ग्राउंड रिपोर्ट, सरकारी राशन का सच: बेस्वाद चावल से पेट भर रहे हैं आदिवासी

सरकारी राशन में केवल चावल मिलता है, नमक मिलना बंद हो गया है। परिवारों की हालत ऐसी है कि केवल चावल उबाल कर ही खा रहे हैं

By Raju Sajwan

On: Tuesday 27 December 2022
 
झारखंड के एक आदिवासी क्षेत्र में सरकारी राशन में मिला बेस्वाद चावल खाती एक बच्ची। फोटो: विकास चौधरी

पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि झारखंड की राजधानी रांची से लगभग लगभग दो सौ किलोमीटर दूर आदिवासी गांव सरहुआ के कई परिवारों को सालों से सरकारी राशन नहीं मिल रहा है। आज पढ़ें, आदिम जनजाति के एक टोले का आंखों देखा हाल-

सरहुआ से लगभग 80 किलोमीटर दूर पलामू जिले के मनातू प्रखंड के धूमखाड़ टोला में परहिया जनजाति के आठ परिवार रह रहे हैं। परहिया झारखण्ड की एक लघु जनजाति है। इसकी गणना यहां की आठ आदिम जनजातियों में होती है। इस जनजाति के ज्यादातर परिवार अलग-अलग टोलों में पलामू की पहाड़ियों में रहते हैं।

झारखंड सरकार के संस्कृति निदेशालय की वेबसाइट के मुताबिक परहिया जनजाति के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। डाल्टन ने इन्हें किसी महान जनजाति का अवशेष माना है जो मूल रूप में घुमक्कड़ जाति थी। ये सादरी-मगही मिश्रित हिन्दी बोलते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि परहिया नाम पठार से बना।

राज्य की अन्य जनजाति की तरह परहिया को भी विशेष पिछड़ी जनजाति समूह (पीवीटीजी) में शामिल किया गया है और इस जनजाति के परिवारों को जहां भी वे रह रहे हैं, पैकेटबंद राशन पहुंचाया जा रहा है।

डाल्टनगंज से चतरा की ओर जाने वाले मेन रोड से लगभग 15 किलोमीटर दूर जंगल के बीच कच्चे-पथरीले रास्ते पर बसे धूमखाड़ टोले में जब डाउन टू अर्थ की टीम पहुंची तो वहां केवल महिलाएं और बच्चे थे। कच्चे घर के बाहर खड़ी रंभा देवी बताती हैं कि उनके दो बच्चे हैं। पति अमरेश परहिया राजस्थान में कमाने गए हैं।

उनके पास खेती की जमीन नहीं हैं, आसपास की कुछ खाली पड़ी जमीन पर वे लोग सालों से खेती कर रहे हैं। दिसंबर की सर्दी में भी बच्चे फटे कपड़े पहने हुए थे। कच्चे-छपरैल के बने घर उन्हें सर्दी से कितना बचाते होंगे, ये तो वही जानते हैं।  

फोटो: विकास चौधरी

जब उनसे पूछा गया कि क्या उनके पास राशन कार्ड है, जवाब ‘हां’ में मिला, लेकिन जब उनसे राशन कार्ड दिखाने को कहा गया तो उनका जवाब था कि “डिलीट” हो गया है, ठीक कराने के लिए ले गए हैं। वह भी अनार देवी की तरह डिलीट का मलतब नहीं जानती हैं, लेकिन उन्हें राशन जरूर मिल गया है।

राशन में केवल चावल मिलता है। पहले नमक भी मिलता था, कई महीनों से नमक मिलना बंद हो गया। खुले आंगन में खाना खा रही एक छह-सात साल की बच्ची की थाली में चावल खाते देखकर डाउन टू अर्थ संवाददाता ने स्वाद जानना चाहा।

संवाददाता ने बच्ची ने थोड़ा से चावल मांगे तो उसने झट से इनकार कर दिया और थाली अपनी ओर खींच ली। लेकिन जब संवाददाता ने थोड़े से चावल उठा लिए तो वह इनकार नहीं कर पाई। 

