राजस्थान के 153 स्कूलों में लगती है जल संसद, क्या करती है यह संसद

देश और उसके संसाधनों के प्रति जिम्मेदार बनाने के इस तरीके की शुरुआत जोधपुर की शिक्षिका शीला आसोपा ने 2016 में की थी

By Anil Ashwani Sharma

On: Wednesday 22 November 2023
 

बच्चों को एक बेहतर नागरिक बनाना है तो उनमें देश की राजनीति और संसद की समझ विकसित करना एक बेहतर तरीका है। देश के जल-जंगल-जमीन की सूरत कैसी होगी, यह बहुत कुछ संसद पर निर्भर करता है। देश चलाने के लिए नियम-कानून यहीं बनाए जाते हैं। राजस्थान के जोधपुर जिले के 153 स्कूलों में “जल-संसद” का गठन किया गया है। देश की संसद खास सत्रों में काम करती है, लेकिन इन स्कूलों की “जल-संसद” की कार्यवाही साल भर चलती रहती है। “जल-संसद” अपनी अगुआई के लिए स्कूल की हर कक्षा से दो विद्यार्थी का चुनाव करती है। ये दो विद्यार्थी पूरे साल अपने संसदीय साथियों के साथ मिलकर स्कूल परिसर से लेकर आसपास के इलाकों में काम करते हैं। देश और उसके संसाधनों के प्रति जिम्मेदार बनाने के इस तरीके की शुरुआत जोधपुर की शिक्षिका शीला आसोपा ने 2016 में की थी। वे जोधपुर के धवा सरकारी स्कूल में बतौर प्रिंसिपल नियुक्त हुईं थीं। तब से अब तक जिले की सैकड़ों “जल-संसद” के जरिए विद्यार्थियों के साथ जल-संचय से लेकर जल-कैलेंडर, जल-ई पत्रिका, जल-ऑडिट जैसे प्रयोग कर रही हैं। स्कूली बच्चों के साथ आसपास के ग्रामीण भी इस मुहिम से जुड़ गए हैं। वह कहती हैं कि जल जैसे अमूल्य संसाधन को लेकर बच्चों की गंभीरता भविष्य के लिए उम्मीद पैदा करती है। उम्मीद भरी इस मुहिम को लेकर शीला असोपा के साथ अनिल अश्विनी शर्मा की बातचीत

शीला असोपा (इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई )आज जब पूरी दुनिया पानी के संकट से जूझ रही है, “जल संसद” शब्द ही उम्मीद भरा दिखता है। आपको यह उम्मीद कैसे जगी कि ऐसा कोई अभियान शुरू किया जा सकता है?

राजस्थान का नाता रेगिस्तान से है। मरु भूमि ही जल संचय का मर्म समझ सकती है। यहां पानी बचाने की सीख माएं बच्चों को गोद में लोरी सुनाते हुए देती हैं। दादा-दादी, नाना-नानी की कहानियों में पानी बचाने वाला नायक होता है। इन सबके बावजूद वर्तमान पीढ़ी पानी बचाने की विरासती सीख को भूल रही है।

पानी बचाने को लेकर बेपरवाह होती पीढ़ी मुझे खतरे की घंटी की तरह लगी। ऐसे में मैंने यह तय किया कि आने वाले कल के लिए बच्चों को ही पारंपरिक ज्ञान से अवगत कराया जाए। इसके लिए ऐसा माहौल जरूरी था कि बच्चे खुद को खास समझें और लगे कि उनका यह काम कितना जरूरी है। इसलिए, मैंने बच्चों के बीच “जल-संसद” बनाने की ठानी।

छात्रों की “जल-संसद” कैसे काम करती है?

