पथ का साथी: दुख-दर्द और अपमान के साथ गांव लौट रहे हैं प्रवासी

डाउन टू अर्थ हिंदी के रिपोर्टर विवेक मिश्रा 16 मई 2020 से प्रवासी मजदूरों के साथ ही पैदल चल रहे हैं। इसे एक श्रृंखला के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। पढ़ें, पहली कड़ी-

By Vivek Mishra

On: Tuesday 19 May 2020
 
दिल्ली से बहराइच की ओर पैदल निकले विनोद सुस्ताते हुए। फोटो: विवेक मिश्रा

डाउन टू अर्थ हिंदी के रिपोर्टर विवेक मिश्रा 16 मई 2020 से प्रवासी मजदूरों के साथ ही पैदल चल रहे हैं। उन्होंने इस दौरान भयावह हकीकत को जाना और समझा। वे गांव पहुंच चुके प्रवासियों की पीड़ा जानने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या वे कभी अब शहर की ओर रुख करने की हिम्मत भविष्य में जुटा पाएंगे? उनके इस सफर को सिलसिलेवार “पथ का साथी” श्रृंखला के रूप में प्रकाशित किया जाएगा। इस श्रृंखला में विवेक की आपबीती होगी। साथ ही, सड़कों पर पैदल चल रहे प्रवासियों की दास्तान होगी और गांव पहुंच चुके कामगारों के भविष्य के सपने होंगे।

आप यह सब डाउन टू अर्थ के फेसबुक पेज https://www.facebook.com/down2earthHindi/ पर लाइव देख सकते हैं या डाउन टू अर्थ की वेबसाइट https://www.downtoearth.org.in/hindistory पर पढ़ सकते हैं। प्रस्तुत है, इस श्रृखंला की पहली कड़ी- 

 

प्रवासी मजदूरों के साथ पहले दिन की यात्रा

तारीख 16 मई, समय 11 बजे से- पूर्वी दिल्ली मे मयूर फेस 3 के जीडी कॉलोनी से हापुड़ के बाबू गढ़ तक की यात्रा। सुबह के दस बज रहे थे। और मैं मीडिया हाउस के एक मित्र से प्रवासी मजदूरों के रास्ते के ताजा रोडमैप समझने के लिए उनके फोन का इंतजार कर रहा था। अचानक घंटी बजी और उन्होंने बताया कि सारे दिल्ली के सारे बार्डर सील कर दिए गए हैं। और उत्तर प्रदेश के औरैय्या में 24 मजदूरों की एक हादसे में मौत के बाद दिल्ली ओर उत्तर प्रदेश की सीमाओं मे चौकसी बढ़ा दी गई है। फिर भी मेरा मन नहीं माना और मैंने कुछ कपड़े, एक गिलास, कटोरी सत्तु, नींबू, प्याज और कुछ जरूरी दवाइयां खरीदकर बैग में रख ली। खाने पीने के सामान की वजह से बैग थोड़ा भारी हो गया। और लगभग 11 बजे मैंने घर से बाहर निकल पड़ा। मेरी मंजिल तय नहीं थी, लेकिन मकसद तय था कि डाउन टू अर्थ ने जमीनी पत्रकारिता को हमेशा तरजीह दी है और ऐसे समय में जब देश का एक बड़ा वर्ग सड़क पर हो तो डाउन टू अर्थ के प्रतिनिधि के नाते मुझे भी उनके साथ होना चाहिए। 

दरअसल, देश में भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद यह पहला अवसर है, जब लाखों लोग सिर पर सामान रखें अपने परिवार के साथ रात-दिन बस चलते चले जा रहे हैं। मैंने भारत-पाक विभाजन वाला वो मंजर तो नहीं देखा, लेकिन मैं आज के हालात को न केवल गहराई से समझना चाहता था, बल्कि उस पल को जीना भी चाहता था, जिसमें लाखों मजदूर अपमान, दु:ख, बेरोजगारी की मार खाए हुए सड़कों पर पैदल ही गांव की ओर चल रहे थे।

यह वक्त नोवल कोरोनावायरस बीमारी (कोविड 19) की महामारी से ज्यादा लॉकडाउन की महामारी का शिकार हो चुका है। एक मजदूर के सहारे उसके कम से कम चार से पांच लोगों की जिंदगियां बंधी होती हैं। और ये जो कड़ी है, इसकी डोर जब टूट जाए तो कतारे ही कतारें दिखाई देती हैं। भारत के महानगर और उनसे जुड़ी हुई गांव की छोटी-छोटी सड़कें प्रवासी मजदूरों के लिए लंबी कतारों का डेरा बन गईं हैं।

मैं कल्याणपुरी के रास्ते आनंद विहार की तरफ बढ़ा। सफर के लिए सभी जरूरी जांच पूरी कर चुका था। आनंद विहार पर पुलिस लगातार आने वाले प्रवासी मजदूरों को पीछे की तरफ भगा रही थी। और ज्यादातर मजदूर पीछे की ओर जाकर सड़कों पर बैठ गए थे। इन्हीं में से एक मजदूर बहराइच जिले हुजुरपुर गांव के निवासी विनोद कुमार बेसुध बैठे थे। उनके साथ 11 साल का उनका साला और उनके एक मित्र भी वहीं अराम कर रहे थे।

