खत्म होने के कगार पर है 15वीं शताब्दी में विकसित एक प्राचीन और वैज्ञानिक व्यवस्था

15वीं शताब्दी में विकसित खड़ीन को समाज और सरकार दोनों ने भुला दिया

On: Wednesday 11 November 2020
 
जमीनी ढलान से भागते पानी को रोकने वाली खड़ीनों को धोरा भी कहा जाता है। अक्सर पहाड़ी ढलानों के नीचे 100 से 300 मीटर लंबाई वाले ये बांध पानी रोककर नमी बनाते हैं। इसके फाटक या किनारों से अतिरिक्त पानी बह जाने दिया जाता है (फोटो: अनिल अग्रवाल / सीएसई )

पश्चिमी राजस्थान के पारंपरिक जल प्रबंधों की गुण-गाथा तब तक पूरी नहीं होगी जब तक हम खड़ीनों की चर्चा न कर लें। यह बहुत पुरानी और वैज्ञानिक व्यवस्था है। शुष्क क्षेत्र के वैज्ञानिकों का मानना है कि इनकी आज भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। खड़ीन या धोरा की तकनीक 15वीं सदी में जैसलमेर के पालीवाल ब्राह्मणों ने विकसित की थी। दरबार उन्हें जमीन देते थे और खड़ीनें विकसित करने को कहते थे। जमीन राजा की रहती थी और उपज का एक-चौथाई हिस्सा उन्हें जाता था। इस प्रकार पालीवालों ने पूरे जैसलमेर में खड़ीनें खड़ी कीं। आज भी करीब 500 छोटी-बड़ी खड़ीनें यहां हैं और इनसे 12,140 हेक्टेयर जमीन सिंचित होती है। पास के जोधपुर, बाड़मेर और बीकानेर जिले में भी खड़ीनेें हैं।

सिंचाई की यह विधि 4500 ईसा पूर्व के आसपास उर (मौजूदा ईरान) और बाद में मध्य-पूर्व में प्रयोग में लाई जाने वाली सिंचाई विधियों से बहुत ज्यादा मेल खाती है। नेगेव रेगिस्तान में भी ऐसी एक विधि 4,000 वर्ष पूर्व प्रयोग में लाई जाती थी और करीब 500 वर्ष पूर्व दक्षिण-पश्चिमी कोलोराडो में भी यही विधि अपनाई गई थी। खड़ीन बरसाती पानी को खेती वाली जमीन में रोकने और बाद में इस पानी से नम जमीन पर खेती करने वाली प्रणाली है। जैसलमेर के शुष्क इलाके में अधिकांश फसलों की पानी संबंधी जरूरतें सिर्फ मॉनसून की बरसात से पूरी नहीं होतीं। एक तो बरसात भी बहुत भरोसे की नहीं होती और जमीन भी रेत की ढूह और कंकरीली या चट्टानी है। इसलिए बरसात के सहारे बड़े पैमाने पर खेती कर पाना संभव नहीं है। पर ऐसी प्रतिकूल जलवायु में भी लोगों ने खड़ीनों के सहारे खेती का विकास किया है।

शुरुआती ब्रिटिश अधिकारियों के अनुसार, इस इलाके में सर्दियों वाली अर्थात रबी की फसल को सींचने की किसी भी कोशिश को दंडनीय अपराध माना जाता था। यह माना जाता था कि प्रकृति सबका पेट भरेगी और उसके कायदे-कानूनों से छेड़छाड़ करना गलत है।

माना जाता है कि यह खयाल सलीम सिंह नामक कुख्यात मंत्री ने पालीवाल ब्राह्मणों को तबाह करने के लिए प्रचारित कराया था। पालीवालों ने खड़ीनें खड़ी करने में अपनी काफी पूंजी लगा रखी थी। यहां बारहमासी सोते नहीं हैं, कुएं बहुत गहरे हैं और बरसात बहुत कम होती है। ऐसी जगह में भी जब आसपास पहाड़ियों हों और जमीन चट्टानी हो तो खड़ीनों से सिंचाई संभव बना दी गई थी। जब पालीवाल ब्राह्मणों को निकाल बाहर किया गया तब खड़ीनें भी उपेक्षित हो गईं। तब राजदरबार ने लोगों से खड़ीनें बनाने और उनकी देखभाल करने को कहा।

