विश्लेषण : ग्लास्गो समझौते से दुनिया को क्या मिला

निर्धारित समय से अधिक दिन तक चले कॉप-26 से वे उम्मीदें पूरी नहीं हो सकीं, जिसकी आस में विश्व इसकी ओर ताक रहा था। ऐसे में यक्ष प्रश्न है कि अब तेजी से गर्म होती पृथ्वी को आखिर राहत कहां से मिलेगी

By Richard Mahapatra, Snigdha Das, Avantika Goswami

On: Thursday 09 December 2021
 

कॉप-26 के उत्तरार्द्ध में जब लगभग 200 देशों के प्रतिनिधियों ने ग्लास्गो समझौते पर हस्ताक्षर किये, तो कांफ्रेंस आफ द पार्टीज (कॉप-26) के अध्यक्ष आलोक शर्मा को अपनी आंखों में भर आये आंसुओं को रोकने के लिए संघर्ष करना पड़ा। समझौते के आखिरी चरण में भारत के केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव द्वारा हस्तक्षेप करते हुए कोयले के इस्तेमाल को लेकर समझौते में “धीरे-धीरे खत्म करने” की जगह “धीरे-धीरे कम करने” के इस्तेमाल पर जोर देने पर उनकी प्रतिक्रिया वार्ता के बेपटरी होने जैसी थी।

कई देशों की तरफ से इस पर निराशा व्यक्त करने के बावजूद भारत की ओर से प्रस्तावित बदलावों को समझौते में जगह दी गई। इस पर प्रतिक्रिया देते हुए शर्मा ने कहा, “मैं माफी चाहता हूं।” इसके बाद बदलावों को स्वीकार करने की वजह को रेखांकित करते हुए कहा कि समझौते की परिणति के लिए ये संशोधन जरूरी था। इस तरह 31 अक्टूबर से 12 नवंबर तक चलने वाला ये सम्मेलन एक दिन और चला और आखिर में समझौता हुआ।

13 नवम्बर की सुबह जारी हुआ ग्लास्गो समझौता, इसका तीसरा ड्राफ्ट था, लेकिन पहले के दो ड्राफ्ट से बहुत अलग नहीं था। एक दिन तक चले विमर्श के बाद “समझौता” और “संतुलन” के नाम पर एक के बाद एक देश समझौते पर राजी होते गये। कोस्टारिका ने इस मौके पर कहा, “ड्राफ्ट भले ही आदर्श न हो, लेकिन व्यावहारिक है। ये समझौता त्रुटिरहित नहीं है, लेकिन हम इस पर साथ काम कर सकते हैं।” अन्य देशों ने भी यही भावनाएं व्यक्त कीं।

काॅप-26 में दुनिया ने जलवायु इमरजेंसी को स्वीकार किया। ग्लास्गो जलवायु समझौते में 2015 के पेरिस समझौते की तरह ही साल 2030 तक वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने पर सहमति जताई गई। और ये भी स्वीकार किया गया कि वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित रखने के लिए ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में तेजी से और निरंतर कटौती करनी होगी। साथ ही कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में साल 2030 तक 45 प्रतिशत की कमी लानी होगी और आधी सदी तक नेट जीरो करना होगा और साथ ही साथ अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भी कमी लानी होगी। दुनिया के पास इस लक्ष्य पर पहुंचने के लिए महज 98 महीने बचे हैं।

एक गैर सरकारी संस्था क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर के मुताबिक, उत्सर्जन कम करने का जो लक्ष्य देशों ने रखा है, उससे तापमान 2.4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। अन्य वैज्ञानिक विश्लेषणों में भी विध्वंसक स्थिति का अनुमान लगाया गया है।

डील या नो डील

वनों की कटाई, मीथेन उत्सर्जन में कमी एवं कृषि पर हुई कुछ महत्वपूर्ण डीलों को यदि छोड़ दें तो कॉप-26 में कुछ खास नहीं हुआ। यूएनएफसीसीसी के कॉप-26 के दौरान कई देशों ने साथ आकर अपनी उत्सर्जन गतिविधियों में कटौती करने का प्रण किया। इनमें वृक्षों की कटाई से लेकर मीथेन उत्सर्जन में कटौती जैसी बातें शामिल हैं। कृषि और वैश्विक बाढ़ों पर भी विचार-विमर्श हुआ। लेकिन ये सारे प्रण गैर बाध्यकारी और स्वैच्छिक हैं। हालांकि अपने इरादों की घोषणा और उसे राजनैतिक समर्थन देना आज मायने रखता है क्योंकि हमारी धरती लगातार गर्म हो रही है।

