पथ का साथी: जिनके लिए बरसों काम किया, उन्होंने भी नहीं दिया साथ

डाउन टू अर्थ हिंदी के रिपोर्टर विवेक मिश्रा 16 मई 2020 से प्रवासी मजदूरों के साथ ही पैदल चल रहे हैं। पढ़ें, उनके साथ बीते दूसरे दिन का हाल-

By Vivek Mishra

On: Thursday 21 May 2020
 
उत्तर प्रदेश के बृजघाट पर रोके गए प्रवासी। फोटो: विवेक मिश्रा

डाउन टू अर्थ हिंदी के रिपोर्टर विवेक मिश्रा 16 मई 2020 से प्रवासी मजदूरों के साथ ही पैदल चल रहे हैं। उन्होंने इस दौरान भयावह हकीकत को जाना और समझा। वे गांव पहुंच चुके प्रवासियों की पीड़ा जानने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या वे कभी अब शहर की ओर रुख करने की हिम्मत भविष्य में जुटा पाएंगे? उनके इस सफर को सिलसिलेवार “पथ का साथी” श्रृंखला के रूप में प्रकाशित किया जाएगा। इस श्रृंखला में विवेक की आपबीती होगी। साथ ही, सड़कों पर पैदल चल रहे प्रवासियों की दास्तान होगी और गांव पहुंच चुके कामगारों के भविष्य के सपने होंगे।

आप यह सब डाउन टू अर्थ के फेसबुक पेज https://www.facebook.com/down2earthHindi/ पर लाइव देख सकते हैं या डाउन टू अर्थ की वेबसाइट https://www.downtoearth.org.in/hindistory पर पढ़ सकते हैं। इस श्रृखंला की पहली कड़ी में आपने पढ़ा, पथ का साथी: दुख-दर्द और अपमान के साथ गांव लौट रहे हैं प्रवासी । पढ़े,अगली कड़ी-

 

17 मई सुबह सात बजे। मैं हरियाणा ढाबा पर लेटा हुआ था। हापुड़ रोड पर स्थित यह ढाबा आंशिक रूप से खुला हुआ था। जहां मैंने अपना फोन चार्ज किया और अपना सामान दुरुस्त करने के बाद मैं मैं वहां से अमरोहा-गजरोला की ओर निकल पड़ा।

कोई दस किलोमीटर दूर ही आगे पहुंचा था कि मुझे पता चला कि पीछे प्रवासी मजदूरों का एक बड़ा जत्था बैठा हुआ है। मैं वहां से उल्टे पांव हो लिया और लगभग 12 किलोमीटर पीछे जाने बाबू गढ़ थाना क्षेत्र की कोतवाली के पास ही मौजूद बाबा-मामा यादव ढाबे पर प्रवासी मजदूरों की भीड़ देखकर मैं हतप्रभ रह गया। यहां हजारों की तादात में प्रवासी जमा थे। कोई कतार में खड़ा था, तो कोई बैठा हुआ था तो लेट कर अपनी थकान दूर कर रहा था। वहां पुलिस कर्मियों का एक जत्था भी मौजूद था।

थोड़ी देर में वहां कुछ लोग पहुंचे, जिनके पास पानी की बोतलें थी। इनमें एक पावर कॉरपोरेशन के कर्मचारी भी शामिल थे। वहां पास ही के गांव के लोग भी पहुंचे हुए थे। ये लोग यहां खाने का इंतजाम कर रहे थे। वहां सब लोगों को लाइन पर लगाकर पानी व खाना दिया गया। इासके बाद उत्तर प्रदेश के लोगों को जिला वार बंट जाने को कहा गया, जबकि बिहार के लोगों को अलग लाइनों में लगने को कहा गया।

अब तक वहां तेज धूप हो चुकी थी और उसी धूप में इन लोगों को लाइन पर खड़ा कर दिया गया। तब तक वहां कुछ सरकारी बसें पहुंच चुकी थी। कुछ लोग टेबल कुर्सी बिछाकर इन प्रवासियों का विवरण नोट कर रहे थे। वे आधार कार्ड का नंबर नोट कर रहे थे और साथ ही यह भी वे किस इलाके में जाना चाहते हैं।