खड़ीन मिट्टी का एक बड़ा बांध है जो किसी ढलान वाली जमीन के नीचे बनाया जाता है जिससे ढलान पर गिरकर नीचे आने वाला पानी रुक सके। अक्सर यह 1.5 मीटर से 3.5 मीटर तक ऊंची होती है। यह ढलान वाली दिशा को खुला छोड़कर बाकी तीन दिशाओं को घेरती है। जमीन की बनावट के हिसाब से इनकी लंबाई 100 से 300 मीटर तक होती हैं। इससे घिरी जमीन की नमी ही नहीं बढ़ती, बरसाती पानी के प्रवाह पर अंकुश लगाने लगाने के चलते यह उपजाऊ मिट्टी के बहाव को भी रोकती है।

खड़ीनें ऐसी कंकरीली और चट्टानी जमीन को भी खेती लायक बना देती है जो आमतौर पर सिर्फ पशुओं की चराई के लिए ही प्रयोग होती है। पानी को निचले मैदानी इलाके में घेर दिया जाता है, जहां पानी की मात्रा के हिसाब से एक या दो फसलें ली जाती हैं। जब कम बरसात हो तो सिर्फ खरीफ की फसल ही ली जाती है। बरसात अच्छी हो तो रबी की फसल भी उसी जमीन पर उगा ली जाती है। यह प्रणाली सबसे शुष्क इलाके में भी किसानों को कम-से-कम एक फसल तो दे ही देती है।

खड़ीनें जमीन और आसपास की बनावट के हिसाब से बन सकती हैं। इन्हें कहीं भी खड़ी नहीं कर सकते। जमीन की बनावट के लिहाज से जहां दो चीजें- तीखी ढलान वाला चट्टानी आगोर और फसल उगा सकने वाली मिट्टी का निचला मैदान हो, वहां खड़ीन खड़ी की जा सकती है।

जिस जगह पर पानी आकर खड़ा होता है उसे खड़ीन और पानी रोकने वाले बांध को खड़ीन बांध कहते हैं। बरसात के चरित्र, आगोर की स्थिति और मिट्टी का हिसाब देखकर ही खड़ीन का आकार तय होता है। खड़ीन को कितना ऊंचा उठाना है, इसी हिसाब से इसका निचला हिस्सा बनाया जाता है। इन बांधों को तेजी से बहकर आते पानी के आगे टूटने न देने के हिसाब से भी बनाया जाता है। अतिरिक्त पानी को ऊपर से निकल जाने दिया जाता है। खड़ीन में सबसे गहराई वाली जगह पर फाटक भी बना दिया जाता है, जिससे यहां से जरूरत के अनुसार पानी निकाला भी जा सके। तेज बहाव वाले पानी को रोकने की क्षमता रेतीली मिट्टी में कम और अच्छी मिट्टी में ज्यादा होती है।

अगर जमीन एकदम शुष्क हो तो पानी के बहाव की रफ्तार वैसे भी कम हो जाती है। जब तेज बरसात हो तो ढलान पर पानी तूफानी रूप ले लेता है। ढलान और आगोर पर भी पानी के बहाव की रफ्तार निर्भर करती है। खड़ीन में जमा पानी रिसकर जमीन को तर करता है। खड़ीनों में ढलान से उतरने वाला 50 से 60 फीसदी पानी ही जमा हो पाता है। बाकी वाष्पीकरण, रिसाव वगैरह के माध्यम से गायब हो जाता है। खेती लायक पानी जमा करने के लिए खड़ीन और आगोर का आदर्श अनुपात 1 और 15 का होना चाहिए। अनुपात इससे ज्यादा हो तो और भी अच्छा। पुरानी खड़ीनों में अनेक ऐसी हैं जिनमें मात्र 76 से 101 मिमी. की बरसात से ही भरपूर पानी जमा हो जाता है।