कृषि : ठंडे बस्ते में

कॉप-26 में वन, व्यापार एवं परिवहन की तरह कृषि के लिए एक खास दिन नहीं था और इसे “प्रकृति दिवस” के एक भाग के रूप देखा गया। कृषि, वन एवं भूमि कुल मीथेन उत्सर्जन के एक चौथाई हिस्से के लिए ज़िम्मेदार हैं।

“प्रकृति दिवस” के अवसर पर 45 देशों ने पालिसी एक्शन एजेंडा पर सहमति व्यक्त की। इनमें स्विटजरलैंड, नाइजीरिया, स्पेन एवं यूएई शामिल हैं और ये देश कुल हरित गृह उत्सर्जन के 10 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं। यूके की सरकार ने कहा कि ये देश कृषि के नए एवं संवहनीय तरीकों का इस्तेमाल और उनमें निवेश के लिए कटिबद्ध हैं। कुल 26 देशों ने अपनी कृषि नीतियों में परिवर्तन लाने और उत्पादन को संवहनीय बनाने एवं प्रदूषण में कटौती का प्रण लिया है।

इसके अलावा कृषि क्षेत्र में 4 बिलियन डॉलर का निवेश करने की बात भी कही गई है। कॉप-26 के अध्यक्ष आलोक शर्मा ने कहा कि पेरिस समझौते को पूरा करने के लिए प्रकृति एवं भूमि की भूमिका को समझे जाने की आवश्यकता है। इससे जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ जैव विविधता को भी फायदा होगा।

23 सितंबर को हुए संयुक्त राष्ट्र फुड सिस्टम्स समिट में इसकी एजेंसियों ने कृषि गतिविधियों एवं किसानों को दिए जा रहे समर्थन की समीक्षा की मांग की। उनका कहना है कि जिन क्षेत्रों में किसानों को सर्वाधिक समर्थन मिलता है, वे उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार होने के साथ-साथ पर्यावरण के लिए भी नुकसानदेह हैं।

उदाहरण के लिए बीफ उद्योग को सर्वाधिक समर्थन प्राप्त है जबकि यह हरित ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हैं। इंटरनेशनल फुड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के जोसफ ग्लौबेर का मानना है कि इस समर्थन को नए सिरे से देखने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, पेरिस समझौतों को प्राप्त करने के लिए सभी देशों को अपना ध्यान मीट एवं डेरी उद्योग की ओर करना पड़ा जो वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के 14.5 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार है।

कृषि व्यवस्था में उपभोग को एक नई दृष्टि की आवश्यकता थे लेकिन इस पर कोई बात ही नहीं हुई। जिस समझौते पर हस्ताक्षर हुए उसमें “मीट उपभोग” का कहीं कोई जिक्र नहीं है। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के कृषि सेक्रेटरी थॉमस विलेसैक ने दी गार्डियन को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि उन्हें नहीं लगता कि अमेरिका को मांस या पशुओं के उत्पादन में कमी लाने की आवश्यकता है क्योंकि उनका अधिकांश उत्पाद निर्यात किया जाता है। उनके अनुसार बात उपभोग की न होकर उत्पादन को संवहनीय बनाने की है। कृषि परिस्थितिकियों को प्रकृति के साथ तालमेल में विकसित किए जाने की आवश्यकता है। तकनीकी समाधान असफल ही रहेंगे।

हालांकि कृषि यूएनएफसीसीसी के 1995 समझौते का हिस्सा था लेकिन इस पर पहली बार बात 2011 में हुई। 2017 के कॉप-23 में कोरोनिविया जॉइंट वर्क ऑन एग्रीकल्चर की स्थापना हुई जिसे एक मील का पत्थर माना जाता है। इसने जलवायु परिवर्तन से लड़ने में कृषि की भूमिका की ओर ध्यान आकर्षित किया। यह यूएनएफसीसीसी के अंतर्गत एकमात्र प्रोग्राम है जो कृषि एवं खाद्य सुरक्षा पर केंद्रित है। हालांकि केजेडब्ल्यूए (केजेडब्ल्यूए) ने कॉप-26 में कुछ इवेंट जरूर किये लेकिन हमेशा की तरह उन पर कोई खास चर्चा नहीं हुई।



