दूध के साथ एंटीबायोटिक पीता है इंडिया?

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ने अपने अध्ययन में पाया है कि जब कोई डेरी किसान अपने मवेशियों को एंटीबायोटिक देता है तो प्रबल आशंका होती है कि वह दूध के माध्यम से मनुष्यों के शरीर में पहुंच जाए

By Rajeshwari Sinha, Amit Khurana, Divya Khatter

On: Friday 31 July 2020
 

डेरी में पशुओं को एंटीबायोटिक देना आम है। बहुत बार दूध उन बीमार पशुओं से प्राप्त होता है जिन्हें एंटीबायोटिक की भारी खुराक दी जाती हैहरियाणा के फतेहाबाद जिले में रहने वाले डेरी किसान खैरातीलाल चोकरा अपनी गाय या भैंसों के बीमार पड़ने पर उन्हें एंटीबायोटिक की तगड़ी खुराक देते हैं। एक सिलसिला हफ्ते में दो या तीन जारी रहता है। उत्तर प्रदेश के झांसी में रहने वाले अन्य डेरी किसान सौरभ श्रीवास्तव भी अपने पशुओं को लगातार तीन दिन तक एंटीबायोटिक का इंजेक्शन लगाते हैं। संक्रमण से पशुओं के स्तन ग्रंथि में आई सूजन को दूर करने के लिए वह ऐसा करते हैं। एंटीबायोटिक देने के बाद दूध का रंग बदल जाता है और उससे अजीब सी दुर्गंध आने लगती है। श्रीवास्तव बताते हैं, “दूध का रंग ऐसा हो जाता है जैसे उसमें खून मिल गया हो।” चूंकि दूध बेचकर ही उनका जीवनयापन होता है, इसलिए पशुओं को स्वस्थ रखना उनके लिए बहुत जरूरी होता है। चोकरा के पास 20 गाय व भैंस है, जबकि श्रीवास्तव के पास कुल 92 गाय व भैंस हैं। ये पशु ही उनके जीवन का आधार हैं।

भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने 2018 में देशभर के संगठित और असंगठित क्षेत्र के दूध के नमूनों की जांच की थी। जांचे गए 77 नमूनों में एंटीबायोटिक के अवशेष स्वीकार्य सीमा से अधिक पाए गए थे। लेकिन खाद्य नियामक ने यह नहीं बताया कि ये कौन से एंटीबायोटिक थे या किस ब्रांड के थे। दिल्ली स्थित गैर लाभकारी संगठन सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने इस संबंध में सूचना के अधिकार के तहत आवेदन किया, लेकिन लगातार फॉलोअप और अपील के बाद भी स्पष्ट जानकारी नहीं मिली। एंटीबायोटिक के दुरुपयोग और दूध में इसकी मौजूदगी के कारणों का पता लगाने के लिए सीएसई ने प्रमुख दूध उत्पादक राज्यों-पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और तमिलनाडु के किसानों समेत तमाम हितधारकों से बात की।

बीमारी का बोझ

किसान सबसे अधिक परेशान थनैला रोग से होते हैं। पशुओं को होने वाला यह सामान्य रोग है। गलत कृषि पद्धति और दूध दुहने में साफ-सफाई की कमी के कारण पशुओं को यह रोग हो जाता है। अगर कोई पशु दूध दुहने के बाद गंदी जगह बैठ जाता है तो सूक्ष्मजीव थनों के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर पशु को बीमार कर देते हैं। दूध दुहने वाला अगर साफ-सफाई से समझौता कर ले या दूध दुहने में गंदे उपकरणों का इस्तेमाल करे, तब भी थनैला रोग हो सकता है। यह बीमारी विदेशी नस्ल के दूधारू पशुओं और क्रॉसब्रीड पशुओं में बहुत सामान्य होती है।