इस लिस्ट के आधार पर बस के बाहर खड़े कर्मचारी प्रवासियों को आवाज देते और बस में बैठने से पहले थर्मल स्क्रीनिंग की जाती। यह सिलसिला  शाम तक  चलता रहा। मजदूर आने का तांता लगा रहा। पिलखुआ बॉर्डर पर उन्हें रोक दिया गया था। पिलखुआ बॉर्डर पर कई प्रवासी पैदल पहुंचे थे तो कुछ ने अपने लिए ट्रक का इंतजाम कर लिया था, लेकिन पुलिस ने वहां ट्रक खाली करवा लिया। वहां से इन्हें बाबू गढ़ थाना कोतवाली लाया गया था। वहां पुलिस थानाध्यक्ष इस बात से नाराज थे कि पिछले थाने की पुलिस ने मजदूरों को ट्रकों में भर कर भेज दिया था।

थानों-थानों के बीच चल रहा यह खेल मजदूरों पर भारी पड़ रहा था। एक थाने से दूसरे थाने की अलग-अलग गाइडलाइंस इन मजदूरों की परेशानी को बढ़ा रही थी। यह सब चलता रहा और मैं प्रवासी मजदूरों से बातचीत करता रहा। इस दौरान बिहार के लिए एक बस तैयार की गई। इन मजदूरों के पास नई साइकिलें थी, जो उन्होंने हाल ही में खरीदी थी। इन मजदूरों को भी बस में बिठा दिया गया। इनके लिए लगभग 10 बसों का इंतजाम किया गया था। साइकिलों को बसों के ऊपर लाद दिया गया।

इस दौरान एक विचित्र बात मुझे पता चली कि हापुड़-बुलंदशहर के इस इलाके में कई मजदूर अभी भी फंसे हुए हैं। वे यहां फैक्ट्रियों में काम करते हैं। दरअसल, इस इलाके में कई फैक्ट्रियां हैं, जो मेन रोड से अंदर जाकर हैं। जहां बड़ी संख्या में मजदूर हैं। लॉकडाउन की वजह से काम बंद होने के बाद कुछ दिन तक मजदूर अंदर ही रहे, लेकिन इसके बाद फैक्ट्री मालिकों ने उन्हें निकालना शुरू कर दिया और ठेकेदारों के जरिए उन्हें मेन रोड तक पहुंचाया जाने लगा। दरअसल, यह न केवल दिल्ली-एनसीआर की मुश्किल है, बल्कि मुरादाबाद-हापुड़ जैसे छोटे इलाकों में भी मालिक और मजदूर के रिश्ते बिगड़ रहे हैं। फैक्ट्री मालिक  जिन श्रमिकों से सालों से काम ले रहे हैं। उन्हें अब वे श्रमिक बोझ लग रहे हैं। उन पर मालिक अपना पैसा खर्च नहीं करना चाहते।

इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पुलिस को जब यह बात पता लगी तो पुलिस अधिकारियों ने फैक्ट्री मालिकों से कहा कि वे किराए पर बस लेकर प्रशासन से इजाजत के बाद मजदूरों को उनके गांव छुड़वा दें, लेकिन कोई मालिक इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अब वे चुपचाप मजदूरों को ठेकेदारों के जरिए मेन रोड तक छुड़वा रहे हैं। इसलिए पुलिस ठेकेदारों के खिलाफ कार्रवाई की धमकी दे रही है। थाना प्रभारी ने बताया कि ऐसे दो ठेकेदारों की पहचान की गई है,जिनके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया जाएगा।

ये ठेकेदार ही मजदूरों को बिहार, झारखंड जैसे दूरदराज के इलाकों से काम दिलाने के बहाने यहां लाते हैं और यहां रहने खाने के भी इंतजाम करते हैं। ऐसे ही कुछ मजदूर जब वहां पहुंचे तो पुलिस अधिकारियों ने ठेकेदार का नाम पूछा, लेकिन मजदूर बताने के लिए तैयार नहीं हुए। काफी समझाने और धमकाने के बाद भी मजदूरों ने नाम नहीं बताया तो पुलिस अधिकारियों ने उन्हें बसों के जरिए भेजने से इंकार कर दिया। दरअसल, इन मजदूरों के सामने दो विपदा थी, एक तो फैक्ट्री से मेन रोड तक छोड़ने के कारण ठेकेदार का अहसान और दूसरी यह चिंता कि कुछ समय बाद लौट कर नौकरी करनी पड़ी तो ठेकेदार काम नहीं देगा। या कुछ और ही बात होगी। मैंने देखा कि ये मजदूर वहां से तो चले गए,लेकिन आगे जाकर कहीं छिप गए। शायद वे अब रात होने का इंतजार कर रहे थे, ताकि पुलिस की नजर बचाकर वहां से आगे बढ़ जाएं।