मॉनसून की अनिश्चितता अन्न की पैदावार पर ज्यादा असर न डाले, इसी को ध्यान में रखते हुए जुलाई में पहली बरसात के तत्काल बाद बाजरा बो दिया जाता है। इसके बाद अगर 60-70 मिमी. भी बरसात हो गई तो यह बाजरा के लिए पर्याप्त होती है। जमीन की नमी को देखते हुए बाजरा, ज्वार या गुआर की फसल लगाई जाती है। इनके साथ ही मोठ, मूंग और तिल जैसी दलहन और तिलहन की फसलें भी लगा दी जाती हैं। खेतों में घिरा पानी पूरे मॉनसून भर जमा रहता है और उसके बाद रबी की फसल लगाई जाती है।

मरू प्रदेश में वर्षा कम तो होती है, पर कई बार यह बहुत कम समय में ही एकदम तूफानी रफ्तार से गिरती है। फिर ढलान पर पानी एकदम तेज रफ्तार से उतरता है। यह अनुमान है कि 100 हेक्टेयर तक के कई चट्टानी आगोरों से एक बरसात में 1,00,000 घन मीटर तक पानी जमा होकर नीचे आ सकता है। इस प्रकार खड़ीनों पर काफी पानी जमा होता है और यह 50 मीटर से लेकर 125 सेंटीमीटर तक ऊंचा हो सकता है। साल में 80 से 100 मिमी. बरसात कम से कम दो-तीन बार आए तो भी खड़ीनों को भरने और रबी तक की फसल देने के लिए पर्याप्त है। यह पानी धीरे-धीरे नवंबर तक सूखता है और तब तक जमीन में गेहूं और तिलहन जैसी रबी की फसल बोने लायक नमी रहती है। फलोदी के उत्तर-पश्चिमी हिस्से में तरबूज भी खूब उगाए जाते हैं। गेहूं और चना भी बोया जाता है। अगर फसल लगाने के समय तक पानी टिका हो तो पहले फाटक खोलकर उस पानी को निकाल दिया जाता है। आमतौर पर रबी की फसल को कोई रासायनिक खाद देने की जरूरत नहीं पड़ती। मार्च तक फसल तैयार हो जाती है।

खड़ीन की खेती में न तो बहुत जोताई-गोड़ाई की जरूरत होती हे, न रासायनिक खाद और कीटनाशकों की। फिर भी बाजरा की पैदावार प्रति हेक्टेयर 3 से 5 क्विंटल तक हो जाती है। अच्छी बरसात हो और पर्याप्त पानी जमा हो जाए तो गेहूं की फसल प्रति हेक्टेयर 20 से 30 क्विंटल और चने की फसल प्रति हेक्टेयर 15 से 25 क्विंटल हो जाती है। राजस्थान नहर से सिंचित खेतों की पैदावार की तुलना में यह पैदावार भले ही कम दिखे, पर यह भी याद रखना जरूरी है कि यह फसल बिना ज्यादा परिश्रम, ज्यादा खर्च और झमेले के हो जाती है और इतने मुश्किल इलाकों में भी फसल का भरोसा रहता है।

खड़ीनों में जमा पानी अपने साथ बारीक और उर्वर मिट्टी भी लाता है। इसलिए खड़ीनों की मिट्टी की प्रकृति बदल जाती है और यह वहीं के दूसरे खेतों की तुलना में ज्यादा उर्वर हो जाती है। इसमें जैव कार्बन पदार्थों की मात्रा 0.2 से 0.5 फीसदी तक हो जाती है, जो आसपास की जमीन से बहुत अधिक है। फिर इसमें पोटाशियम ऑक्साइड की मात्रा भी ज्यादा होती ही है। आगोर क्षेत्र में चराई भी होती है, सो पशुओं के गोबर और पेशाब की उर्वरता भी इसमें आ जाती है।



