गोकुल का गौरव

कोंकण की पारंपरिक जल संचय विधियां आज भी प्रासंगिक हैं जिन्हें अधिकांश लोगों ने भुला दिया है

On: Friday 02 November 2018
 
कोंकण के हर गांव में भिन्न-भिन्न ऊंचाई वाले खेतों के बीच अलग-अलग तालाब हैं। बरसात में एक तालाब को भरकर पानी दूसरे में जाता है। ये तालाब गोकुल प्रकल्प प्रतिष्ठान ने बनवाए हैं (गणेश पंगारे / सीएसई)

कोंकण महाराष्ट्र का तटीय क्षेत्र है जिसके एक ओर पश्चिमी घाटों का वन प्रदेश है और दूसरी ओर अरब सागर। यह पट्टीनुमा प्रदेश है जिसकी चौड़ाई कहीं 20 किमी. तो कहीं 40 किमी. है। यहां साल में औसतन 2,500 मिमी. बरसात होती है। इस क्षेत्र को भी भौगोलिक बनावट के हिसाब से तीन हिस्सों में बांट सकते हैं। पश्चिमी घाटों से लगा यह इलाका पहाड़ी बनावट वाला है और पूरब का तटनुमा। बीच का इलाका मैदानी है। पश्चिमी घाटों से निकलने वाली 22 नदियां यहां से होकर अरब सागर में गिरती हैं। नदियों के मुहाने सागर के निकट डेल्टा भूमि बनाते हैं, जिन्हें मराठी में खाड़ी कहा जाता है। यहां सिंचाई का मुख्य स्त्रोत मॉनसून है जो काफी बरसता है। यहां धान और पहाड़ी बाजरा खूब होता है और यही दो फसलें यहां का मुख्य भोजन है, पर पूरी जमीन के 30 फीसदी से कम हिस्से में ही इनकी खेती होती है। 18वीं सदी के मध्य तक इस क्षेत्र में घना जंगल था और कई बारहमासी नदियां बहती थीं। यहां के ग्रामीण अपने प्राकृतिक संसाधनों का बहुत सोच-समझकर उपयोग करते थे। छोटे-छोटे जल प्रबंधों के लिए कोंकण के गांव आदर्श हैं। अलग-अलग बस्ती-समूहों को पहाड़ियों ने घेर रखा है और हर गांव किन-किन जल स्त्रोतों से पानी ले सकता है, यह कदम तय सा हो चुका है। कभी पूरा गांव इनका संरक्षण भी करता था। होली जैसे त्यौहारों, नए मकान बनाने या शव जलाने जैसे अवसरों को छोड़कर पेड़ काटना मना है। जंगल को साझी संपŸत्ति माना जाता है। कुओं और झरनों से पीने का पानी लिया जाता है।

कोंकण क्षेत्र में बहुत सरल और कम संचय तकनीक सदियों से लोगों के काम आ रही हैं। इन्हें दो श्रेणियों-कृ़ित्रम और कायिक में बांटा जा सकता है। पेड़ों की रखवाली के साथ गांव के लोगों ने अपने-अपने तालाबों के बांधों को भी दुरुस्त रखा। नदियों और सोतों के दोनों तरफ पेड़ों, झाड़ियों, तलाओं का जंगल-सा लगता था। एक और प्रणाली थी जिसमें छोटे साधनों और नालियों से सिंचाई होती थी। इसका महत्व तभी समझ में आया जब इनकी उपेक्षा के चलते खेती पर गहरा असर होने लगा। बहुत कम-कम दूरी पर बने इन जल संचय प्रबंधों में कायिक बांध थे जिससे जल प्रवाह बाधित होता था। इससे तेज धारा से होने वाला नुकसान नहीं होता था और मछलियों को डेरा मिलता था। इन बांधों की अनदेखी और काट-छांट से काफी सारी जमीन से मिट्टी बहकर समुद्र में जाने लगी और नदियों से मछलियां प्रायः गायब ही हो गई हैं।

जहां तक कृत्रिम व्यवस्था का सवाल है, यहां पांच तरह के काम दिखते हैं- तेज ढलान पर पत्थर और मिट्टी का बांध, झाड़-झंखाड़ और मिट्टी से बना बांध, गांव का नाला, नालियों पर पत्थर के फाटक और तालाब। कोंकण क्षेत्र में तेज ढलान वाले काफी इलाके हैं और कोंटूर बांधों से पानी का बहाव रोका जाता है। बांध का एक देसी तरीका भी था जो आज भी कई जगहों पर दिख जाता है। ढलान पर पत्थरों के बहुत छोटे-छोटे कई बांध एक साथ डाल दिए जाते हैं जिससे घास-मिट्टी का बहना रुकता है। साल-दर-साल इन पर ही नए पत्थर डाले जाते हैं जिससे ढलानों पर सीढ़ीदार खेत निकल आते हैं। चूंकि हर गांव में कई-कई पहाड़ी सोते हैं जो बरसात के समय तूफानी रूप लिए होते हैं, पर बरसात के बाद एकदम सूख जाते हैं, इसलिए बरसात थमते ही उनकी धारा को घास-फूस, पत्तियां और मिट्टी डालकर कुछ चुनी हुई जगहों पर थाम लिया जाता है। इन रिसने वाले बांधों से भी मनुष्य और पशुओं की जरूरत भर का पानी रोक लिया जाता था। अगली बरसात में ये बांध फिर से बह जाते थे। खेतों में भी मेड़ पर पत्थर डालकर उन्हें ऊंचा कर लिया जाता था जिससे उनमें पानी रुक जाता था। नालियों के किनारे भी पत्थर लगाकर पानी को बिना बर्बाद किए मनचाही जगह से लाया जाता था। इन सबके चलते कोंकण का इलाका पहले सालभर हरा-भरा रहा करता था। सोतों में तेज जल प्रवाह की गति कम करने के लिए भी पत्थर के छोटे बांध डाल दिए जाते थे।