मीथेन : कॉप में पहली बार महत्व

जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कारकों में मीथेन सबसे बड़ा कारक बनकर उभरा है जबकि कुछ सालों पहले तक इसकी कोई चर्चा नहीं थी। 2 नवंबर को अमेरिका एवं यूरोपीय संघ के अगुआई में 105 देशों ने एक स्वैछिक एवं गैर बाध्यकारी ग्लोबल मीथेन प्लग पर हस्ताक्षर किये। इसके अंतर्गत इन देशों ने वर्ष 2030 तक अपने मीथेन उत्सर्जन में कम से कम 30 प्रतिशत की कटौती का लक्ष्य रखा है। बाकी समझौतों की तुलना में यह जलवायु परिवर्तन पर सर्वाधिक असरदार हो सकता है।

यूएनईपी के कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन का कहना है कि अगले 25 वर्षों में जलवायु परिवर्तन को रोकने का सबसे अच्छा उपाय मीथेन उत्सर्जन में कटौती है। इस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले देशों में ब्राजील, नाइजीरिया एवं कनाडा जैसे 15 मुख्य उत्सर्जक शामिल हैं। हालांकि विश्व के तीन सबसे बड़े उत्सर्जक- भारत, रूस एवं चीन ने हस्ताक्षर नहीं किये। अफ्रीका के कम से कम 22 देशों ने इस पर हस्ताक्षर किए हैं। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और यूरोपीय संघ ने इस संकल्प-प़त्र पर सितंबर 2021 में ही हस्ताक्षर कर दिए थे, जब केवल नौ देशों ने इस पर हस्ताक्षर किए थे।

आईपीसीसी की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक कम आयु वाले प्रदूषक जैसे मीथेन इत्यादि पर ध्यान देने की आवश्यकता है। मानव गतिविधियों से उत्पन्न कुल मीथेन उत्सर्जन का 40 प्रतिशत कृषि, 35 प्रतिशत जीवाश्म ईंधन और बाकी 20 प्रतिशत अपशिष्ट से आता है।

मीथेन की आयु एवं हमारे वातावरण में उपलब्धता कार्बन डाइ (सीओटू)ऑक्साइड की तुलना में काफी कम है लेकिन मीथेन सीओटू की तुलना में 84 गुना अधिक ऊष्मा सोखती है। यूएनईपी के अनुसार औद्योगिक क्रांति के बाद हुए जलवायु परिवर्तन की एक तिहाई जिम्मेदारी मीथेन की है। 2000 की तुलना में वर्तमान में मीथेन की मात्रा में 6 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

यूरोपीय कमीशन के अध्यक्ष वोन डर लेयेन का मानना है कि अगर समझौते को पूरा किया गया तो 2050 तक तापमान में 0.2 डिग्री की कमी आ सकती है लेकिन उसके लिए बड़े संरचनात्मक परिवर्तनों की आवश्यकता होगी। लेयेन के अनुसार तेल एवं गैस सेक्टर से उत्सर्जित मीथेन में 75 प्रतिशत की कटौती संभव है।

एक अन्य संस्था द्वारा किये गए ग्लोबल मीथेन असेसमेंट के अनुसार मानव गतिविधियों द्वारा हो रहे उत्सर्जन में 45 प्रतिशत कटौती भी हमारे लक्ष्य पूरा कर सकती है। मीथेन के ऑक्सीडेशन से ग्राउंड लेवल ओजोन भी बनती है जो स्मॉग एवं प्रदूषण का मुख्य कारण है।

अतः उत्सर्जन में कमी आने से लोगों के स्वास्थ्य एवं जीवन पर भी सकारात्मक असर होगा और स्वास्थ्य सेवाओं पर बोझ घटेगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्सर्जन में यह कटौती बिना किसी अतिरिक्त व्यय के संभव है।