गाजीपुर से लगे हुए श्मशान घाट के पास ही यह जगह है। विनोद ने बातचीत में बताया कि वे पिछली रात दिल्ली के राजौरी गार्डन से अपने सामान और इस बच्चे के साथ दिल्ली के बॉर्डर दर बॉर्डर भटक रहे हैं, लेकिन पुलिस वाले उत्तर प्रदेश की सीमा में प्रवेश की इजाजत नहीं दे रहे हैं। फिर हम दोनों ने तय किया कि दिल्ली से गाजियाबाद के लालकुंआ की तरफ जाने वाली सीमा से यूपी जाने का प्रयास किया जा सकता है।

हमारी पैदल यात्रा यहीं से आगे बढ़ी और हम पांच लोग श्मशान घाट के रास्ते गाजियाबाद की तरफ बढे़। छोटे बच्चे के सिर पर उसके वजन से तीन गुना अधिक सामान का बोझ था। उससे भी अधिक बोझ विनोद ने अपने सिर पर रखा था। और हम धीरे-धीरे नहर के रास्ते गाजियाबाद की तरफ बढ़ने लगे। विनोद हताश था कि कहीं पुलिस ने रास्ते में रोक लिया या वापस लौटाने की कोशिश की तो हाथापाई से लेकर जेल तक न जाना पड़ जाए। विनोद की जेब में बहुत पैसे नहीं थे। राजौरी गार्डन में जुराब बनाने की फैक्टरी दो माह से बंद थी, जो कि अगले दो माह ओर बंद रहने वाली थी। क्योंकि वह स्कूली बच्चों के लिए ज़ुराबें बनाती है।

फिर भी मैंने विनोद को दिलासा दिया और बातचीत करते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। धीरे-धीरे हमें मालूम चला कि पुलिस आगे बैठी हुई है। ऐसी हालत में हमने अपनी रणनीति बदली ओर दिल्ली की खोड़ा कालोनी से होते हुए गाजियाबाद की सीमा पर पहुंचे। सभी के मन में आशंका थी कि कहीं फिर से न लौटा दिया जाए और घंटों की मेहनत पर पानी न फिर जाए।

हम एक-एक करके थोड़ी दूरी बना कर चौकी के बगल से गाजियाबाद ओवरब्रिज से हाइवे पर जा पहुंचे। विनोद और छोटे से बच्चे के लिए यह खुशी का पल था कि उन्होंने दिल्ली की सीमा को पार कर लिया है। विनोद ने एक टिप्पणी की कि मैं अब कभी उधर की तरफ मुंह नहीं मोडूंगा। छोटे बच्चे ने विस्मय भाव से पूछा कि भैया क्या केजरीवाल की पावर खत्म हो गई? ओर हम सब हंस पड़े। हमने सडक पार कर गौर बिल्डिंग के सामने अपना सामान रखा और बोतल में पानी भर कर आगे बढ़ने का इंतजाम पूरा किया।

तभी प्राइवेट बस का एक ब्रोकर पहुंचा ओर लखनऊ तक के लिए 1500 रुपए की बात कही। और वहां बैठे मजदूरों से उसकी बात बनी नहीं, इसलिए हम सब लालकुंआ की ओर आगे बढ गए। करीब सात से आठ किलोमीटर चलने के बाद पुलिस के घेरे ने हमें रोक लिया। जहां पहले से ही 70 प्रवासी मजदूर बैठे हुए थे। विनोद और उनका साला भी उसी भीड़ का हिस्सा बन गए।

वहां पर स्थानीय लोगों द्वारा खाना बांटा जा रहा था। तभी पुलिस कर्मी ने मेरे बारे में पूछताछ की तो मैंनै अपना परिचय मीडिया कर्मी के रूप में दिया। सुनते ही पुलिस वाले ने कहा, यह सब तुम लोगों के कारण ही हो रहा है। मैं चुप रहा और थोड़ी देर में एक बस रुकवाई गई और उसमें साठ मजदरों को बिठा दिया गया। मैंने जब पूछा तो पुलिस वाले ने कहा, जितने भी लोग दिल्ली से आए हैं उनको वापस दिल्ली भेजा जाएगा।

इसी जत्थे में विनोद और उनके साले को भी शामिल कर बस में बिठा दिया गया। इस तरह मेरा और विनोद का साथ छूट गया। साथ ही, कई सवाल भी छूट गए। विनोद ने कहा था कि अब वह दिल्ली लौटकर कभी नहीं आएगा। न ही किसी जुराब फैक्टरी में काम करेगा। भले ही उसने इस फैक्टरी को 15 साल दिए हों। विनोद को एक कुशल जुराब कारीगर बनने में चार साल लगे थे। उसने बताया था कि उसके पास पांच बीघा जमीन है और अब वह अपना सारा ध्यान खेती पर लगाएगा। विनोद के जवाब ने इस बात को दिशा दिखा दी थी कि प्रवासी मजदूरों को महानगरों की व्यवस्था ने इस कदर तोड़ दिया है कि वे अब व्यवस्था पर भरोसा नहीं कर सकते हैं।

