खानाबदोश: कल के विरुद्ध खड़ा बेपनाह समाज

वर्ष 2011 में 46,73,034 जातियों-उपजातियों को तो चिन्हित किया गया, लेकिन लाखों खानाबदोश, तब भी इन सामाजिक वर्गीकरणों में भूले-बिसरे ही रह गये

By Ramesh Sharma

On: Monday 24 January 2022
 
ख़ानाबदोश समाज की हज़ारों और लाखों युवतियों को ठीक-ठीक यह नहीं मालूम कि उसकी जन्मभूमि कहाँ है। फोटो: रमेश शर्मा

 

इक्कीसवीं सदी के भारत में  क्या किसी समुदाय को पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहचान विहीन, भूमि विहीन, आवास विहीन, आजीविका विहीन, सम्मान विहीन और संस्कृति विहीन बने रहने को निहत्था छोड़ा जा सकता है? जिनके लिये स्वाधीनता, संसद और संविधान लगभग अप्रासंगिक बना दिया जाये? जिनकी पहचान उस 'अवांछित समुदाय' की बना दी जाये, जिसे  शेष समाज और अपनी ही चुनी हुई सरकारें भी आसानी से स्वीकारने के लिये  तैयार ना हों? और जिसे आजादी के सात दशकों के बाद भी अभिशप्त गरीबी और विपन्नता से मुक्ति दिला पाने में, स्वयं समाज और सरकार अपने आपको को लगभग असफल घोषित कर रही हों

आप उन्हें केरल से लेकर कश्मीर तक कहीं भी खानाबदोश जिंदगी जीते हुये देख सकते हैं। लेकिन फिलहाल वे यहां हैं - नागपुर और गोंदिया के रास्ते में बेपनाह। चिंगारी देवी, खानाबदोश समाज की उन हजारों और लाखों युवतियों में है जिसे ठीक-ठीक यह नहीं मालूम की उसकी जन्मभूमि कहाँ है? उसे यह भी नहीं मालूम कि अपनें जमीन और अपनी झोपड़ी के मायने क्या हैं? चिंगारी देवी कहती है कि – आजादी तो उन्हें मिली जिन्हें उसकी जरूरतें थीं। हमारी जिंदगी तो उस आजादी के बाद भी अभिशप्त है, जिसे कोई भी समझना और स्वीकारना ही नहीं चाहता। मेरे और मेरे समाज के लिये बिना किसी प्रताड़ना के गुजरा हुआ पूरा एक दिन ही आजादी का अहसास है - लेकिन इस खानाबदोश जीवन में अक्सर ऐसा होता नहीं।” 

सन 1871 में ब्रितानिया हुक़ूमत द्वारा पूरे खानाबदोश समाज पर क्रिमिनल ट्राइब एक्ट लागू करते हुये उस स्थायी लांछना का विशेषण चस्पा कर दिया, जो कोई भी समाज, अभिशप्त होकर ढोना नहीं चाहेगा। 12 अक्टूबर 1871 को पहले उत्तरी भारत के सूबों के लिये 'क्रिमिनल ट्राइबल एक्ट' घोषित किया गया और फिर वर्ष 1911 में इसे विस्तार देकर पूरे भारत में लागू करते हुये कुछ समुदाय विशेषों पर 'आदतन अपराधी' का लांछन चस्पा कर दिया गया। बरसों तक उन्हें बाध्य किया गया कि वो हर हफ्ते स्थानीय थानों में स्वयं उपस्थित होकर अपने गतिविधियों की जानकारी दें। वर्ष 1947 तक ऐसे 127 समुदायों को 'आदतन अपराधी' के वर्गीकरण में धकेल दिया गया था, जिनकी कुल अनुमानित जनसंख्या तब लगभग 1.3 करोड़ थी।

हालांकि स्वाधीनता के बाद वर्ष 1952 में भारत सरकार द्वारा क्रिमिनल ट्राइब एक्ट 1871 को समाप्त तो कर दिया गया, लेकिन तब तक कानून और व्यवस्था की शब्दावलियों में इस खानाबदोश समुदायों के लिये – आदतन अपराधी और कानून विरुद्ध गतिविधियों में लिप्त रहने वाले समाज की शर्मनाक संज्ञायें लगभग स्थायी रूप से दर्ज हो चुकी थीं। और जिसका परिणाम यह रहा कि चोरी-डकैती जैसे प्रकरणों में खानाबदोशों की भेदभावपूर्ण और अधिकांश दशाओं में बिना वारंट के गिरफ़्तारी, पूर्वाग्रहपूर्ण उनके पहचान को सार्वजनिक करना और अवैध रूप से मारपीट आदि एक ऐसा रिवाज बन गया जो आज भी जाहिर-अजाहिर तौर पर जारी है।

पीढ़ी दर पीढ़ी हजारों लाखों खानाबदोश, अनुवांशिक रूप से अपराधी घोषित कर दिये गये। जाति के आधार पर भय, भेदभाव और भ्रष्टाचार से प्रताड़ित, आज समूचे खानाबदोश समुदायों  के विरुद्ध शेष समाज और व्यवस्था दोनों ही लामबंद है। वर्ष 2011 में भारत सरकार द्वारा की गयी जनगणना के अंतर्गत  समूचे भारत में 46,73,034 जातियों-उपजातियों को तो चिन्हित करते हुये पहचान दी गयी, लेकिन लाखों खानाबदोश, तब भी इन सामाजिक वर्गीकरणों में भूले-बिसरे ही रह गये।