खड़ीनों से ढलाने वाली मिट्टी में लवणों के बढ़ने पर भी अंकुश लगता है। मरूभूमि में जहां भी पानी जमा होता है, वहां जिप्सम की परत ऊपर होने से नुकसान होता है। पर पुरानी खड़ीनों में लवणों की मात्रा हल्की ही आई है। हां, खड़ीन बांधों की दूसरी तरफ, जहां रिसकर पानी पहुंचता है, लवणों की मात्रा ज्यादा पाई जाती है। स्पष्ट है कि खड़ीनों में आने वाले लवण खुद-ब-खुद बाहर फेंके जाते हैं। पानी के साथ आने वाली मिट्टी साल-दर-साल खड़ीन के अंदर वाली जमीन का स्तर थोड़ा-थोड़ा ऊपर करती जाती है और कुछ वर्षों में ही खड़ीन के अंदर और बाहर की मिट्टी के स्तर और किस्म में काफी फर्क आ जाता है। पुरानी खड़ीनों में तो ऊंचाई का फर्क चौथाई से एक मीटर तक का हो गया है। इस फर्क के चलते भी खड़ीन में जमा पानी का रिसाव बाहर की तरफ होता है और लवण घुलकर बाहर निकल जाते हैं। अनेक स्थानों पर खड़ीनों के बाहर कुआं खेद दिया गया है और इस कुएं में भरभूर पानी आता है, जिसका उपयोग पीने और अन्य कार्यों में भी होता है।

इससे रिसाव तेज होता है और इस क्रम में खड़ीन के अंदर की जमीन से लवणों के बाहर जाने का क्रम भी तेज होता है। अध्ययनों से स्पष्ट हो जाता है कि जैसलमेर जिले के खड़ीन वाले किसानों की स्थिति बिना खड़ीन वाले किसानों से काफी अच्छी है पर यह भी स्पष्ट है कि खड़ीनों की स्थिति दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है। चूंकि अधिकांश खड़ीनों का निर्माण पालीवाल ब्राह्मणों ने किया था, सो जब उनको बाहर भगाया गया तब इसके कौशल में गिरावट आई। फिर इनका रख-रखाव भी उपेक्षित हुआ। बाढ़ के साथ कंकड़-पत्थर और मोटा रेत भी आ जाता है और खड़ीनों में जमा हो जाता है। आगोर क्षेत्र में बर्बादी होने से यह क्रम तेज हुआ है। इससे मिट्टी भरने का क्रम भी बढ़ा है। उपेक्षा के चलते अनेक खड़ीन बांध टूट गए हैं या उनमें दरार आ गई है, इनके चलते अब वे पानी को नहीं रोक पाते।

खड़ीनों की गिरावट का सबसे बड़ा कारण खड़ीन भूमि की पारंपरिक मिल्कियत वाली व्यवस्था का गड़बड़ा जाना है। जनसंख्या बढ़ने और संयुक्त परिवारों के टूटने से जमीन भी बंटी है। खड़ीन के लिए बड़ी जमीन चाहिए या फिर सहकारी प्रयास होना चाहिए। जमीन के बंटते-बिखरते जाने से यह काम ज्यादा मुश्किल होता गया है। खड़ीन व्यवस्था को ठीक से चलाने के लिए उसके आगोर क्षेत्र को फिर से हरा-भरा बनाना होगा। इसमें चराई जरूरी है और लाभप्रद भी, पर एक सीमा तक ही। सिंचित जमीन को भी बराबर समतल करते रहना चाहिए जिससे पानी का समान वितरण हो। ऐसा न करने पर पानी जहां-तहां जमा होगा और उसका कुशलतापूर्ण उपयोग नहीं हो पाएगा। तेज बारिश के बाद तूफान की रफ्तार से आया पानी अपने साथ कंकड़-पत्थर और मोटा रेत लाकर खड़ीन में भर सकता है।

इनको समय-समय पर निकालते रहना चाहिए। मिट्टी में लवणों की मात्रा पर भी नजर रखनी चाहिए और अगर ये बढ़े हुए दिखें तो पहली एक-दो बरसात का पानी बह जाने देना चाहिए, क्योंकि उसके साथ में अतिरिक्त लवण भी बह जाएंगे। खड़ीन बांध के बाहर कुआं खोदने से भी यह काम हो जाता है। बांध का उचित रखरखाव किया जाना चाहिए। इसकी ऊंचाई 1.5 मीटर से कम नहीं होनी चाहिए और इसमें दरार नहीं आनी चाहिए। सामान्य स्थिति में पानी को ऊपर से निकलने भी नहीं देना चाहिए।

अनेक पुरानी खड़ीनें आज उपेक्षित हैं, पर असंख्य खड़ीनें आज भी उपयोगी हैं। इनके महत्व को मानकर राजस्थान सरकार ने भी नई खड़ीनें बनवाने की योजना बनाई हैं। सातवीं योजना में इसके लिए 6.95 करोड़ रुपए का प्रावधान था।