किसान अस्पतालों के चक्कर काटकर समय बर्बाद नहीं करना चाहते, इसलिए आमतौर पर इस बीमारी का इलाज खुद ही करते हैं। कर्नाटक में कौशिक डेरी फार्म के संचालक पृथ्वी कहते हैं, “अधिकांश मौकों पर सरकारी चिकित्सक उपलब्ध नहीं होते। कंपाउंडर फार्म में आते हैं लेकिन उन्हें बीमारी या उपचार की बहुत कम जानकारी होती है।” वह अन्य किसानों से वाट्सऐप के माध्यम से समस्या पर चर्चा करते हैं और चिकित्सक से फोन पर ही बात कर लेते हैं। निजी चिकित्सकों की फीस भी बहुत ज्यादा होती है। इसके अलावा दवाएं बिना चिकित्सक के परामर्श पर आसानी से मिल जाती हैं।

सीएसई ने जिन किसानों से बात की उनमें से अधिकांश को विदड्रोल पीरियड की जानकारी नहीं थी। यह एंटीबायोटिक के अंतिम इस्तेमाल और दूध बेचने से पहले की अवधि होती है

पशुपालन विभाग (डीएडीएच) का किसान मैन्युअल पशुओं के लिए केवल पेनिसिलिन, जेंटामाइसिन, स्ट्रेप्टोमाइसिन और एनरोफ्लोसेसिन के इस्तेमाल की सुझाव देता है। हालांकि श्रीवास्तव सेफ्टीओफर, अमोक्सीसिलिन, क्लोक्सासिलिन और सेफ्ट्रीएक्सोन-सलबैक्टम का इस्तेमाल करते हैं। उनकी तरह चोकरा भी सेफ्टीजोजाइन या सेफ्ट्रीएक्सोन-टेकोबैक्टम का प्रयोग करते हैं। ये एंटीबायोटिक पशुओं की मांसपेशियों या नसों से उनके शरीर में पहुंचाई जाती हैं। कई बार पशुओं की स्तनग्रंथि में यह इंजेक्शन के जरिए सीधे पहुंचा दी जाती है।

करनाल स्थित नेशनल डेरी रिसर्च इंस्टीट्यूट में वेटरिनरी अधिकारी जितेंदर पुंढीर बताते हैं, “ कौन-सी एंटीबायोटिक कितनी मात्रा में दी जानी चाहिए, किसान यह जाने बिना इंजेक्शन लगा देते हैं। नतीजतन, वे या तो पशुओं को एंटीबायोटिक की कम खुराक देते हैं या अधिक।” बहुत से चिकित्सक भी रोग के कारणों को पता लगाए बिना दवाएं देते हैं। वह आगे कहते हैं, “अगर एंटीबायोटिक अप्रभावी है तो उसे बदला जा सकता है।”हरियाणा के सिरसा में स्थित फरवाई कलां गांव के संदीप कुमार के पास पांच डेरी पशु हैं। वह बताते हैं, “जब किसी पशु को थनैला रोग हो जाता है तो उसका पूरी तरह ठीक होना मुश्किल होता है। उसे लगातार संक्रमण होता रहता है।” कुछ बड़े किसान थनैला बीमारी की रोकथाम के लिए “ड्राई काऊ थेरेपी” का अभ्यास करते हैं। जब कोई पशु दूध नहीं देता, तब बीमारी की रोकथाम के लिए उसकी स्तनग्रंथि में लंबे समय तक असर डालने वाली एंटीबायोटिक डाली जाती है। सोनीपत में रहने वाले डेरी किसान नरेश जैन बताते हैं कि उनके फार्म का हर पशु नियमित रूप से इस प्रक्रिया से गुजरता है।

