पर्यावरणीय मंजूरी के अभाव में खनन न कर पाने वाली कंपनियों को भी देना होगा 'डेड रेंट': उच्च न्यायालय

डेड रेंट एक खनन पट्टे के लिए देय वो न्यूनतम गारंटी राशि है, जिसका भुगतान खनन करने वाली कंपनी को करना होता है

By Susan Chacko, Lalit Maurya

On: Thursday 01 September 2022
 
गोवा में खनन के कारण तबाह क्षेत्र को देखती एक ग्रामीण; फोटो: विकिमीडिया कॉमन्स

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक रिट याचिका को खारिज करते हुए अपने फैसले में कहा है कि यदि भले ही कोई कंपनी पर्यावरणीय मंजूरी न मिलने के कारण खनन नहीं कर पाती तो भी वो 'डेड रेंट' का भुगतान करने के लिए जिम्मेवार है।  यह आदेश अदालत ने मैंगलोर मिनरल्स प्राइवेट लिमिटेड द्वारा 25 अगस्त, 2022 को दायर याचिका के जवाब में दिया है।

गौरतलब है कि 2013 से 2020 के लिए 'डेड रेंट' की मांग करने के कारण राज्य सरकार के खिलाफ याचिकाकर्ता ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। यहां आपकी जानकारी के लिए बता देने कि डेड रेंट एक खनन पट्टे के लिए देय वो न्यूनतम गारंटी राशि है, जिसका भुगतान खनन करने वाली कंपनी को करना होता है।

इस मामले में अदालत ने अपने आदेश में स्पष्ट कर दिया है कि, “एक पट्टेदार को खनन गतिविधियों को जारी रखने के लिए मंजूरी न मिल पाने की कमी के आधार पर 'डेड रेंट' के भुगतान से बचने की अनुमति नहीं दी जा सकती।“

मैंगलोर मिनरल्स प्राइवेट लिमिटेड को 2003 में आंध्रप्रदेश के नेल्लोर जिले में सिद्दावरम गांव में सिलिका रेत खनन के लिए 20 वर्षों का पट्टा दिया गया था। इस बारे में 14 सितंबर, 2006 को पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत एक अधिसूचना जारी की गई थी, जिसमें खनन कार्य शुरू होने से पहले गौण खनिजों का खनन करने वाले पट्टेदारों के लिए पर्यावरण मंजूरी प्राप्त करना अनिवार्य कर दिया था।

इस अधिसूचना के कारण, याचिकाकर्ता को 1 मई, 2013 के बाद से खनन कार्यों को रोकना पड़ा था और वो दोबारा पर्यावरण मंजूरी लेने के बाद ही से शुरू हो सका था। खनन कार्य बंद होने के बावजूद, याचिकाकर्ता ने कथित तौर पर 2017-18 तक के लिए डेड रेंट का भुगतान किया था, लेकिन 2018-19 से उसने डेड रेंट देना बंद कर दिया था।

अधिकारियों की सुस्ती के कारण नहीं हुई पर्यावरण मंजूरी देने में देरी

ऐसे में जब राज्य सरकार ने 2013 से 2020 के लिए डेड रेंट देने पर जोर दिया तो याचिकाकर्ता ने अदालत का दरवाजा खटखटाया था। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया है कि राज्य सरकार का यह कानून भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 300A का उल्लंघन करता है।

वहीं अपने जवाबी हलफनामे में राज्य खनन विभाग के अधिकारियों ने याचिकाकर्ता की इस दलील का खंडन किया है कि अधिकारियों की सुस्ती के कारण पर्यावरण मंजूरी देने में देरी हुई थी। साथ ही, प्रतिवादियों ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि उन्होंने याचिकाकर्ता को पट्टा दिए गए क्षेत्र में खनन गतिविधि को रोकने के लिए कभी नहीं कहा। हालांकि खनन कंपनी को पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) अधिसूचना के अनुसार आवश्यक दस्तावेज जमा करने के लिए कहा गया था।

इस मामले में पट्टेदार ने 19 दिसंबर, 2013 को एक पत्र लिखा था, जिसमें उसने राज्य सरकार को सूचित किया था कि उसने पर्यावरण मंजूरी के लिए आवेदन किया है और 1 मई 2013 से वो अस्थायी रूप से खनन गतिविधियों को बंद कर रहा है।

इस बारे में उत्तरदाताओं का तर्क है कि खनन गतिविधियों को बंद करना याचिकाकर्ता का खुद का निर्णय था। 'डेड रेंट'  का भुगतान करने की आवश्यकता न केवल पट्टे की शर्तों पर आधारित है, बल्कि खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 की धारा 9(ए)(1) के प्रावधानों में भी इसे स्पष्ट रूप से जोड़ा गया है।

दोनों पक्षों की दलील सुनने के बाद आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा है कि याचिकाकर्ता ने "पर्यावरण मंजूरी की आवश्यकता वाली अधिसूचना के दायरे को गलत समझा और लीज क्षेत्र में खनन गतिविधियों को स्वेच्छा से बंद कर दिया था। ऐसी परिस्थितियों में, याचिकाकर्ता के लिए भूमि में प्रवेश करने के साथ-साथ गौण खनिजों के खनन संबंधी दोनों अधिकारों में किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं थी। ऐसे में उसे डेड रेंट का भुगतान करना होगा।

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