जंगलों का ह्रास : रोकथाम एवं उपाय

वृक्षों की कटाई रोकने एवं वृक्षारोपण करने के लिए 105 देशों ने ग्लास्गो लीडर्स डिक्लेरेशन ऑन फॉरेस्ट्स एंड लैंड यूज पर हस्ताक्षर किए हैं। कॉप-26 के सबसे पहले प्रमुख परिणाम की बात करें तो विश्व की कुल वन भूमि के 85 प्रतिशत हिस्से पर स्वामित्व रखने वाले 105 देशों ने ग्लास्गो लीडर्स डिक्लेरेशन ऑन फॉरेस्ट्स एंड लैंड यूज पर हस्ताक्षर किए, जिसका उद्देश्य 2030 तक भूमिक्षरण और वनों की कटाई को रोकना शामिल है। इस डील से जंगलों पर आधारित विश्व की लगभग 25 प्रतिशत आबादी को फायदा होगा। प्रत्येक साल जीवाश्म ईंधन के जलने से उत्पन्न होने वाले कार्बन डाईआक्साइड के एक तिहाई हिस्से को वन अवशोषित कर लेते हैं। लेकिन इस विशाल कार्बन अवशोषक सिंक को हम प्रति मिनट 27 फुटबॉल के आकार के मैदानों के बराबर की दर से खोते जा रहे हैं।

जंगल वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड का एक तिहाई हिस्सा सोख लेते हैं लेकिन उनकी क्षमता में लगातार कमी आ रही है। वर्तमान में कुल उत्सर्जन का 23 प्रतिशत हिस्सा भूमि से जुड़ी गतिविधियों जैसे खेती और वृक्षों की कटाई इत्यादि से आता है। यह नई डील 2015 के पेरिस मैंडेट के विस्तार के रूप में देखी जा सकती है।

इस डील पर हस्ताक्षर करने वालों में दोनों किस्म के देश हैं, पहले जो वृक्ष काटते हैं और दूसरे जो उनका उपभोग करते हैं। उदाहरण के लिए यूके एवं यूरोपीय यूनियन अपनी ऊर्जा की जरूरतों के लिए बायोमास का इस्तेमाल करते हैं जिसका एक बड़ा हिस्सा जंगलों से आता है।

इसके अलावा, वृक्षों की कटाई के लिए जिम्मेदार मुख्य वस्तुओं के वैश्विक व्यापार के 75 प्रतिशत हिस्से का उपभोग करने वाले 28 देशों ने फॉरेस्ट्स, एग्रीकल्चर एंड कॉमोडिटी ट्रेड (फैक्ट) स्टेटमेंट पर हस्ताक्षर किए हैं। इसका उद्देश्य संवहनीय व्यापार एवं वनों पर दबाव कम करने के साथ सप्लाई चेन की पारदर्शिता सुनिश्चित करना है। इसके परिणामस्वरूप 30 व्यापारिक संस्थानों ने ऐसी वस्तुओं के प्रयोग पर रोक लगाने की बात कही है जिनके लिए जंगलों की कटाई होती है।

इसके साथ ही 2021-25 तक इस क्षेत्र को 19 बिलियन की मदद दी गई है। 2014 में 200 के आसपास प्राइवेट एवं सिविल संस्थाओं ने “न्यूयॉर्क डिक्लेरेशन ऑफ फॉरेस्ट्स” पर हस्ताक्षर किए थे जिसका लक्ष्य वृक्षों की कटाई को 2020 तक आधा करना और 2030 तक पूरी तरह रोकना था। ब्राजील, रूस एवं चीन ने इस पर हस्ताक्षर नहीं किये थे लेकिन अब वे ग्लास्गो डिक्लेरेशन पर राजी हो गए हैं।

इसके अलावा दुनियाभर के कई बैंकों ने भी अपनी नीतियों में परिवर्तन लाने का प्रण किया था और लकड़ी, तेल इत्यादि जैसे क्षेत्रों में निवेश कम करने का प्रण लिया था एक अंतरराष्ट्रीय गैर लाभकारी संस्था, ग्लोबल विटनेस के हेड ऑफ फारेस्ट एडवोकेसी जो ब्लैकमैन को डर है कि कहीं ग्लास्गो डिक्लेरेशन भी पुरानी नीतियों की तरह अशक्त न रह जाए।

ग्लोबल विटनेस के एक अनुमान के अनुसार जो धनराशि इस उद्देश्य के लिए एकत्रित की गई है, वह असल जरूरत से कहीं कम है। इसके ठीक उलट वृक्षों की कटाई में निवेश लगातार जारी है। इसके अलावा वृक्षों की कटाई के लिए जिम्मेदार माने जा रहे देशों ने भी सवाल उठाए हैं।

इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो का कहना है कि उनके देश के करोड़ों लोग अपने जीवन यापन के लिए जंगलों पर निर्भर हैं। उनकी मांग है कि इस प्रकार के नए लक्ष्य केवल अमीर देशों की सहूलियत के हिसाब से न बनाये जाएं।

गैबन के राष्ट्रपति अली बोंगो ने भी इस बात से सहमति जताई और विकसित विश्व पर उनके जंगलों को लूटने का आरोप लगाया। भारत ने इस डिक्लेरेशन से दूरी बनाए रखी। भारत फॉरेस्ट कंजर्वेशन एक्ट 1980 में भी कुछ बदलाव लाना चाहता है ताकि चालू प्रोजेक्ट पूरे किए जा सकें और ग्लास्गो डिक्लेरेशन इस मार्ग में बाधा बन सकता था।

ग्लास्गो समझौता

1 — प्रभावितों की बातें हाशिए पर

जी-77 मुल्कों की “ग्लास्गो नुकसान और क्षति फैसिलिटी” स्थापित करने की मांग भी खारिज कर दी गई। कार्बन ऑफसेट में जिन समुदायों की जमीन छिन जिएगी, वे भी तमाम मुश्किलें झेलकर अपनी बात रखने के लिए ग्लास्गो पहुंचे थे, लेकिन उन्हें विमर्श से दूर हाशिये पर रखा गया। उनकी मांगें भी ग्लास्गो समझौते में जगह नहीं बना पाईं। दुनिया भर में होने वाले कार्बन उत्सर्जन में अमेरिका, यूके, यूरोपीय संघ, कनाडा, आॅस्ट्रेलिया, जापान और रूस की भागीदारी करीब 61 प्रतिशत है। इस उत्सर्जन को कम करने पर भी ग्लास्गो सम्मेलन में कुछ ठोस नतीजा नहीं निकल सका।

2 — उत्सर्जन लक्ष्य अव्यावहारिक

नाइजीरिया से लेकर अमेरिका और भारत ने भी नेट-जीरो का लक्ष्य तय कर दिया। ज्यादातर बड़े देशों ने कार्बन उत्सर्जन शून्य करने का जो लक्ष्य तय किया है, उस लक्ष्य तक चार दशकों के भीतर पहुंच जाने की बात कही है। इसके अलावा दूसरे मुल्कों ने भी शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य घोषित किया। लेकिन सिविल सोसाइटी का कहना है कि विकसित देशों द्वारा शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य तय कर देना दरअसल इन देशों की अपनी लेटलतीफी के लिए बहाना है। वहीं, इस लक्ष्य को लेकर विकासशील देशों का कहना है कि 2050 तक शून्य उत्सर्जन असल में जलवायु न्याय के खिलाफ है, क्योंकि विकासशील देशों का विकास कार्बन उत्सर्जन के बिना मुश्किल है और इन मुल्कों के पास कार्बन उत्सर्जन किये बिना खुद को विकसित करने के लिए उतना पैसा नहीं है।

3 —कोयले के इस्तेमाल में कमी

अब तक हुए यूएन जलवायु सम्मेलनों में से पहली बार ग्लास्गो जलवायु समझौते में कोयले और जीवाश्म ईंधन की चर्चा की गई। समझौते में कोयले के इस्तेमाल को धीरे-धीरे कम करने पर भी वार्ता हुई। भारत ने जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल पूरी तरह बंद करने के लिए डेडलाइन निर्धारण का विरोध किया और समझौता पत्र में “धीरे-धीरे खत्म करने” की जगह “धीरे-धीरे कम करने” जैसे शब्द शामिल करवाये। हालांकि सच यही है कि कोयले का इस्तेमाल अब धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा। 40 देशों ने ये वादा किया है कि वे कोयला संचालित पावर स्टेशनों को बंद कर देंगे, हालांकि चीन इसमें शामिल नहीं हुआ। लेकिन उसने ये कहा है कि कोयला आधारित ओवरसीज प्रोजेक्ट की फंडिंग बंद करेगा।

