तेजी से पिघल रहा माउंट एवरेस्ट का सबसे ऊंचा ग्लेशियर: अध्ययन

यह ग्लेशियर जो समुद्र तल से लगभग 7,906 मीटर ऊपर है, सतह पर बनने वाली बर्फ की तुलना में 80 गुना तेजी से पतला हो रहा है।

By Dayanidhi

On: Monday 07 February 2022
 
फोटो : जर्नल नेचर क्लाइमेट एंड एटमॉस्फेरिक साइंस

मानवजनित जलवायु परिवर्तन के कारण माउंट एवरेस्ट के सबसे ऊंचे ग्लेशियर अब तेजी से पिघल रहे हैं। पिघलने की यह गतिविधि अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है। बर्फ का जितना नुकसान पहले कई दशकों में होता था, अब उतना सालाना हो रहा है। इस बात का पता मेन विश्वविद्यालय की अगुवाई में अंतरराष्ट्रीय शोध टीम ने मौसम स्टेशन के आंकड़ों का विश्लेषण कर किया है। ये आंकड़े दुनिया के सबसे ऊंचे बर्फ के हिस्से या आइस कोर और सबसे ऊंचे स्वचालित मौसम स्टेशन से लिए गए हैं।

अधिक ऊंचाई वाले भागों में हिमालयी बर्फ तेजी से पीछे हटने लगी है। अध्ययन में अधिक ऊंचाई पर हिमस्खलन की बढ़ती घटनाओं और ग्लेशियर में जमा पानी की घटती क्षमता के बारे में चेतावनी दी गई है। इन ग्लेशियरों के पिघलने से निकलने वाले पानी पर 100 करोड़ से अधिक लोग पीने के पानी और सिंचाई के लिए निर्भर रहते हैं।

मेन विश्वविद्यालय के जलवायु वैज्ञानिक मारियस पोटोकी और पॉल मेवेस्कीजिस ने कहा कि जिस दर पर सबसे ऊंचे ग्लेशियर गायब हो रहे हैं, उस हिसाब से माउंट एवरेस्ट अभियान और अधिक चुनौतीपूर्ण हो सकता है, क्योंकि आने वाले दशकों में बर्फ और बर्फ का आवरण पतला होता जाएगा, जिस पर चढ़ना और कठिन हो जाएगा।

टीम के निष्कर्ष 2019 नेशनल ज्योग्राफिक और रोलेक्स परपेचुअल प्लैनेट एवरेस्ट अभियान के नवीनतम शोध के परिणाम हैं। मेन विश्वविद्यालय के क्लाइमेट चेंज इंस्टीट्यूट के छह अभियान सहित वैज्ञानिकों ने वैश्विक तापमान वृद्धि के रूप में पृथ्वी पर जीवन के लिए भविष्य के प्रभावों को समझने हेतु पर्यावरणीय बदलावों का अध्ययन किया है।

मेवेस्की ने कहा यह नवीनतम शोध उन ऊंचाइयों की पुष्टि करता है जो मानवजनित जलवायु परिवर्तन तक पहुंचते हैं और अन्य ऊंचे पर्वत ग्लेशियर प्रणालियों के लिए एक राहनुमा या बेलवेदर के रूप में कार्य करते हैं। ग्लेशियर के बड़े पैमाने पर गिरावट से अभियानों पर भारी असर पड़ने के आसार हैं। मेवेस्की एक ग्लेशियोलॉजिस्ट और यूमेन के जलवायु परिवर्तन संस्थान के निदेशक हैं। मेवेस्की हमेशा एवरेस्ट अभियान के लिए एक प्रमुख वैज्ञानिक के तौर पर शामिल होते हैं।

उन्होंने कहा यह हमारे 2019 एनजीएस-रोलेक्स माउंट एवरेस्ट अभियान द्वारा उठाए गए बड़े प्रश्नों में से इसमें एक का उत्तर मिलता है। जिसमें पूछा गया कि, क्या धरती पर सबसे ऊंचे ग्लेशियर मानवजनित जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होते हैं? जवाब हां में है और 1990 के दशक के उत्तरार्ध से बहुत महत्वपूर्ण है।

अध्ययन महत्वपूर्ण संतुलन की ओर इशारा करता है जो बर्फ से ढकी सतह प्रदान करता है। सबसे ऊंचे पर्वतीय ग्लेशियर प्रणालियों में नुकसान की आशंका के रूप में बर्फ के आवरण के अधिक निर्माण की क्रिया में बदलाव रुक जाता है। इसमें एक ठोस से वाष्प की अवस्था में गुजरना और जलवायु प्रवृत्तियों द्वारा संचालित सतह पिघलना शामिल है। एवरेस्ट का सबसे ऊंचे  ग्लेशियर ने इस नाजुक संतुलन के लिए एक प्रहरी के रूप में कार्य किया है। ग्लेशियर ने यह भी प्रदर्शित किया है कि पृथ्वी की छत भी मानवजनित करणों से बढ़ते तापमान से प्रभावित होती है।