डेरी पशु बैक्टीरिया से होने वाले रोगों जैसे हेमोरहेजिक सेप्टीसेमिया, ब्लैक क्वार्टर, ब्रूसेलोसिस और मुंह व खुरों के वायरल रोग के संपर्क में आते हैं। सरकार इन रोगों से बचाव के लिए टीके लगाती है लेकिन किसानों की उसमें दिलचस्पी नहीं होती। श्रीवास्तव कहते हैं कि मुझे मुफ्त सरकारी टीकों से अधिक निजी टीकों पर भरोसा है। थनैला रोग का कोई टीका नहीं है। 100 से अधिक सूक्ष्मजीव इस बीमारी का कारण बनते हैं, इसलिए इसका टीका बनाने में मुश्किलें आ रही हैं। हालांकि राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड थनैला रोग को नियंत्रित करने की परियोजना चला रहा है। किसान जब एंटीबायोटिक का जरूरत से अधिक प्रयोग करते हैं तो जिस दूध को हम स्वास्थ्य के लिए लाभदायक मानकर पीते हैं, वह हानिकारण हो जाता है।

दूध की हकीकत

भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है। 2018-19 में यहां 187.7 मिलियन टन दूध का उत्पादन किया गया। भारत का शहरी क्षेत्र 52 प्रतिशत दूध का उपभोग करता और शेष उपभोग ग्रामीण क्षेत्र के हिस्से आता है। शहरी क्षेत्रों में असंगठित क्षेत्र (दूधिया और ठेकेदार) से 60 प्रतिशत दूध की आपूर्ति होती है। यह दूध क्या वास्तव में अच्छा है?

बहुत बार यह दूध उन बीमार पशुओं से प्राप्त होता है जिन्हें एंटीबायोटिक की भारी खुराक दी जाती है। सीएसई ने जिन किसानों से बात उनमें से अधिकांश को विदड्रोल पीरियड की जानकारी नहीं थी। यह एंटीबायोटिक के अंतिम इस्तेमाल और दूध बेचने से पहले की अवधि होती है। किसानों को इस अवधि में दूध कभी नहीं बेचना चाहिए क्योंकि इस दौरान दूध में एंटीबायोटिक के अंश मिल जाने का खतरा बना रहता है।

हरियाणा के फरीदाबाद जिले में स्थित बादौली गांव में 12 मुर्रा भैसों को पालने वाले सुभाष बताते हैं, “मैं एंटीबायोटिक के प्रयोग के दौरान भी दूध बेचता हूं।” नोएडा में डेरी चलाने वाले जितेंदर यादव कहते हैं कि 7-15 दिन के विदड्रोल पीरियड और उपचार के दौरान अगर किसान दूध नहीं बेचेंगे तो उनकी जिंदगी कैसे चलेगी। धौलपुर में रहने वाले मोहन त्यागी मानते हैं कि वह राज्य के कॉऑपरेटिव ब्रांड पराग को दूध बेचते हैं। अर्जुन भी पशुओं के इलाज के दौरान दूध निकालते हैं। उन्होंने राजस्थान के कोऑपरिटव ब्रांड सरस को दूध बेचा है। हालांकि सरस ने उन्हें ऐसा करने से मना किया है।

विदड्रोल पीरियड के दौरान निकाला गया दूध पीने का नतीजा एंटीबायोटिक रजिस्टेंस के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि एंटीबायोटिक आंतों के बैक्टीरिया पर चयन का दबाव बढ़ाते हैं। अध्ययन बताते हैं उबालकर या पाश्चुरीकरण के द्वारा एंटीबायोटिक को पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता। वर्ष 2019 में बांग्लादेश एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के शोध में पाया गया है कि दूध को 20 मिनट तक 100 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर उबालकर भी एमोक्सीसिलिन, ऑक्सीटेट्रासिलिन और सिप्रोफ्लोसेसिन के स्तर में परिवर्तन नहीं होता। वेस्ट बंगाल यूनिवर्सिटी ऑफ एनिमल एंड फिशरीज साइंस इन इंडिया के अध्ययन में भी पाया गया है कि पाश्चुरीकरण से दूध में मौजूद क्लोसासिलिन के अवशेषों पर असर नहीं होता।