सच पूछें तो मैं भी चाहता था कि विनोद और उसके साथ छोटा बच्चा किसी साधन से अपने घर पहुंच जाए, क्योंकि इस गर्मी में बोझ उठा कर चलना गर्मी में जान जोखिम में डालने जैसा है। लेकिन यह नहीं चाहता था कि उन्हें फिर से दिल्ली पहुंचा दिया जाए। 

मैं वहां अकेला पड़ गया और लाल कुंआ की ओर बढ़ चला। लगातार चलता रहा, बीच-बीच में पुलिस टोकती रही। रास्ते भर मजदूर पुलिस से बच कर निकलने की तरकीब ढूंढ़ते हुए या भागते हुए दिखाई पड़े। ये शायद इसी कारण हो रहा था कि पुलिस मजदूरों को बंधक बनाने जैसा व्यवहार कर रही थी, वहीं मजदूरों के बीच इस बात का भय था कि कहीं उन्हें 14 दिन के लिए किसी शेल्टर में न डाल दिया जाए।

मुझे गाजियाबाद-इंदिरापुरम में बांदा के कुछ मजदूर मिले, वे भी बांदा जाना चाहते हैं। मैंने उनके साथ खिचड़ी खाई। अंधेरा हो रहा था, इसलिए मैं आगे बढ़ गया। लाल कुंआ तक हम चलते रहे। करीब 33 से 40 किलोमीटर की दूरी पूरी हुई। लालकुंआ पहुंचने के बाद वहां एक अलग ही माजरा दिखाई दिया।

वहां दसियों हजार मजदूर दिल्ली के अलग-अलग स्थानों से पहुंचे हुए थे। इसमें से बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश ओर बंगाल के मुर्शिदाबाद के मजदूर शामिल थे। निजी वाहनों और ट्रकों का अच्छा खासा कारोबार गुलजार हो चला था। ज्यादातर मजदूरों के पास पैसे नहीं थे, जबकि निजी वाहन व ट्रक वाले 1500 रुपए प्रति मजदूर से कम में लखनऊ जाने को तैयार नहीं थे।

यहां कुछ छात्र भी जमा थे, जो दिल्ली से लखनऊ जाना चाहते थे। उन्होंने भी ट्रक वाले से कम पैसे में ले जाने को कहा, लेकिन ट्रक चालक ने मना कर दिया। जब वे ट्रक चालक की शिकायत करने पुलिस कर्मियों के पास पहुंचे तो पुलिस कर्मियों ने उन्हें ही खदेड़ दिया।

रात साढे़ नौ बज चुके थे और मजदूर लालकुंआ के पास सड़कों पर ही रात बिताने लगे। मैंने रात में रुकने की बजाय अकबरपुर के तीन सिलाई करने वाले मजदूर और मुर्शीदाबाद के दो मजदूरों के साथ पिलखुआ की ओर आगे बढ़ गया। सुबह औरेया कांड के कारण पुलिस प्रशासन को डांट फटकार का सामना करना पड़ा, इसलिए शाम को पुलिस की सख्ती बढ़ गई। जबकि यह तथ्य यह अनदेखा किया गया है कि पिछले दो माह से लॉकडाउन के कारण मजदूरों की जमा पूंजी खत्म है और उनके पास खाने को भी नहीं है।

पिलखुआ बॉर्डर पर बैरीकेटिंग कर दी गई और जितने भी ट्रक पिलखुआ की ओर बढ रहे थे, उनमें बैठे मजदूरों को निकाला जाने लगा। लंबा जाम लगने के कारण मजदूरों को पता चला कि पुलिस रोक रही है तो वे बॉर्डर से पहले ही उतर गए और वहां से पैदल खेतों की ओर भाग गए और कुछ दूर आगे चल कर वापस हाइवे पर आ गए।

पहले दिन ही मैं करीब 40 से 50 किलोमीटर का सफर तय कर चुका था। रात बहुत हो चुकी थी, इसलिए लालकुंआ से बाबू गढ़ के नजदीकी गांव के पास एक हरियाणा ढाबा आंशिक तौर पर खुला हुआ था। वहां पर मैं मजदूरों के साथ ही बैठ गया। वहीं मुझे मुर्शिदाबाद के अनीसुल हक ने बताया कि लाल कुंआ में सात हजार मजदूरों को बंधक की तरह बैठा रखा है। उनमें वह भी शामिल था, लेकिन मौका पाकर वह भाग आया।

बहरहाल मैंने एक निजी बस में उन्हें लखनऊ तक के लिए बैठा दिया। सुबह के चार बज रहे थे। मैंने अपना मोबाइल चार्ज पर लगाया, लेकिन सो इसलिए नहीं सका, क्योंकि मोबाइल की देखभाल भी मुझे ही करनी था। वहीं मैंने हल्की झपकी ली और दूसरे दिन के लिए अपने को तैयार कर लिया। 

अगली कड़ी में आप पढ़ें, 17 मई को क्या-क्या हुआ?

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