विश्व जल दिवस विशेष: क्या सच में सुरक्षित है आरओ का पानी, कहीं बीमार तो नहीं कर रहा?

जहां निगम की जलापूर्ति है वहां पानी को उबाल कर या यूवी फिल्ट्रेशन से भी बेहतर बनाया जा सकता है

By Vivek Mishra

On: Thursday 21 March 2024
 
राजस्थान में उदयपुर के बिछड़ी गांव में कम्युनिटी के लिए खोला गया आरओ प्लांट बंद पड़ा है (फोटो: विकास चौधरी / सीएसई)

पहली कड़ी में आपने पढ़ा विश्व जल दिवस विशेष: एक दशक में दोगुुना हुआ आरओ का बाजार, भूजल दोहन बढ़ा इसके बाद आपने पढ़ा: मानकों से खेल रहे हैं पानी के व्यापारी, क्या है टीडीएस का भ्रम? आगे पढ़ें तीसरी कड़ी 

क्या आरओ का पानी सुरक्षित है या फिर इसकी हमें वाकई जरूरत है। इससे पहले हम जानते हैं कि हमारे पास और क्या विकल्प हैं। पानी में बहुत से माइक्रोऑर्गेनिज्म को खत्म करने के लिए उसे उबालना सबसे पुराना और साबित तरीका है। वहीं, कीटाणुओं को पानी से अलग करने के लिए कैंडल वाटर फिल्टर का इस्तेमाल भी काफी पुराना है। लेकिन आज ज्यादातर लोग बाजार के प्रभाव और स्वास्थ्य की चिंताओं के कारण दुविधा में खड़े हैं कि कौन सी तकनीकी उनके पानी को बेहतर और उपभोग लायक बनाएगी।

वह वाटर प्यूरीफायर जो कैंडल टाइप फिल्टर के साथ रहता है वह पानी साफ करने का सबसे साधारण तरीका है। कैंडल में सामान्य तौर पर 3 माइक्रोग्राम से कम के छिद्र (पोर) होते हैं। यानी इससे अधिक आकार वाले पार्टिकल कैंडल के पोर को पार नहीं कर पाएंगे और साफ होकर निकलने वाले पानी में नहीं मिल सकेंगे। कैंडल फिल्टर सस्पेंडेड सॉलिड्स को हटाने के लिए बेहतर होता है। इसके लिए किसी तरह की बिजली की भी जरूरत नही होती है। हालांकि, ऐसे फिल्टर आर्सेनिक, फ्लोराइड आदि संक्रमण को हटाने के लिए नाकाफी हैं। यहां तक कि बैक्टीरिया के लिए भी नाकाफी हैं, ऐसे में फिल्टर के बाद भी पानी को उबाल कर ही पीना पड़ेगा। इसके अलावा कैंडल रोज अच्छे से काम कर सके, इसके लिए उसे निश्चित अंतराल पर साफ भी करना पड़ेगा। इस फिल्टर में समय भी ज्यादा लगता है। इस कारण से ही मशीनी प्यूरीफिकेशन सिस्टम ज्यादा लोकप्रिय हो गए।

इसी तरह से एक्टिवेटेड कार्बन फिल्टर भी प्यूरीफिकेशन में इस्तेमाल किया जाता है। यह क्लोरीन, कीटनाशक और अन्य अशुद्धियों को बहुत हद तक साफ कर सकता है। फिल्टरेशन के दौरान स्वाद और गंध पानी का बदल जाता है। इसके लिए भी बिजली की जरूरत नहीं होती है। हालांकि, यह भी पानी से माइक्रोब्स को हटाने में प्रभावी नहीं होता है। पुराने कार्बन फिल्टर तो माइक्रोब्स को जन्म भी दे देते हैं, इसलिए नैनो सिल्वर कोटेड कार्बन इन दिनों इस्तेमाल किया जा रहा है।