कंपनियों की जांच

सीएसई ने इस सिलसिले में दूध कोऑपरेटिव संघों से भी बात की और पाया कि अधिकांश डेरी कोऑपरेटिव कभी-कभी ही दूध में एंटीबायोटिक की जांच करते हैं। उपभोक्ताओं को पैकेटबंद और फुटकर दूध की 80 प्रतिशत आपूर्ति कोऑपरेटिव के माध्यम से होती है। इन कोऑपरेटिव में थ्रीटियर व्यवस्था काम करती है। गांवों में डेरी कोऑपरेटिव सोसायटी होती हैं, जिला स्तर पर दूध यूनियन होती हैं और अंत में सर्वोच्च इकाई के रूप में राज्य स्तरीय दूध महासंघ होते हैं। किसानों से डेरी कोऑपरेटिव सोसायटी के माध्यम से दूध लिया जाता है और उसे बड़े-बड़े कूलरों में इकट्ठा किया जाता है। फिर इसे टैंकरों में भरकर जिला स्तरीय प्रोसेसिंग प्लांट में भेजा जाता है।

अब तक दूध महासंघों का ध्यान दूध से यूरिया, स्टार्च और डिटर्जेंट हटाने पर ही केंद्रित रहा है। एंटीबायोटिक की मौजूदगी पता लगाना उनकी प्राथमिकता में शामिल नहीं है। पराग में क्वालिटी एश्योरेंस की इंचार्ज शबनम चोपड़ा ने ईमेल के जवाब में बताया कि कंपनी में अब तक एंटीबायोटिक की मौजूदगी का कोई मामला सामने नहीं आया है। ईमेल के जवाब में वह लिखती हैं, “हमने प्रमुख डेरी प्रयोगशालाओं को अपग्रेड किया है। इनको एंटीबायोटिक जांच किट उपलब्ध कराई गई हैं। यहां आने वाले दूध की रूटवार जांच की जाती है। हर छह महीने में हम अपने दूध और उससे बने उत्पादों की जांच करते हैं। यह जांच पोषण मूल्यों, जीवाणुओं, एंटीबायोटिक के अवशेष और पशु दवा के अवशेषों का पता लगाने के लिए होती है।”

नंदिनी दूध ब्रांड तैयार करने वाले कर्नाटक दूध महासंघ के अडिशनल डायरेक्टर तिरुपथप्पा ने सीएसई को बताया, “छह महीने में एक बार दूध में एंटीबायोटिक की जांच की जाती है। यह जांच एनएबीएल से अधिकृत प्रयोगशाला में आईएसओ मानकों के मुताबिक होती है।” राजस्थान में सरस, पंजाब में वेरका और हरियाणा में वीटा दूध बेचने वाले महासंघ के अधिकारियों ने भी ऐसी ही जांच की बात की। ग्वालियर सहकारी दुग्ध संघ के एक प्रतिनिधि ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया, “जगह-जगह से लाए गए दूध में एंटीबायोटिक की जांच हमारे पास मौजूद प्रयोगशालाओं से संभव नहीं है।” यह संघ मध्य प्रदेश राज्य कोऑपरेटिव डेरी महासंघ से संबद्ध है जो सांची नामक दूध का ब्रांड बेचता है। वह बताते हैं, “जांच के लिए प्रयोगशालाओं से प्रमाणित अत्यंत आधुनिक उपकरणों की जरूरत है।”

हालांकि कुछ कोऑपरेटिव ने माना कि वे नियमित जांच करते हैं। उदाहरण के लिए देशभर में सबसे लोकप्रिय अमूल दूध बेचने वाले गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड को ही लीजिए। अमूल में क्वालिटी एश्योरेंस के वरिष्ठ प्रबंधक समीर सक्सेना ने कहा, “सभी टैंकरों में आने वाले दूध में एंटीबायोटिक के अंश पता लगाने के लिए प्रतिदिन जांच की जाती है। हालांकि एफएसएसएआई इतनी जांच का सुझाव नहीं देता। रोजाना लगभग 700 नमूनों की जांच की जाती है।” अमूल प्रतिदिन करीब 23 मिलियन टन दूध जुटाता है। वह बताते हैं, “विभिन्न सोसायटी द्वारा इकट्ठा और टैंकरों के माध्यम से भेजे गए दूध के सैंपलों में एंटीबायोटिक नहीं पाया गया है।” हालांकि, जब सीएसई ने अमूल से परीक्षण रिपोर्ट साझा करने के लिए कहा तो कंपनी ने कोई जवाब नहीं दिया।

