वायुमंडल में कितनी दूर तक यात्रा कर सकता है माइक्रोप्लास्टिक, यह उसका आकार करता है तय : रिसर्च

माइक्रोप्लास्टिक का यह बढ़ता जहर आज पूरी दुनिया में फैल चुका है, जो हवा, पानी, खाने-पीने की चीजों से लेकर हमारे शरीर तक में घुसपैठ कर चुका है

By Lalit Maurya

On: Friday 24 November 2023
 
बांग्लादेश में प्लास्टिक कचरे का जमा पहाड़, फोटो: आईस्टॉक

रिसर्च से पता चला है कि प्लास्टिक के महीन कण वायुमंडल में कितनी दूर तक यात्रा कर सकते हैं, यह उनके आकार पर निर्भर करता है। प्लास्टिक के इन महीन कणों को जेट स्ट्रीम के जरिए महासागरों और महाद्वीपों के पार तक ले जाया जा सकता है। गौरतलब है कि माइक्रोप्लास्टिक का यह बढ़ता जहर आज पूरी दुनिया में फैल चुका है। प्लास्टिक के अत्यंत महीन कणों को जिनका आकार पांच मिलीमीटर या उससे कम होता है, माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है।

बता दें कि रोजमर्रा की चीजों, पैकेजिंग और सोडा बोतलों जैसे सामान में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक के यह बेहद महीन कण हवाओं के जरिए पूरी दुनिया की यात्रा कर सकते हैं। ऐसे में माइक्रोप्लास्टिक वातावरण में किस तरह यात्रा करता है, इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने हाल ही में एक मॉडल तैयार किया है।

विश्लेषण से पता चला है कि पिछले अध्ययनों में जो कयास लगाए गए थे उनके विपरीत गोल की जगह सपाट सतह वाले फाइबर कहीं ज्यादा संख्या में मौजूद हैं और वो निचले वायुमंडल में कहीं ज्यादा लंबी दूरी तय कर सकते हैं। यह जानकारी कॉर्नेल विश्वविद्यालय और यूटा स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा किए अध्ययन में सामने आई है। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित हुए हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि माइक्रोप्लास्टिक आज पूरी दुनिया के लिए एक बड़ी समस्या बन चुका है। हमारे ग्रह पर शायद ही कोई ऐसी जगह होगी, जो इस बढ़ते खतरे की चपेट में न आई हो। यह कण जमीन और महासागरों से लेकर वायुमंडल पर भी काबिज हो चुके हैं। कुछ समय पहले जापानी वैज्ञानिकों को बादलों में भी माइक्रोप्लास्टिक्स की मौजूदगी के सबूत मिले थे। जो स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिहाज से बेहद हानिकारक साबित हो सकते हैं।

यहां तक की आज माइक्रोप्लास्टिक इंसानी शरीर में भी घुसपैठ कर चुका है। गौरतलब है कि हाल ही में वैज्ञानकों ने इस बात की पुष्टि की है कि एक हफ्ते में इंसान उतना माइक्रोप्लास्टिक निगल लेता है, जिससे एक क्रेडिट कार्ड बनाया जा सकता है।

बता दें कि माइक्रोप्लास्टिक के यह कण रक्त और इंसानी फेफड़ों के साथ-साथ नसों में भी मिले हैं। यहां तक कि अजन्में बच्चे की गर्भनाल में भी इसकी मौजूदगी की पुष्टि हो चुकी है। इतना ही नहीं रिसर्च से इस बात की भी पुष्टि हुई है कि प्लास्टिक के यह टुकड़े कोशिकाओं की कार्यप्रणाली को खराब कर सकते हैं।

एक अन्य अध्ययन से यह भी पता चला है कि हमारे हवा, पानी और भोजन में मौजूद प्लास्टिक के महीन कण बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स के खतरे को 30 गुणा तक बढ़ा सकते है।

क्या कुछ निकलकर आया अध्ययन में सामने

शोधकर्ताओं के मुताबिक वायुमंडल में पहुंचता यह माइक्रोप्लास्टिक कई स्रोतों से पैदा हो रहा है। इनमें कटे-फटे टायर से लेकर सड़क की धूल और समुद्र में तैरती सोडा बोतलें तक शामिल हैं। प्लास्टिक के यह टुकड़े छोटे-छोटे महीन कणों में टूटकर माइक्रोप्लास्टिक में बदल जाते हैं। यह इतने छोटे हो सकते हैं कि इन्हें हवा द्वारा ले जाया जा सकता है।

शोध के मुताबिक पिछले अध्ययनों में माइक्रोप्लास्टिक के इन सपाट सतह के फाइबरों को गोलाकार या बेलनाकार समझने की जो भूल की थी, उसकी वजह से इनके जमाव की दर का वास्तविकता से अधिक अनुमान लगाया गया था। इन फाइबरों के सपाट आकार को देखते हुए रिसर्च में पुष्टि की गई है कि यह पहले की गणना की तुलना में वायुमंडल में 450 फीसदी अधिक समय बिताते हैं, जिसकी वजह से यह कण वायुमंडल में कहीं ज्यादा लंबी दूरी तक यात्रा कर सकते हैं।

एक अन्य अध्ययन के मुताबिक वातावरण में प्रवेश करने के बाद माइक्रोप्लास्टिक के यह कण करीब छह दिनों तक हवा में रह सकते हैं। इतने समय में यह कई महाद्वीपों की यात्रा कर सकते हैं या फिर सांस के जरिए हमारे शरीर के अंदरूनी अंगों में जा सकते हैं।

इतना ही नहीं अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं को माइक्रोप्लास्टिक के जो ज्यादातर कण मिले हैं वो आकार में सपाट थे। कॉर्नेल विश्वविद्यालय और अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता क्यूई ली ने प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी दी है कि, “पिछले अनुमानों की तुलना में वायुमंडल में पहुंचने वाले माइक्रोप्लास्टिक में समुद्र की बड़ी भूमिका हो सकती है।“

उनका आगे कहना है कि, “अब हम सटीक रूप से उन माइक्रोप्लास्टिक के स्रोतों का पता लगा सकते हैं, जो अंततः हवा में ले जाए जाएंगे।“ उनके अनुसार यदि हम जानते हैं कि कण कहां से आ रहे हैं तो हम इस प्लास्टिक कचरे को कम करने और उनके प्रबंधन के लिए बेहतर रणनीतियां, योजनाएं और नियम बना सकते हैं। उनके मुताबिक यह निष्कर्ष निचले वायुमंडल में परिवहन किए गए अन्य भारी कणों, जैसे धूल और पराग को भी नियंत्रित करने में मददगार हो सकते हैं।

प्लास्टिक जिसे कभी वरदान से कम नहीं समझा जाता था वो कितनी बड़ी समस्या बन जाएगा यह किसी ने भी नहीं सोचा होगा। 1907 में पहली बार सिंथेटिक प्लास्टिक 'बेकेलाइट' का उत्पादन शुरू किया गया था| लेकिन उसके उत्पादन में तेजी 1950 के बाद से आई। अनुमान है कि तब से अब तक हम इंसान 830 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन कर चुके हैं, जिसके 2025 तक दोगुणा हो जाने का अनुमान है। समय के साथ यह समस्या कितना विकराल रूप ले लेगी, इसका अंदाजा आप खुद लगा सकते हैं। ऐसे में इससे निपटने के लिए तत्काल कार्रवाई की दरकार है।

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