अल्ट्रा वायलेट लाइट प्यूरीफिकेशन सभी तरह के कीटाणु, जीवाणु, सूक्ष्मजीव (माइक्रोब्स), सिस्ट आदि को खत्म कर देता है। यह पानी में मौजूद 99.99 फीसदी नुकसानदायक ऑर्गेनिज्म को खत्म कर देता है। एक छोटा मर्करी लैंप प्यूरीफायर के भीतर होता है जो शॉर्ट वेव यूवी रेडिएशन पैदा करता है। यह रेडिएशन ही बैक्टीरिया और विषाणुओं की कोशिकाओं को खत्म कर देता है। माइक्रोब्स को भी पनपने से रोक देता है। हालांकि पानी में ऐसे जर्म जो निष्क्रिय हो गए हैं, वह पानी में ही बने रहते हैं। इन्हें हटाने के लिए फिर से फिल्टर की जरूरत पड़ती है। यूवी वाटर प्यूरीफिकेशन अक्सर या तो एक्टिवेटेड कार्बन फिल्टर के साथ होता है या फिर रिवर्स ओस्मोसिस प्रक्रिया के साथ देखने को मिलता है।

इन सभी वाटर प्यूरीफायर के अलावा जो सबसे लोकप्रिय प्यूरीफायर है वह है आरओ यानी रिवर्स ओस्मोसिस। इसके अलावा अल्ट्रा फिल्टरेशन प्यूरीफिकेशन भी होता है जो आरओ मेंबरेन की तरह ही काम करता है लेकिन यह डिजॉल्व सॉलिड और सॉल्ट को नहीं रोक पाता।

टीडीएस कम और ज्यादा मानकों की स्पष्ट जानकारी ज्यादातर लोगों को नहीं है। ऐसे में लोग पहली पसंद आरओ को ही रखते हैं। ज्यादातर सेल्समैन टीडीएस मीटर का इस्तेमाल करके लोगों को बताते हैं कि उनके घर का टीडीएस ज्यादा है या कम।

आरओ मार्केट में सबसे ज्यादा शेयर रखने वाले केंट आरओ की वेबसाइट पर टीडीएस की महत्वता को बताता एक लेख लोगों के लिए लिखा गया है। इस आर्टिकल में कई जगह लिखा जाता है कि पानी में ज्यादा टीडीएस पूरी तरह से पीने के लिए सेफ है। हालांकि, आगे एक फियर फैक्टर भी बताया जाता है कि लेड अथवा कॉपर जैसे सबस्टेंस स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इसी आर्टिकल में कई जगह यह लिखा है कि उच्च टीडीएस सिर्फ आपके पानी और खाने का स्वाद बदल सकता है लेकिन यह उपभोग के लिए सेफ है। फिर लेख कहता है कि 50 एमजी प्रति लीटर से कम टीडीएस पानी में स्वास्थ्य के लिए घातक है क्योंकि उसमें जरूरी तत्व निकल जाते हैं। इसी कंपनी की वेबसाइट पर निलेश बागडे नाम के उपभोक्ता अपनी शिकायत दर्ज कराते हैं कि मेंटनेंस के वक्त आने वाले सेल्समैन या इंजीनियर कभी टीडीएस की वैल्यू को लेकर चिंतित नहीं होते हैं। उन्होंने एक रैंडम टेस्ट में पाया कि केंट आरओ का टीडीएस 50 से नीचे है।

डेड वाटर

नीलेश अकेले ऐसे नहीं हैं जिन्हें पानी के मानकों की ज्यादा फिक्र नहीं है बल्कि आरओ पर पूरा विश्वास है। आरओ पानी में सब ठीक कर देगा ऐसा विश्वास अब ज्यादातर शहरों में पहुंच चुका है। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में ज्यादातर लोग पानी में कैल्शियम ज्यादा आने की समस्या को पेट में पथरी बनने की समस्या से जोड़ते हैं। इसे देखते हुए लोग घरों में आरओ वाटर सिस्टम लगा रहे हैं।