मालाबार क्षेत्रीय सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ (एमारसीएमपीयू ), जो केरल सहकारी दुग्ध विपणन महासंघ के तहत काम करता है, का दावा है कि वे तीन स्तरों पर परीक्षण करते हैं। टैंकर के नमूनों की दैनिक जांच के अलावा हर दो महीने में किसानों की व्यक्तिगत एवं सामुदायिक जांच की जाती है ताकि समस्या के मूल कारणों का पता लगाया जा सके। यह पूछे जाने पर कि परीक्षण किए गए नमूनों में एंटीबायोटिक्स का पता लगने पर क्या किया जाता है, एमारसीएमपीयू के वरिष्ठ प्रबंधक जेम्स केसी ने कहा, “हमारे पास किसान का पता लगाने के लिए एक ट्रेसबिलिटी तंत्र है।”

सांची में संयंत्र संचालन प्रभाग के एक अधिकारी का कहना है, “गांवों में हमारे कार्यकर्ता प्रदूषण के संभावित स्रोत से वाकिफ होते हैं। दोषी पाए जाने पर किसान को चेतावनी दी जाती है। यदि वह गलती दोहराता है, तो उसे पंजीकृत किसानों की सूची से हटा दिया जाता है।” इससे यह साफ जाहिर होता है कि परीक्षण केवल तभी किए जाते हैं जब संदेह उत्पन्न होता है।

सीएसई ने अन्य प्रमुख ब्रांडों जैसे मदर डेरी के अलावा नेस्ले और गोपालजी जैसे निजी ब्रांडों से भी इस विषय में जानकारी ली। नेस्ले ने दावा किया कि उनके द्वारा प्रोसेस करके बेचे गए दूध का परीक्षण सरकारी मान्यता प्राप्त प्रयोगशालाओं में गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों तरीकों से किया जाता है। जब कंपनी से लैब परीक्षण रिपोर्ट दिखाने का अनुरोध किया गया, तो कंपनी के प्रतिनिधि ने कहा कि वह रिपोर्ट साझा नहीं करते। मदर डेरी और गोपालजी ने तो इस पर कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी। एफएसएसएआई ने हाल ही में एंटीबायोटिक का पता लगाने और डेरी प्रसंस्करण के लिए दूध के परीक्षण और निरीक्षण (स्कीम ऑफ टेस्टिंग एंड इंस्फेक्शन यानी एसटीआई) की तीन किटों को मंजूरी दी है। एसटीआई के अनुसार, एंटीबायोटिक्स और पशु चिकित्सा दवाओं के अवशेषों की निगरानी दो निरीक्षण बिंदुओं पर की जाएगी। लेकिन निरीक्षण की आवृत्ति त्रैमासिक है, जिसके कारण इसका कोई खास फायदा नहीं मिल पाता।

बड़े पैमाने पर दुरुपयोग

अज्ञानी डेरी फार्म वाले इंसानों के लिए आवश्यक एंटीबायोटिकों का इंजेक्शन पशुओं को बिना कुछ सोचे विचारे लगाते जा रहे हैं



* डिपार्टमेंट ऑफ ऐनिमल हज़्बन्ड्री के फार्मर मैनुअल ने मैस्टाइटीस के उपचार के लिए इसकी सिफारिश की है। एंथ्रेक्स और ब्लैक क्वार्टर के उपचार के लिए पेनिसिलिन और गायों के तपेदिक के लिए स्ट्रेप्टोमाइसिन
सेफटीओफर एवं एनरोफलोक्सासीन का पशुओं के इलाज में इस्तेमाल होता है जिसके फलस्वरूप इसी श्रेणी की अन्य दवाइयों, जो मानवों के लिए अति महत्वपूर्ण हैं, के प्रति जीवाणुओं में प्रतिरोध विकसित हो सकता है