4 — बातें हुई, पर वादा नहीं

काॅप-26 में सबसे बड़े प्रदूषक देश अमेरिका और चीन ने कहा कि वैश्विक तापमान को धीमा करने के लिए वे मिलकर काम करेंगे। उन्होंने कार्बन उत्सर्जन कम करने, नेट-जीरो इकोनॉमी, क्लीन एनर्जी जैसी अच्छी-अच्छी बातें कहीं। लेकिन, इसके लिए उन्होंने कोई ठोस वादा नहीं किया और न ही इन सब को लेकर कोई लक्ष्य रखा और डेडलाइन ही तय की। अलबत्ता ये जरूर कहा कि वे कोयला संचालित ओवरसीज प्रोजेक्ट के लिए फंडिंग पर रोक लगाएंगे, लेकिन ये नई बात नहीं है बल्कि पुराने वादे का ही विस्तार है। कुल मिलाकर चीन और अमेरिका ने इन मामलों पर यथास्थिति ही बरकरार रखी।

5 — देर से उठाये गये मामूली कदम

काॅप-26 में ये समझौता हुआ है कि देश अपने जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आंशिक रूप से आॅफसेट कार्बन क्रेडिट खरीद सकते हैं। इसमें ये निर्णय भी लिया गया कि जो देश कार्बन क्रेडिट जेनरेट करेंगे, वे ही ये तय करेंगे कि इसे बेचना चाहते है या फिर अपने ही जलवायु लक्ष्यों में जोड़ेंगे। इससे कार्बन क्रेडिट में तेजी आने का अनुमान है। लेकिन, इसको लेकर जानकारों की अलग चिंता है। उनका कहना है कि संभावित खतरों से सुरक्षा के बावजूद ये सरकारों और कंपनियों को पर्यावरण हितैषी बताकर पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाले काम करने का अवसर देगा। इससे कागजों पर तो जलवायु लक्ष्य पूरा दिखेगा, लेकिन जमीन पर वायुमंडल बर्बाद होगा।

6 — लंबित भुगतान

ये बात किसी से छिपी नहीं है कि विकसित देश ऐतिहासिक रूप से अधिक कार्बन उत्सर्जन करते रहे हैं। ऐसे में इनकी जिम्मेदारी है कि ये विकासशील देशों को पैसा और तकनीक मुहैया कराएं ताकि ये जलवायु परिवर्तन से मुकाबला कर सकें। मगर वास्तविकता में ऐसा हो नहीं रहा है। यहां तक कि पूर्व में फंड जुटाने का जो लक्ष्य विकसित देशों ने रखा था, उसे अब तक पूरा नहीं किया जा सका है। साल 2009 में विकसित देशों ने वादा किया था कि वे 2020 से हर साल 100 बिलियन अमेरिकी डाॅलर का फंड जुटाएंगे, लेकिन अब तक फंड इकट्ठा नहीं हो सका। काॅप-26 में विकासशील देशों में इसको लेकर नाराजगी भी दिखी।

7 —अनैच्छिक समर्थन

दुनियाभर में चरम मौसमी गतिविधियां देखने को मिल रही हैं। इससे बचने के लिए केवल इसके प्रभाव को कम करने पर नहीं बल्कि अनुकूलन पर भी ध्यान देने की जरूरत है। काॅप-26 में एक बड़ा मुद्दा अनुकूलन का भी था और इसके लिए समझौते में कार्यक्रम तैयार किया गया। लेकिन अनुकूलन के सबसे महत्वपूर्ण पहलू वित्त पर बात ही नहीं हो पाई। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक, विकासशील देशों को हर साल अनुकूलन के लिए 70 बिलियन अमेरिकी डॉलर चाहिए और साल 2030 में इन देशों को 140 से 300 बिलियन डॉलर की जरूरत होगी। लेकिन अफसोस की बात है कि काॅप-26 में अनुकूलन के लिए फंडिंग पर कोई समझौता नहीं हो पाया।

8 — आपकी क्षति, आपका नुकसान

जलवायु परिवर्तन से होने वाला नुकसान और क्षति काॅप-26 में बहस का एजेंडा नहीं था, फिर भी इस पर अलग से चर्चा की गई, लेकिन इसे ग्लास्गो समझौते में कोई जगह नहीं मिली। समझौते में सिर्फ जलवायु परिवर्तन के नुकसान को कम करने, इसे रोकने, वित्तीय मदद जैसे लुभावने शब्दों का इस्तेमाल किया गया, मगर वित्तीय मदद की बात टाल दी गई। जबकि विकासशील देश लम्बे समय से मांग कर रहे थे कि इस पर गंभीर बातचीत हो।

Subscribe to our daily hindi newsletter