जैसे ही संवाददाता ने चावल के कुछ दाने अपने मुंह में डाले तो यह सोचने लगा कि आखिर कैसे ये बेस्वाद चावल यह बच्ची कहा रही होगी? उबले चावल में हल्का सा नमक भर था। और बच्ची उन्हें बड़ी तन्मयता से खा रही थी। शायद यही वजह थी कि टोले के लगभग सभी बच्चे कुपोषित नजर आ रहे थे। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के मुताबिक झारखंड में पांच साल से कम उम्र के कुल बच्चों में से 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं और उनमें से अति कुपोषित बच्चों की संख्या 9.1 प्रतिशत है।

फोटो: विकास चौधरी

एक स्वयंसेवी संगठन की ओर से प्रखंड के आदिम जनजाति परिवारों पर सर्वे कर चुके नरेश कुमार बताते हैं कि धूमखाड़ टोला से दो परिवारों को राशन कार्ड रद्द हो गया था। पुराने राशन कार्ड की आनलाइन प्रति निकाल कर अधिकारियों से कह कर इन लोगों का राशन दिलवाया जा रहा है, लेकिन पूरे मनातू प्रखंड में राशन कार्ड रद्द होने की शिकायतें आ रही हैं।

लोग अधिकारियों से बात करते हैं तो कह दिया जाता है कि रद्द होने का कारण उन्हें नहीं पता। नरेश बताते हैं कि कई परिवारों को राशन मिलना बंद हो गया है। ये परिवार भूमि हीन हैं। कमाई को कोई भी जरिया नहीं है। इसलिए आदिम जनजातियों के ज्यादातर टोलों में केवल बुजुर्ग, महिलाएं व बच्चे ही देखने को मिलते हैं।

ज्यादातर जवान लोग पलायन कर चुके हैं। ये लोग महीने-दो महीने में कुछ पैसे ट्रांसफर करते हैं, तब जाकर यहां रह रहे उनके परिवारों का गुजारा चलता है।

भूमिहीन होने के कारण ये लोग खेती भी नहीं कर पाते। कुछ परिवार अपने आसपास की खाली पड़ी जमीन पर खेती कर रहे हैं, लेकिन वहां से भी गुजारे लायक अन्न नहीं हो पाता।

परहिया जनजाति के लोगों के भी नए राशन कार्ड नहीं बन पा रहे हैं। मानती देवी कहती हैं कि उनके बेटे के नाम का कार्ड नहीं बना। जबकि उनके बेटे की शादी हो चुकी है। बेटा तो कमाने शहर चला गया, लेकिन उसके बच्चे हमें मिल रहे राशन पर पल रहे हैं।

मनाती देवी। फोटो: विकास चौधरी

इस टोले के आसपास खाली जमीन पर कुछ खेती हो रही है, लेकिन यह इलाका भी सूखे से नहीं बच पाया। मानती बताती हैं कि थोड़ा बहुत मक्का लगाया था, लेकिन सब खेत में ही सूख गया। अब चना लगाया है, पता नहीं कितना होगा?

आंकड़े बताते हैं कि झारखंड में 2013 से लेकर लेकर 2021 के बीच 10,21,712 राशन कार्ड रद्द किए गए हैं। हालांकि राशन कार्ड रद्द करने के तीन कारण बताती है। एक- लोगों की आमदनी बढ़ने के कारण वे राशन कार्ड के पात्र नहीं रहे। दूसरा- लोगों ने दो-दो राशन कार्ड बनाए हुए हैं। तीसरा- लोगों ने फर्जी राशन बार्ड बनाया हुआ है।

लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि राजनीतिक दबाव के कारण अधिकारी नए लोगों का राशन कार्ड बनाने के लिए पुराने राशन कार्ड रद्द कर देते हैं। इसमें यह नहीं देखा जाता कि कौन राशन कार्ड का पात्र है और कौन नहीं?

पढ़ें, अगली कड़ी - ग्रांउड रिपोर्ट, सरकारी राशन का सच: कार्ड न होने के कारण अनाज ही नहीं, इलाज से भी वंचित हैं लोग

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