स्वयंसेवी संगठनों ने भी इधर खड़ीनें बनवाने का काम शुरू किया है। ग्रामीण विकास विज्ञान समिति ने जोधपुर जिले में गरीब किसानों की जमीन पर 86 खड़ीनें बनवाई हैं। अपने इस काम के मूल्यांकन में समिति का मानना है कि खड़ीनों सं उत्पादकता निश्चित रूप से बढ़ी है। सूखे के समय चारे की उपलब्धता भी एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।

खड़ीनों को पुनर्जीवित करने का काम बहुत सरल नहीं रहा है। समिति को इसके लिए कई तरह की परेशानियां भी उठानी पड़ी हैं। जगह के चुनाव की गड़बड़ से भी तकलीफ हुई। कौन किसान लाभ में रहे, कौन छूटे इसको लेकर भी विवाद उठे। खड़ीन के अंदर की जमीन के बंटवारे पर भी झमेले उठे। पानी के बंटवारे पर भी किसानों ने शिकायतें कीं। जमीन की मिल्कियत में गैर-बराबरी से खड़ीनों के विकास में बाधा आई। खड़ीनों को सफल करने के लिए उनके प्रबंध में सभी किसानों की भागीदारी जरूरी है।

समिति द्वारा बनवाई कुछ खड़ीनों में तकनीकी खामियां भी दिखीं। 1988 में जब भारी बरसात हुई तब कई खड़ीनों में दरारें आ गईं। बांध इतने मजबूत नहीं थे कि बाढ़ का पानी रोक सकें। फिर अनेक किसान खड़ीन की नाजुक खेती को नहीं समझ पाए हैं। नमी-खुदाई का हिसाब ठीक से न जान पाने के चलते उनको फसलों का नुकसान भी उठाना पड़ा। अगर तेज बरसात एक फसल को बहा ले जाए तो फिर दूसरी फसल लगाने लायक साधन उनके पास नहीं होते। पर समिति द्वारा शुरुआत करने के बाद खड़ीनों के चलन ने जोर पकड़़ा है और अनेक गांवों के लोगों ने समिति से अपने यहां खड़ीनें खड़ी करने में मदद मांगी है।

समिति ने यह भी पाया कि तकनीक के स्तर पर भले ही खड़ीनें कितनी भी अद्भुत क्यों न हों, इससे भूतल के जल के समान वितरण को निश्चित रूप से बढ़ावा नहीं मिलता। खड़ीन से किसको लाभ होगा यह प्राकृतिक बनावट और खड़ीन के अंदर आने वाली जमीन के संयोग पर ही बहुत हद तक निर्भर करता है। जिस आदमी का खेत खड़ीन में या उसके पास होगा, उसको दूर वाले खेत के मालिक से ज्यादा लाभ मिलेगा ही। इससे किसानों में असमानता पैदा होती है। पहले संयुक्त परिवारों के चलते जमीन बिखरी और बंटी नहीं थी। अक्सर खड़ीन वाली जमीन एक या दो परिवारों की होती थी, पर परिवार बिखरने से आज विवाद बहुत आम हो गए हैं। आज अधिकांश खड़ीनोें की पैदावार में समान बंटवारा नहीं होता। सिर्फ आगोर क्षेत्र का रखरखाव सामूहिक तौर पर होता है और खेतों की रखवाली होती है। आगे चलकर गैर-बराबरी ज्यादा बड़े विवाद का कारण बन सकती है, खास तौर से खड़ीन के अंदर और दूर वाले खेतों के मालिकों के बीच। इससे सामुदायिक भागीदारी खत्म हो सकती है, जिसके बल पर ही यह प्रणाली विकसित हुई है और अभी तक चली आ रही है। अनेक किसानों ने समिति से शिकायत की कि उनकी जमीन के सामने बांध बन जाने से वे पहाड़ों से ढलकर आने वाले पानी का उपयोग भी नहीं कर पाते। यह मुद्दा आगे विवाद बढ़ा सकता है।

(बूंदों की संस्कृति पुस्तक से साभार)

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