कहीं-कहीं गांवों के चारों तरफ पानी को मोड़ने वाली नालियों को माला के आकार में बना दिया जाता था। इनसे निकलने वाला पानी कम ऊंचाई पर स्थित बागों को सींचने में काम आता था। हर गांव में और वहां के खेतों के बीच कई-कई तालाब होते थे। कई तालाब तो गांव की पहाड़ी के ऊपर होते थे, इन्हें मिट्टी के बांध बनाकर या फिर पत्थर तोड़कर बनाया जाता था और ये एक विशाल कुएं जैसा दिखते थे। कई गांव के तालाब मंदिर के पास होते थे। मंदिरों से लगा जंगल भी हुआ करता था, जिन्हें देवराई कहा जाता था। कुछ बड़ी झीलों को बरसात से पहले खाली कर दिया जाता था और उनकी पेट वाली जमीन पर धान के बीज डाल दिए जाते थे। फिर इन तैयार पौधों को गांववालों के बीच बांट दिया जाता था।

इस व्यवस्था पर पहली कुल्हाड़ी चलाई अंग्रेजों ने, जो यहां के पेड़ों को कटवाने लगे। रत्नागिरी जिला गजट के अनुसार, 1830 और 1880 के बीच यहां बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई हुई। आर्द्रता बनाए रखने वाले जंगलों के जाने का सीधा असर खेतों पर पड़ा और ढलानों की जमीन तो खेती लायक रह ही नहीं गई। मुंबई तब तेजी से बढ़ रहा था। इस क्षेत्र के लोग भागकर वहां मजदूरी तलाशने लगे। स्वस्थ जवान लोगों में से अधिकांश के गांवों से निकल जाने के चलते पारंपरिक जल संचय प्रणालियों का रखरखाव और मुश्किल होता गया। आजादी के बाद दूरदराज के इलाके भी पक्की सड़कों से जुड़ गए और इसका व्यावहारिक अर्थ हुआ। हर कहीं का पेड़ बाजारों में लकड़ी के तौर पर पहुंच गया। ऊपरी पहाड़ियां नंगी हो गई और पूरा पश्चिमी घाट भारी बरसात और तेज हवाओं का शिकार बनने के लिए हाथ पर हाथ धरे बैठ गया। मौसमी सोतों के पानी के साथ आई मिट्टी ने धान के खेतों को पाट दिया। सोते और नदियों के जरिए पानी लाकर सिंचाई करना तो बंद सा हो गया। आज 25 फीसदी से ज्यादा गांवों को पानी की भारी तंगी रहती है और 50 फीसदी से ज्यादा जमीन बंजर हो गई है।

बदलाव की प्रक्रिया

कोंकण की पारिस्थितिकी इस हालत में पहुंच गई है कि सरकार ने सन 2,000 तक सिंचाई सुविधाएं मुहैया कराने के दावों के साथ जो योजना बनाई, उस पर 1,600 करोड़ रुपए (1981 के मूल्य पर) की लागत आने की उम्मीद है और इससे सिर्फ 20 फीसदी जमीन सिंचित हो पाएगी। पर इस मामले में काम अभी ज्यादा आगे नहीं बढ़ा है, न ही यह यहां की नाजुक जलवायु को पुनर्जीवित करने का सही तरीका है। स्थानीय लोगों से लंबी बातचीत के बाद यह लगता है कि पुराने अनुभवों के आधार पर समाधान निकाले जा सकते हैं। परीक्षण के तौर पर पुरानी तीन प्रणालियों को जीवित किया गया है- ढलान पर पत्थर वाले बांध डालना, बांधों पर पेड़-पौधे लगाना और नालियों के किनारे पत्थर लगाना। स्थानीय मिस्त्री इन्हें तैयार कर लेते हैं। इनमें श्रम ज्यादा और पूंजी कम लगती है।