स्कूल की हर कक्षा से दो बच्चों का “जल संसद” के लिए चयन किया जाता है। इनके चयन की कार्यवाही के लिए जल प्रेरक (कक्षा के शिक्षक) नियुक्त किए जाते हैं। वे कक्षा में बच्चों की सहमति से दो विद्यार्थियों का चयन करते हैं। स्कूल में 12 कक्षाएं होती हैं तो 24 विद्यार्थियों का चयन होता है। ये चयनित विद्यार्थी ही अपने जल प्रेरक की मदद से कक्षा में अन्य छात्रों को जल संसद की कार्यवाही के बारे में पहले तो जानकारी देते हैं। दूसरे चरण में उस जानकारी का क्रियान्वयन किया जाता है।

“जल-संसद” कार्यवाही के विषय क्या होते हैं?

“जल-संसद” की कार्यवाही के लिए प्रमुख कामों को विभिन्न कक्षाओं के विद्यार्थियों के बीच बांट दिया जाता है। इनके काम में प्रमुख रूप से वर्षा जल संचय का विकास करना, वाटर रिचार्ज सिस्टम को तैयार करना है। इनके जिम्मे ही डिजिटल ई-पत्रिका, जल कैलेंडर तैयार करवाना भी होता है। इसमें पोषण वाटिका, नीचले स्तर पर हाथ धोने वाली जगह तैयार करने से लेकर वाटर आॅडिट करने का काम आदि है।

वर्षा जल-संचय शब्द जितना लोकप्रिय बन चुका है, उसे व्यवहारिक बनाना उतना ही मुश्किल है। इसे व्यवहारिक बनाने के लिए क्या प्रक्रिया अपनाई ?

हम कुल 12 कक्षाओं को तीन हिस्सों में बांट देते हैं, यानी चार-चार कक्षाओं का समूह। इन समूहों के पास पांच-पांच हजार लीटर के तीन टांके भरने की जिम्मेदारी होती है। इन टांकों का निर्माण पारंपरिक तौर-तरीके से किया जाता है। साथ ही जिस ओर से पानी आने के लिए रास्ता (आगोर) छात्रों ने बनाया होता है, उस पर लगातार निगरानी रखी जाती है कि किसी प्रकार की गंदगी न हो, नहीं तो यह गंदगी बहकर टांके में चली जाएगी। इसके अलावा इन टांकों में एकत्रित होने वाले वर्षा जल पूरी तरह से साफ रहे, इसके लिए इन टांकों के आसपास कोई भी विद्यार्थी जूते-चप्पल आदि पहन कर नहीं जाता है। इन टांकों में संचय किया गया बारिश का पानी डेढ़ से दो माह तक स्कूल में पेयजल की आपूर्ति करता है। कभी-कभी यह समय-सीमा दो महीने से बढ़ भी जाती है।

स्कूली बच्चों को पानी के लिए संवेदनशील बनाना कितना मुश्किल रहा?

यह सचमुच एक मुश्किल प्रक्रिया थी। इसके लिए सबसे पहले मैं खुद संवेदनशील बनी। इस प्रणाली को लेकर पर्याप्त अध्ययन किया। इसके बाद मैंने अपने शिक्षकों को प्राथमिक जानकारी से अवगत कराया और बाद में वर्षा जल संचय प्रणाली के बारे में विशेषज्ञों से परामर्श किया। इसके बाद बारी थी विद्यालय के विद्यार्थियों को सिखाने की। हम सब साथ सीखे और समझे। यह हमारा सामूहिक प्रयास था। चूंकि, अब हम देखते आ रहे हैं कि बारिश एक ही बार इतनी तेज होती है कि उसे संभालना मुश्किल हो जाता है। ऐसी परिस्थितियों के लिए हमने टांके में पानी भर जाने के बाद अतिरिक्त पानी को यूं ही बहने नहीं दिया। बल्कि, इस पानी के लिए ग्राउंड वाटर रिचार्ज सिस्टम को भी तैयार किया है। इसके कारण स्कूल परिसर और उसके आसपास भूजल की स्थिति में लगातार सुधार होतl जाता है।

छात्रों को प्लंबिंग प्रशिक्षण दिया जाता है, इसके पीछे क्या सोच है ?