भारत की स्वाधीनता के बाद अगस्त 1949 में इस विवादित कानून को रद्द किया गया और फिर 1952 में इन सभी (तथाकथित आदतन अपराधी) जातियों को (वैधानिक तौर पर) 'डिनोटिफाइड ' करते हुये लांछना से मुक्त कर दिया गया। लेकिन आज भी 313 घुमन्तु (नोमेडिक) जनजातियां और 198 विमुक्त (डिनोटिफाइड) जनजातियां सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक अधिकारों की परिधियों से परे ही हैं।

वर्ष 1952 में तथाकथित क्रिमिनल ट्राइब के सन्दर्भ में हुये वैधानिक डिनोटिफिकेशन ने उन लांछित जनजातियों को विमुक्त तो कर दिया, लेकिन 'शेष समाज और व्यवस्था' उस औपनिवेशिक मानसिकता और पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं हो पाया जो अब तक 'विमुक्त जनजातियों' के प्रताड़ना का मूल कारण बना हुआ है।

6 फरवरी 2006 को भारत सरकार के सामाजिक न्याय मंत्रालय द्वारा गठित 'घुमन्तु, अर्ध-घुमन्तु और विमुक्त जनजाति आयोग' की रिपोर्ट में बताया गया कि इनकी जनसंख्या अनुमानतः 11 करोड़ (अर्थात कुल जनसंख्या का लगभग 8-9 फ़ीसदी) हो सकता है। अनुमानतः इसलिये कि, स्वाधीन भारत में खानाबदोश समाज को स्थायी पहचान की संरचना  में शामिल करने का ठोस निर्णय कभी हुआ ही नहीं। 

लेकिन सवाल यह है कि वर्ष 1931 की जाति-आधारित जनगणना में जिन 227 जनजातियों (अनुमानतः 2 करोड़ लोगों) को शामिल ही नहीं किया गया था, क्या उसे वर्ष 2011 में शामिल नहीं किया जा सकता था? इस सवाल का सामान्य उत्तर है "हाँ"; निश्चित तौर पर उन भूले-बिसरे 2 करोड़ लोगों को जनगणना में शामिल किया जा सकता था। और इस सवाल का अति-सामान्य उत्तर है "नहीं"; उन्हें इसलिये शामिल नहीं किया जा सका क्यूँकि वे जाति और जमात की परिधियों से बाहर धकेल दिये गये 'पहचान विहीन' लोग हैं।

विडंबना ही है कि इस "हाँ" और "नहीं" के मध्य इन बेपनाह लोगों का इतिहास, वर्तमान और भविष्य कैद है। आयोग की रिपोर्ट में उन तमाम सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक और सांस्कृतिक वंचनाओं को विस्तार से लिखा गया जो समाज और सरकारों को झझकोर सकती थीं। आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ बालकृष्ण रेंके कहते हैं– आयोग के रिपोर्ट की नजरअंदाजी की गयी । जाहिर था आयोग के सदस्यों नें जिन लाखों-करोड़ों घुमन्तु और विमुक्त लोगों की उम्मीदों को शब्दों में बांधा था वो अनदेखी और अनसुनी ही रह गयीं।” 

मध्यप्रदेश के राजगढ़ जिले में रहने वाला हिम्मतसिंह भी उनमें से ही एक था। खानाबदोश समाज में पैदा होकर न उसे सम्मानजनक जिंदगी मिली और न ही मौत। मात्र 38 बरस की उम्र में एक दिन वीरान में हत्या की गयी उसकी तथाकथित लावारिस लाश मिली। समाचारों ने अपुष्ट सूत्रों से लिखा कि वह चोरी के धंधे में लिप्त था और पकड़े जाने पर अज्ञात लोगों ने उसे पीट-पीट कर मार डाला।

उसके अपने समाज के लोगों के सवाल अनुत्तरित हैं कि, उन्हें कानूनन न्याय नहीं मिला। सवाल यह है कि वे किस कानून के सहारे आखिर कहाँ न्याय मांगनें जातेउस व्यवस्था के पास जिनके दृष्टियों में वे अब भी 'आदतन अपराधी' हैं ? या उस तंत्र के पास जहां उनकी आवाजें अब तक अनसुनी हैं ? सवालें शेष हैं कि जिन्हें समाज और सरकार दो-गज जमीन और मुट्ठीभर जमीर तक का अधिकार तक नहीं दे पायीं वहां अब और कितनी पीढ़ियों को एक सुरक्षित कल के लिये उम्मीदग्रस्त बनें रहना चाहिये ?

आयोग के अध्यक्ष डॉ बालकृष्ण रेंके  जी कहते हैं कि वैधानिकता के दायरे में घुमन्तु और विमुक्त समाज जिस  पीढ़ीगत लांछना का आखेट रहा है वह समाज और सरकार के दृष्टिकोण में आज तक गहरे बसा है। यदि समाज और सरकार ही यह मान लें कि ये खानाबदोश वाकई में न्याय, पहचान और सम्मान के काबिल नहीं हैं, तो उसकी उम्मीद करना बेमानी ही है। 

चिंगारी देवी और हिम्मतसिंह के लोग यह जानते थे / हैं । न्याय के प्रति नाउम्मीद होना, इन खानाबदोशों की ऐसी नियतियाँ बन गयीं जिसके उत्तर, स्वाधीन भारत में भी शेष  समाज और सरकार दोनों के पास अब तक तो नहीं ही हैं। बहरहाल अनेकों  सवालों और उनके उत्तरों की प्रतीक्षा में इन बेपनाह खानाबदोशों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुजर चुकी / रही है। आज स्वाधीन भारत के लगभग 11 करोड़ ये बेपनाह लोग अपने (बीते हुये) कल के विरुद्ध खड़े हैं बिना किसी (आने वाले) कल के सपने के साथ। 

(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय महासचिव हैं, लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके व्यक्तिगत हैं )

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