शाम छह बजे तक लगभग सभी मजदूर रवाना हो चुके थे, जैसे ही पुलिस टीम वहां से हटने लगी तो तभी गुजरात से आ रहे तीन मजदूर वहां पहुंच गए। पुलिस ने वहां से जाते एक ट्रक को रुकवाया और मजदूरों को उसमें बिठा दिया। मैं भी आगे बढ़ गया और गढ़मुक्तेश्वर पहुंचा। वहां भी लोगों के खाने के लिए पास ही के गांव केलोगों की ओर से इंतजाम किया गया। मैं वहां से ब्रजघाट पहुंच गया।

ब्रजघाट में अलग ही दृश्य देखने को मिला। यहां पूरी तरह से बेरिकेडिंग करके केवल एक छोटा सा रास्ता खुला छोड़ा गया था, जो गढ़गंगा के ऊपर से गुजरता है। शायद यहां पर पुलिस के पास कोई नई गाइडलाइन पहुंच चुकी थी, इसीलिए उन्होंने गढ़गंगा के ऊपर से जाने वाला रास्ता पूरी तरह बंद से कर दिया था। जहां से न तो कोई पैदल जा सकता था और ना ही कोई खुले वाहन जैसे ट्रक, डीसीएम में और ना ही कोई साइकिल या रिक्शा से आगे बढ़ सकता था।

उन्हें यह कह कर वहां रोक दिया गया कि यहां से उन्हें आगे बसों से ले जाया जाएगा, लेकिन ब्रजघाट पर उनके ठहरने का कोई इंतजाम नहीं था। लगभग 24 मजदूरों का एक समूह भी वहां बैठा था, जो एक डीसीएस में बैठकर चंड़ीगढ़ से यहां पहुंचे थे, लेकिन उन्हें आगे जाने से रोक दिया गया तो डीसीएम ड्राइवर उन्हें छोड़कर निकल लिया। इन लोगों ने 24 हजार रुपए देकर डीसीएम बुक किया था, किसी ने अपनी कमाई के हिस्से में से यह पैसे जुटाए थे तो किसी ने उधार लेकर , लेकिन अभी वे आधे रास्ते ही पहुंच पाए थे कि पुलिस की रुकावट के चलते उन्हें वहीं रुकना पड़ा, जबकि डीसीएम चालक पूरा पैसा लेकर निकल गया। इस तरह इन मजदूरों के ये पैसे भी डूब गए।

सब लोगों के एक खुले मैदान में बिठा दिया गया। जहां नीचे कंक्रीट था, लेकिन ऊपर कुछ नहीं था। कुछ दूरी पर एक मां अपने बच्चे के लिए ईंट से बनाए चूल्हे पर दूध गर्म कर रही थी। दरअसल, पैदल चलते और नियमित खाना न मिलने के कारण मां अपने डेढ़ माह के बच्चे को अपना दूध नहीं पिला पा रही थी। स्तनों मे दूध बन ही नहीं रहा था, इसलिए वहां रुके लोगों ने किसी तरह पास के इलाके से थोड़ा दूध का इंतजाम किया था, जिसे मां ईंट से बने चूल्हे  पर गर्म कर रही थी।

मझसे यह दृश्य देखा नहीं गया तो कुछ युवकों की ओर बढ़ गया। जिन्हें अमेठी जाना था। इनमें से एक दिल्ली के नरेला इलाके में पलंबर का काम करता है। उसके पास एक भी रुपया नहीं है और ना ही उसके पास खाने को कुछ है। ब्रजघाट में पुलिस ने कोई इंतजाम भी नहीं किया है। मैंने उसे ढांढस बंधाया और अपने बैग में रखे बिस्कुट और पानी दिया और कुछ पैसे भी पकड़ा दिए। तब जाकर उसकी परेशानी कम हुई तो हम लोग वहीं बिछा कर लेट गए। दिन भर की थकान के कारण मैं भी सो गया।

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