साउथ कोल ग्लेशियर में बड़े पैमाने पर हुए नुकसान के समय और कारणों का पता लगाया गया है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने 10 मीटर लंबे बर्फ के कोर और मौसम स्टेशनों के साथ-साथ फोटोग्राममेट्रिक और उपग्रह इमेजरी और अन्य रिकॉर्ड से विश्लेषित किए गए आंकड़ों का उपयोग किया। उन्होंने अनुमान लगाया कि बर्फ के पतले होने की दर अब प्रति वर्ष लगभग 2 मीटर करीब पहुंच रही है। ग्लेशियर स्नोपैक से बर्फ में बदल गया है, जिससे सौर विकिरण को प्रतिबिंबित करने की क्षमता का नुकसान हो रहा है, जिसके परिणामस्वरूप बर्फ के तेजी से पिघलने की क्रिया में वृद्धि हुई है।

एक बार साउथ कोल ग्लेशियर की बर्फ के नियमित रूप से उजागर हो जाने के बाद, लगभग 55 मीटर ग्लेशियर के पतले होने का अनुमान एक चौथाई सदी में हुआ है। सतह पर बर्फ बनाने में लगे लगभग 2,000 वर्षों की तुलना में 80 गुना अधिक तेजी से पतला हो रहा है। शोधकर्ताओं ने गौर किया कि इस क्षेत्र में पूरी सतह के बर्फ के बड़े पैमाने पर नुकसान में वृद्धि हुई है। स्थायी स्नोपैक से बहुत अधिक  बर्फ के आवरण में बदलाव 1950 के दशक से जलवायु परिवर्तन की वजह से शुरू हो सकता है, हवा के बढ़ते तापमान से इस क्रिया में तेजी से वृद्धि हुई है। 1990 के दशक के उत्तरार्ध से ग्लेशियर पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव सबसे तीव्र रहा है।

मॉडल सिमुलेशन में पाया गया कि इस क्षेत्र के अत्यधिक सूर्य की गर्मी का मतलब है कि पिघलने या वाष्पीकरण द्वारा सतह के द्रव्यमान का नुकसान 20 से अधिक के कारणों से तेज हो सकता है। गर्म हवा के तापमान ने अधिकांश बर्फ को पतला बनाने में अहम भूमिका निभाई। इसके पीछे सापेक्षिक आर्द्रता में गिरावट और तेज हवाएं भी कारक थे।

हिमालय के लिए जलवायु संबंधी अनुमान निरंतर बढ़ते तापमान और बड़े पैमाने पर ग्लेशियरों के नुकसान के बारे में चेतावनी देते हैं। पोटोकी कहते हैं यहां तक कि एवरेस्ट की चोटी भी मानवजनित करणों से बढ़ते तापमान से प्रभावित होती है।

माउंट एवरेस्ट अभियान में नेशनल ज्योग्राफिक सोसाइटी और त्रिभुवन विश्वविद्यालय के नेतृत्व में वैज्ञानिकों और पर्वतारोहियों की अंतरराष्ट्रीय टीम के सदस्य इसमें शामिल थे।

अभियान दल ने दुनिया के दो सबसे ऊंचे मौसम स्टेशनों (8,430 मीटर और 7,945 मीटर पर) को स्थापित किया, अब तक का सबसे ऊंचा आइस कोर (8,020 मीटर पर) एकत्र किया, कई ऊंचाई पर व्यापक जैव विविधता सर्वेक्षण किया गया। अधिक ऊंचाई वाले हेलीकॉप्टर-आधारित लिडार स्कैन लगाए गए।

ऊंचे आवासीय प्रजातियों के लिए ऊंचाई के रिकॉर्ड का विस्तार किया और पहाड़ के ग्लेशियरों के इतिहास का दस्तावेजीकरण किया गया। सबसे अधिक ऊंचाई वाले आइस कोर और जमीन पर सबसे अधिक ऊंचाई वाले मौसम स्टेशन इस नए अध्ययन का अहम भाग है और हाल ही में अभियान के तीन गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में से दो को स्थापित किया है। यह अध्ययन नेचर क्लाइमेट एंड एटमॉस्फेरिक साइंस जर्नल में प्रकाशित हुआ है।

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