विलाई कोंकण का एक खांटी गांव है जो महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में है। गांव की कुल जमीन करीब 600 हेक्टेयर है और इसका 80 फीसदी हिस्सा अनुत्पादक हो चुका था, क्योंकि गांव के ज्यादातर स्वस्थ, जवान मर्द मुंबई चले गए थे। उपेक्षा के चलते परंपरागत बांध और सीढ़ीदार खेतों वाले पत्थर के मेड़ों के टूटते जाने से खेती लायक जमीन बहुत कम हो गई थी। यहां बरसात के चार महीनों में काफी पानी पड़ता था, तब गर्मियों में पानी की कमी हो जाती थी।

1980-81 में गोकुल प्रकल्प प्रतिष्ठान ने गांववालों से संवाद शुरू किया और इस बात पर सहमति बनी कि गांव के लोग सामूहिक रूप से 200 हेक्टेयर खाली पड़ी जमीन को विकसित करेंगे। इसके लिए राज्य भूमि विकास बैंक ऋण उपलब्ध कराने को तैयार हो गया। इसके बाद प्रतिष्ठान ने विलाई गांव में पानी की व्यवस्था चौकस करने का काम शुरू किया। सबसे पहले तो गांव में मौजूद बांधों की मरम्मत और उनको मजबूत बनाने का काम हुआ। बांधों के किनारे-किनारे क्यारियां खोदी गईं और कई तरह के पौधे लगाए गए। इन सबका नाटकीय परिणाम निकला और तीन-चार वर्षों में चारा, ईंधन और फल देने वाले पेड़ों से गांव भर गया। यह हरियाली बंजर पड़े पूरे इलाके में अलग ही दिख जाती है।

यहां से बहने वाले सोते पर प्रतिष्ठान ने पत्थर के 43 छोटे बांधों वाली श्रृंखला खड़ी की। इसके लिए पत्थर वहीं मिल गए थे। इन पत्थरों से पानी रिस जाता है और बांध भी ऐसे थे जिनमें पानी रिस सके। पर इनके बनने से जल प्रवाह की रफ्तार पर अंकुश लगा और हर बांध के पास पानी के साथ आई मिट्टी के बैठते जाने से बांध भी साल-दर-साल मजबूत होते गए। इन बांधों पर रुका पानी रिसकर नीचे जाता है और जमीन की नमी बढ़ाता है। इन सबका कई तरह का प्रभाव पड़ा है। पहाड़ियों के नीचे का झरना अब फिर से बाहरमासी हो गया है और इसका पानी भी ज्यादा साफ आने लगा है। खुद इस सोते में पानी बढ़ गया है। पहले शितप और धामणे गांव के लोग सोते के किनारे एक गड्ढा खोदकर पानी निकालते थे। लेकिन अब शितपवाड़ी के ग्रामीणों ने 5 मीटर व्यास का दो मीटर गहरा कुआं खोदा है। यहां से दस हार्स पावर के पंप से वे एक किलोमीटर लंबी पाइप के माध्यम से पानी ऊपर ले जाते हैं। इससे दो गांवों के 20 परिवारों का जल संकट समाप्त हो गया है। पानी उपलब्ध होने से पांच परिवारों ने आम के 800 पेड़ भी लगा दिए हैं। किसानों ने आम की पौधशाला का काम बड़े पैमाने पर शुरू किया है। 50 हेक्टेयर जमीन में सब्जी की खेती भी की जाने लगी है।

इस अनुभव के साथ गोकुल प्रकल्प प्रतिष्ठान ने 40 अन्य गांवों में काम शुरू किया है। हर गांव में सबसे पहले एक मुख्य सोते का चुनाव किया गया। उन पर गोकुल बंधार, जल संचय भंडार और मोड़ बांध बनाए गए हैं। कुल मिलाकर पत्थर वाले 5,000 से ज्यादा बांध अभी तक बनाए जा चुके हैं। इन बांधांे को बरसात से शायद ही कहीं नुकसान पहुंचा है। जहां नुकसान हुआ है, वह बांध में दरार आने या उसका ऊपरी हिस्सा बहने जैसा ही है। इनकी मरम्मत बहुत कम खर्च में हो गई। बांधों के बनने से पानी की उपलब्धता बढ़ी और इन गांवों में 43 नर्सरियां बन गई हैं। अधिकांश गांवों के झरनों या सोतों में अब बारह मास या अधिकांश समय पानी रहता है। कहीं भी पेयजल का संकट नहीं है। अभी तक गांववाले पानी का उपयोग बाग लगाने के लिए कर रहे हैं, लेकिन आने वाले वर्षों में वे इससे फसल भी उगाएंगे। कुछ गांवों में सिंचाई की पारंपरिक विधि पाट (जलधारा में छोटा मेड़ डालकर पानी खेतों में मोड़ना) वापस आ गई है।

पिछले कुछ वर्षों का अनुभव बताता है कि कोंकण की पारंपरिक संचय विधियां आज भी पारिस्थितिक संतुलन बनाने के लिए प्रासंगिक हैं। इस तकनीक का सोच-समझकर किया गया उपयोग और जहां यह अपर्याप्त लगे वहां आधुनिक तकनीक की मदद पुराने हरे-भरे समृद्ध कोंकण को वापस ला सकती है।

(“बूंदों की संस्कृति” पुस्तक से साभार)

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