्वजनिक पार्कों, खेल के मैदानों और फुटपाथों का निर्माण करना, आश्रय स्थलों, संगरोध सुविधाओं जैसे सामान्य बुनियादी ढांचे का निर्माण करना, किचन गार्डन बनाना, सर्वेक्षण करना आदि।

मनरेगा भी सफल कार्यान्वयन के लिए कई सबक प्रदान करता है। पिछले 15 वर्षों में कार्यान्वयन की व्यावहारिक प्रणाली विकसित की गई है। उदाहरण के लिए, काम की मांग करने वाले श्रमिकों को उनका अधिकार मिला है। इसके अलावा, खर्च का लेखा परीक्षा का अधिकार और कार्यक्रम के कार्यान्वयन से संबंधित सभी सूचनाओं तक पहुंच का अधिकार ये बताता है कि शहरी रोजगार गारंटी कार्यक्रम में इन बातों को अवश्य ही शामिल किया जाना चाहिए।

कई राज्यों ने इस दिशा में पहले ही कदम उठा लिए हैं। केरल, ओडिशा और हिमाचल प्रदेश शहरी रोजगार कार्यक्रम चला रहे हैं। लेकिन, इस कार्यक्रम को वाकई प्रभावी बनाने के लिए केंद्र सरकार को अपने बड़े संसाधनों को आगे बढ़ाना चाहिए। ठीक से लागू किया जाए तो मनरेगा के साथ-साथ इस शहरी रोजगार गारंटी कार्यक्रम की कुल लागत 5 लाख करोड़ या जीडीपी का 2.5 प्रतिशत होने की संभावना है। यह एक बड़ी संख्या है। लेकिन इसे बेरोजगार श्रमिकों के लिए “भत्ता” के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। इसे हमारे सार्वजनिक संपत्तियों और सेवाओं में बहुत जरूरी निवेश के रूप में देखा जाना चाहिए। इस निवेश की वसूली निवासियों की भलाई और सुरक्षा, उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार, श्रमिकों की उत्पादकता में सुधार और अधिक से अधिक पारिस्थितिक लचीलापन के माध्यम से प्राप्त किया जाएगा।

आर्थिक संकट की जो गंभीरता कोविड-19 की वजह से फैली है, उसने अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में विनाशकारी प्रभाव डाला है। सरकार ने जो राहत की घोषणा की है, उससे श्रमिकों को कोई खास फायदा नहीं होने जा रहा है। हमें इस वक्त का उपयोग सिर्फ एक राहत पैकेज के लिए नहीं करना चाहिए, बल्कि अपने देश में श्रम और श्रमिक अधिकारों को मौलिक स्तर पर बदलना चाहिए। यही एकमात्र तरीका है, जिससे दोबारा बनने वाली अर्थव्यवस्था में श्रमिक अपनी हिस्सेदारी तलाश सकेंगे और यह सुनिश्चित कर सकेंगे कि आगे उनके साथ ऐसी असमानता और अशिष्टता भरा व्यवहार न हो।

सरकार द्वारा शहरी रोजगार गारंटी अधिनियम पारित करने के लिए मजदूर यूनियनों, अभियानों और नागरिक संगठनों को साथ मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है। यदि इस वक्त हम श्रमिकों को इस देश के असली देशभक्त के रूप में पहचान सकें और देश के विकास में उनके योगदान को हम पहचान कर उनका हिस्सा उन्हें दे सकें तो इतिहास में ये बातें स्वर्णाक्षरों में लिखी जाएंगी।

(अमित बसोले सेंटर फॉर सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट, अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी और रक्षिता स्वामी सोशल एकाउंटेबिलिटी फोरम फॉर एक्शन एंड रिसर्च से जुड़ी हैं)

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