हम पर असर

भारतीय डेरी क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमारे पास पशुधन रोगों के लिए कोई मानक उपचार दिशानिर्देश नहीं हैं। अतः पशु चिकित्सक किसी एक मानक दस्तावेज को आधार मानकर एंटीबायोटिक्स नहीं लिख सकते। किसान अपने पशुओं पर उन एंटीबायोटिक दवाओं का अंधाधुंध उपयोग करते हैं जो मनुष्यों के लिए भी जरूरी हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार गैर-मानव स्रोतों से होने वाले बैक्टीरिया जनित मानव संक्रमण के इलाज के लिए कुछ खास उपचार हैं, क्रिटिकली इम्पॉर्टेन्ट एंटीमाइक्रोबियल्स (सीआईएए ) जिनमें से एक हैं। इनमें से कुछ को हाईएस्ट प्रायोरिटी क्रिटिकली इम्पॉर्टेन्ट एंटीमाइक्रोबियल (एचपीसीआइए) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भारत में तीसरी पीढ़ी के सेफलोस्पोरिन के विरुद्ध जीवाणु प्रतिरोध पहले से ही उच्च है, उदाहरण के लिए एस्चेरिचिया कोलाई और क्लेबसेला निमोनिया 75 प्रतिशत से अधिक प्रतिरोध दिखा रहे हैं । ये दोनों बैक्टीरिया कई आम संक्रमणों के लिए जिम्मेदार हैं।

नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल के नेशनल एएमआर सर्विलांस नेटवर्क द्वारा 2018 में एकत्रित आंकड़ों के मुताबिक, ई कोलाई में एम्पीसिलीन के विरुद्ध 86 से 93 प्रतिशत और सेफोटैक्सिम के विरुद्ध 82 से 87 प्रतिशत का प्रतिरोध दिखाया गया है। इसी तरह, के. निमोनिया में सेफोटैक्सिम के विरुद्ध प्रतिरोध 81 से 89 प्रतिशत था। 2019 में साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक अध्ययन में मध्य प्रदेश के एक ग्रामीण क्षेत्र में एक और तीन साल के बीच के 125 बच्चों के एक समूह में कॉमेन्सल (सहजीवी) ई कोलाई के विरुद्ध उच्च स्तर के प्रतिरोध की सूचना मिली थी। एम्पीसिलिन के लिए सबसे अधिक प्रतिरोध देखा गया, जबकि प्रत्येक बच्चे में सेफलोस्पोरिन के विरुद्ध 90 प्रतिशत से अधिक प्रतिरोध देखा गया ।

हम लगातार वातावरण में एंटीबायोटिक दवाएं उत्सर्जित कर रहे हैं और यह चिंता का विषय है। जानवरों को दी जाने वाली एंटीबायोटिक दवाओं में से लगभग 70 प्रतिशत बिना पचे निकल जाती हैं। चूंकि गाय और भैंस के गोबर का उपयोग कृषि फार्मों में खाद के रूप में किया जाता है, इसलिए यह मिट्टी के जीवाणुओं को प्रतिरोधी और पर्यावरण को रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एंटीमाइक्रोबिअल रेजिस्टेंस) का भंडार बना सकता है। भोजन के अलावा डेरी पशुओं के कचरे के प्रत्यक्ष संपर्क में आने से भी मनुष्यों को दवा प्रतिरोधी संक्रमण हो सकता है। इसके अलावा, यह संक्रमण पर्यावरण के माध्यम से भी फैल सकता है।

