वन अधिकारों से बेदखल 18 राज्यों के 122 गांव, लोकसभा चुनाव के दौरान बदला गया लैंडयूज

20 मई को केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 18 राज्यों के 122 वन्य गांवों की जमीन का कानूनी दर्जा समाप्त कर उन्हें राजस्व जमीन में बदल दिया है।

By Ishan Kukreti, Vivek Mishra

On: Friday 31 May 2019
 

17वीं लोकसभा चुनाव के सातवें चरण की समाप्ति (19 मई) के एक दिन बाद ही  केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 18 राज्यों के 122 वन्य गांवों की जमीन का कानूनी दर्जा बदलकर राजस्व जमीन में तब्दील कर दिया। इन 122 गांवों को नेशनल पार्क, वन्यजीव सेंचुरी, टाइगर रिजर्व के संरक्षित क्षेत्र के दायरे से बाहर निकाल कर वन क्षेत्र के ही बाहरी हिस्से में बसाया गया था। राजस्व भूमि में तब्दील किए गए 122 गांवों की बड़ी आबादी को अब वन अधिकारों के फायदे नहीं मिलेंगे।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद केंद्रीय वन मंत्रालय की ओर से यह सर्कुलर जारी किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने 28 जनवरी, 2019 को ऐसी सिफारिश करने वाली केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (सीईसी) की रिपोर्ट को स्वीकार किया था। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की ओर से 20 मई, 2019 को जारी होने वाले सर्कुलर में कहा गया है कि वन भूमि के संरक्षित क्षेत्रों में बसे गांवों को बाहर निकालते समय सबसे पहले राजस्व भूमि की तलाश की जाए। यदि राजस्व भूमि नहीं मिलती है तो वन भूमि में ही संबंधित गांवों को बसाया जाए। साथ ही संबंधित वन भूमि को राजस्व भूमि में तब्दील किया जाए। इसके लिए संबंधित जिलाधिकारी के प्रमाण-पत्र की जरूरत होगी। यह प्रमाण पत्र राष्ट्रीय बाघ अभ्यारण्य (एनटीसीए) को देना होगा।

सीईसी ने अपनी सिफारिश में सुप्रीम कोर्ट के 21 नवंबर, 2008 के आदेश को आधार बनाया था। संबंधित आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को महाराष्ट्र के चंद्रापुर जिले में अंधारी वन्यजीव अभ्यारण्य के संरक्षित क्षेत्र में बसे तीन गांवों को स्थानांतरित करने का आदेश दिया था। सीईसी का कहना था कि यह पूरे देश में संरक्षित क्षेत्रों के साथ लागू होना चाहिए। साथ ही वन भूमि का कानूनी दर्जा बदलकर राजस्व भूमि में तब्दील भी किया जाना चाहिए।

वन अधिकारों से जुड़े मुद्दे पर काम करने वाली शोमोना खन्ना ने बताया कि केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट के महाराष्ट्र में तीन गांवों के संरक्षित क्षेत्र से स्थानांतरण को लेकर दिए गए आदेश में बहुत कुछ अतिरिक्त जोड़ दिया। सुप्रीम कोर्ट का 2008 का आदेश सिर्फ तीन गांवों तक सीमित था इन्होंने इसे बढ़ाकर पूरे देश के लिए लागू कर दिया।

आदिवासी मामलों के मंत्रालय में कानूनी सलाहकार रह चुकी शोमोना खन्ना ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को वन्यजीव संरक्षण कानून,1972 के प्रावधानों और वन अधिकार कानून, 2006 के प्रावधानों से अवगत नहीं कराया गया। इस तरह के स्थानांतरण से पहले सहअस्तित्व जैसे विषय को लेकर वैज्ञानिक अध्ययन किया जाना चाहिए था। ग्राम सभा से अनुमति भी ली जानी चाहिए थी।

राष्ट्रीय स्तर विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं के समूह कम्युनिटी फॉरेस्ट राइट्स-लर्निंग एंड एडवोकेसी (सीएफआर-एलए) से जुड़े तुषार दास ने बताया कि आदेश सिर्फ लोगों के स्थानांतरण पर था लेकिन जब आप वन भूमि का कानूनी दर्जा राजस्व में बदल देंगे तो जंगल में रहने वाली आबादी के अधिकार भी स्वत: खत्म हो जाएंगे। इतना ही नहीं वन भूमि से बदलकर बनाई गई राजस्व भूमि पर कब्जा भी आसानी से किया जा सकेगा।

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