राजस्थान में पानी की हर बूंद कीमती है। पानी में रिसाव को रोकने के लिए हमने छात्रों को प्लंबिंग का भी प्रशिक्षण दिया है। यह स्कूल से लेकर घर व अन्य सार्वजनिक जगहों के लिए भी जरूरी है। इससे छात्र न केवल स्कूल परिसर में मौजूद पानी के टांकों में होने वाले रिसाव को रोक पाने में सफल होते हैं बल्कि वे अपने घर और आसपास भी पानी को बर्बाद होने से रोकते हैं।

“मेरी कक्षा-मेरा बगीचा” योजना क्या है ?

छात्र “मेरी कक्षा-मेरा बगीचा” गतिविधि के तहत विद्यार्थी स्कूल परिसर और आसपास लगे पेड़-पौधों का खयाल रखते हैं। पेड़-पौधों के पास एक लंबी लकड़ी से सिंगल यूज प्लास्टिक की बोतलों को बांधकर पानी देते हैं। जल कैलेंडर किस प्रकार से तैयार किया जाता है? विद्यार्थी डिजिटल जल-कैलेंडर तैयार करते हैं जिसे स्कूल के सभी बच्चों को भेजा जाता है। कैलेंडर के कुछ प्रिंट एडिशन भी निकाले जाते हैं। विद्यार्थियों द्वारा साल भर बनाए गए जल संरक्षण संबंधी पोस्टर, पेंटिंग आदि के माध्यम से कैलेंडर तैयार किया जाता है। इसके अलावा डिजिटल ई-पत्रिका माह में एक बार तैयार की जाती है। इसमें छात्र अपने किए गए कामों के बारे में लिखते हैं। वाटर आॅडिट के तहत छात्र प्रतिदन टांके से खर्च हुए पानी का हिसाब-किताब रखते हैं। एक निश्चत स्थान पर लो फ्लोर वाटर हैंड वॉश प्वाइंट बनाए जाते हैं और छात्र इस पर नजर रखते हैं कि हाथ साफ करने के बाद बचा हुआ पानी हर हाल में पोषण वाटिका तक पहुंच रहा है कि नहीं।

कितने स्कूलों में “जल संसद” का गठन हुआ है?

2016 से मैंने यह कार्य शुरू किया था तब मैं जोधपुर के धवा ब्लॉक के सरकारी स्कूल की प्रिंसिपल थी। यह पहला स्कूल था जहां इसका गठन किया। इसके बाद मैं जिले के मंडोर ब्लॉक में शिक्षा अधिकारी नियुक्त हुई। यहां के 150 स्कूलों में हमने “जल- संसद” बनाई। फिर बावड़ी ब्लॉक में व वर्तमान में श्याम सदन स्कूल में “जल-संसद” बनाई।

“जल-संसद” को लेकर विद्यार्थियों के अभिभावकों का क्या रुख है?

अभिभावकों के लिए भी उतना ही रुचिपूर्ण रहा। बच्चों में पानी बचाने की अच्छी आदत का विकास होने पर उनको भी लाभ मिला। इससे सामान्य शिक्षण व्यवस्था बिलकुल भी प्रभावित नहीं होती। यह केवल मध्यांतर व रिक्त-काल में की जाने वाली गतिविधियां हैं।

“जल-संसद” से छात्र कैसे लाभान्वित हुए ?

सभी छात्रों ने इस बात को जेहन में उतार लिया है कि “जल है तो कल है”। क्योंकि जल-संकट से बचने का यही तरीका है। यदि स्कूली समय में ही देश के अन्य छात्र जल-संचय जैसी महत्वपूर्ण प्रणाली अपने रोजमर्रा के कामों में शामिल कर लें तो आने वाले समय में जल के संकट का सामना नहीं करना पड़ेगा।

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