यह लेख मूल रूप से डाउन टू अर्थ मार्च 2024 के आवरण कथा में प्रकाशित हुआ था। 
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जल वैज्ञानिक राजेश सिंह बताते हैं कि देहरादून और हरिद्वार में पानी में कैल्शियम बहुत ज्यादा नहीं है बल्कि पानी में अस्थायी कठोरता है। अक्सर बाल्टी में या पानी गर्म करने वाले रॉड में सफेद परत का चढ़ना अस्थायी कठोरता ही होती है। पानी की कठोरता में मुख्यतः कैल्शियम बाईकॉर्बोनेट और मैग्नीशियम बाईकॉर्बोनेट शामिल होते है। वहीं, देहरादून स्थित गैर सरकारी संस्था द सोसाइटी ऑफ पॉल्यूशन एंड एनवायरमेंट कंजर्वेशन साइंटिस्ट्स (एसपीईसीएस) बीते दो दशक से लोगों के पानी स्रोतों की जांच करके उन्हें जागरूक कर रही है। इस संस्था से जुड़े बृज मोहन शर्मा डाउन टू अर्थ से बताते हैं कि तमाम इलाकों में ड्रिप कैंडल फिल्टर्स पर्याप्त हैं लेकिन लोगों में जागरुकता की बड़ी कमी है और जिस कारण उनके यहां भी घरों में आरओ लगाने की होड़ चल पड़ी है। इनमें ज्यादातर आरओ सर्टिफाइड भी नहीं हैं। बृज मोहन शर्मा के अनुसार, “आरओ से निकला हुआ पानी डेड वाटर है। वह ऐसा पानी है जो बैटरी में इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन पीने के लिए बिल्कुल ठीक नहीं है। साधारण तरीके से उबाला हुआ और बहुत हद तक ड्रिप कैंडल फिल्टर्स ही पानी की बहुत सारी समस्याओं का समाधान कर देते हैं। मसलन जीवाणु और किटाणु का खात्मा इन्हीं प्रक्रियाओं से हो जाता है।” वह आगे कहते हैं कि यूवी वाटर प्यूरीफायर पानी कितना भी पतला हो उसे भेद नहीं सकता। इसलिए यूवी के जरिए बैक्टीरिया और जर्म्स का खात्मा भी पूरी तरह नहीं होता।

यूरेका फोर्ब्स के एक प्रचार मैनुअल की मानें तो यूवी के जरिए निकला पानी और 20 मिनट तक उबाला गया पानी एक बराबर ही स्वच्छ है। वहीं, बृज मोहन शर्मा बताते हैं कि ज्यादातर घरों में आरओ से निकले हुए पानी में उन्हें 18 से 25 एमजी प्रति लीटर तक टीडीएस वाला पानी मिलता है जो बिल्कुल भी पीने योग्य नहीं है फिर भी बाजार में पानी को लेकर डराने वाले विज्ञापनों ने लोगों को आरओ लेने के लिए मजबूर कर दिया है। केंट, यूरेका फोर्ब्स का एक्वागार्ड, एओ स्मिथ, लिवप्योर, प्योरिट जैसे प्रमुख आरओ ब्रांड पानी में जरूरी खनिज के बचाने का दावा करते हैं। इस पर बृज मोहन शर्मा का कहना है कि पहले तो सभी तरह के आरओ पानी में मौजूद जरूरी मिनरल्स निकाल देते हैं फिर आर्टिफिशियल तरीके से मिनरल जोड़ते हैं। यह मिनरल्स शरीर में पहुंचने से पहले ही उड़ जाते हैं। जबकि पानी में प्राकृतिक तरीके पर मौजूद माइक्रो न्यूट्रिएंट्स या माइक्रो मिनरल शरीर में जल्दी एब्जॉर्ब हो जाते हैं। वह बताते हैं कि नींबू से मिलने वाला विटामिन सी और दवाओ से मिलने वाले विटामिन सी में बहुत फर्क है।