समाधान

भारत में दूध देने वाले पशुओं की संख्या लगभग 30 करोड़ के बराबर है। जाहिर है कि सीआईए भी विशाल पैमाने पर उपयोग में लाए जाते हैं। एंटीबायोटिक प्रतिरोध के भारी बोझ को कम करने के लिए एचपीसीआइए के इस्तेमाल पर रोक लगाने और सीआईए के दुरुपयोग को कम करने के लिए विस्तृत एवं सुपरिभाषित रोडमैप की आवश्यकता है। डीएएचडी को एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग को कम करने के लिए मानक उपचार दिशानिर्देश विकसित करने चाहिए। पशु चिकित्सा विस्तार प्रणाली को भी मजबूत किए जाने की आवश्यकता है। डीएएचडी को अपने कार्यक्रमों के माध्यम से बीमारियों के लिए वैक्सीन कवरेज का विस्तार करना चाहिए। साथ ही किसानों के लिए जागरुकता अभियान चलाना चाहिए ताकि वे दूध बेचने से पहले “विदड्रोल पीरियड” का पालन करें। थनैला जैसे रोगों को रोकने के लिए अच्छे खेत प्रबंधन और स्वच्छता को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

अब समय आ चुका है जब एफएसएसएआई एंटीबायोटिक दवाओं जैसे एमोक्सिसिलिन, केफटरियाजोन और जेंटामाइसिन के लिए टोलेरेन्स लिमिट का निर्धारण करे। ये दवाइयां डेरी जानवरों के उपचार के लिए इस्तेमाल की जाती हैं किन्तु एफएसएसएआई द्वारा सूचीबद्ध नहीं है। बिना किसी टोलरेंस लिमिट वाले एंटीबायोटिक्स का उपयोग पशुओं पर करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। नियामक संस्था को राज्य के खाद्य और औषधि प्रशासन को दूध में मिलने वाले एंटीबायोटिक की निगरानी को मजबूत करने और आंकड़ों को सार्वजनिक करने में मदद करनी चाहिए। एफएसएसएआई को एसटीआई के मानकों के अनुरूप दूध के परीक्षण की आवृत्ति को बढ़ाने और इसके कार्यान्वयन में राज्यों की मदद करने की भी आवश्यकता है। केंद्रीय औषध मानक नियंत्रण संगठन को एंटीबायोटिक दवाओं की ओवर-द-काउंटर बिक्री को विनियमित करना चाहिए। राज्य स्तर के अधिकारियों के साथ मिलकर यह सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता है कि बिना डॉक्टर के पर्चे के एंटीबायोटिक की बिक्री न हो।

इसके अलावा इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च को प्रारंभिक रोग निदान के लिए कम लागत वाले डायग्नोस्टिक्स का भी विकास करना चाहिए और सभी स्तरों पर एंटीबायोटिक अवशेषों की निगरानी करनी चाहिए चाहे वे खेत, पशु चिकित्सा केंद्र या दूध संग्रह केंद्र हो। डेरी फार्म कचरे के साथ एएमआर के पर्यावरण प्रसार के लिंकेज को ध्यान में रखते हुए, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के साथ केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि डेरी फार्मों और गौशालाओं के पर्यावरण प्रबंधन के लिए बनाए गए इसके दिशानिर्देशों का पालन किया जाए।

आखिर क्या करें किसान

जीवाणु संक्रमण कम कैसे हो और एंटीबायोटिक के दुरुपयोग पर कैसे लगाम लगे
  • पशु शेड को साफ, सूखा रखें
  • पशु को दुहने के पहले और बाद उसके थनों को साफ करें
  • स्वच्छ उपकरणों का उपयोग करें एवं पशुओं को दुहने के लिए सही और स्वच्छ तरीकों का पालन करें
  • दूध देने के कम से कम 30 से 45 मिनट बाद पशु को बैठने से रोकें
  • क्रोनिक थनैला वाले पशुओं को सबसे अंत में दुहें
  • बीमार अथवा संक्रमित पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग रखें एवं उनके संपर्क में आए चारे को नष्ट कर दें
  • उपचार के लिए एथनोवेटेरिनरी दवाओं को प्रयोग में लाएं
  • नियमित रूप से पशुओं का टीकाकरण करें
  • एंटीबायोटिक का विवेकपूर्ण तरीके से उपयोग करें
  • शीघ्र रोग नियंत्रण के लिए अधिकारियों को सूचित करें

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