हंगरी वाटर

पानी में कम टीडीएस का होना चिंता का विषय है। राजेश सिंह कहते हैं कि कम टीडीएस वाले पानी को हंगरी वाटर कहा जाता है। यह शरीर पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। वह इसे और विस्तार देते हुए कहते हैं, “यदि डिस्टिल्ड वाटर दो गिलास पी भी लिया जाए तो उससे तत्काल कोई फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन शरीर में पहले से मौजूद एंजाइम और मिनरल्स को वह एब्जॉर्ब करना शुरू कर देगा जिससे डायरिया जैसी शिकायत हो सकती है। इसलिए कम टीडीएस वाला पानी स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकता है।

पानी का काम बॉडी को हाइड्रेट करना, पीएच ठीक रखना, हाजमा दुरुस्त रखना ऐसे बहुत से और भी काम हैं लेकिन सबसे अहम काम हमारे शरीर में मौजूद जहरीले तत्वों को बाहर निकालना है। ऐसे में वह पानी जो हमारे शरीर से किसी तरह का एंजाइम या मिनरल नहीं ले रहा है वह पानी शुद्ध और अच्छा है।” वह आगे कहते हैं कि मनुष्य को मिनरल्स पानी से कम और अनाज और सब्जियों से ज्यादा मिलता है। एक वयस्क मनुष्य के कैल्शियम की जरूरत दो गिलास दूध से पूरी हो जाती हैं। इसलिए पानी में टीडीएस के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को डब्ल्यूएचओ ने ज्यादा तरजीह नहीं दी है। वह आगे बताते हैं कि पानी के मिनरल्स सप्लीमेंट नहीं हैं। हमें प्रचुर मात्रा में खनिज सब्जी-फल दूध और अनाज से प्राप्त होते हैं।

21 नदियों में टीडीएस 80 से 150

डॉ जेपी गुप्ता,, पर्यावरण मामलों के सलाहकार और मैनेजिंग डायरेक्टर, ग्रीनस्टेट हाइड्रोजन इंडिया प्राइवेट लिमिटेड

डॉ जेपी गुप्ता, पर्यावरण मामलों के सलाहकार और मैनेजिंग डायरेक्टर, ग्रीनस्टेट हाइड्रोजन इंडिया प्राइवेट लिमिटेडइस बात के पुख्ता प्रमाण है कि आरओ पानी से 100 फीसदी तक खनिज निकाल देता है। मीठे पानी के नाम पर लोग आरओ के पानी का इस्तेमाल कर रहे हैं जिसके गंभीर स्वास्थ्य दुष्परिणाम हो सकते हैं। बाजार में उपलब्ध सभी प्रमुख आरओ ब्रांड जो पानी लोगों को दे रहे हैं वह मानव उपभोग के लिए फिट नहीं है। पानी में आर्सेनिक या फ्लोराइड का होना रेयर केस होता है। पांच साल पहले पर्यावरण मंत्रालय को मैंने एक रिपोर्ट सौंपी थी, उसमें हमने देश की 21 नदियों के पानी में टीडीएस जांचा था, इस शोध का नतीजा यह था कि इन नदियों में हमें औसतन 80 से 150 तक टीडीएस हासिल हुआ था। इसका स्पष्ट अर्थ है कि प्राकृतिक तौर पर पानी में 80 से 150 स्तर तक का टीडीएस मानव उपभोग के लिए एकदम बेहतर है। एनजीटी ने आरओ की उपयोगिता को लेकर जो एक्सपर्ट कमेटी गठित की थी, उस रिपोर्ट में बतौर चेयरमैन मैंने ये बिंदु स्पष्ट तरीके से उठाए थे कि पेयजल के लिए बीआईएस के जो स्टैंडर्ड हैं उनमें कोई भी न्यूनतम सीमा नहीं है। हमारी सिफारिश थी कि पानी में खनिजों की न्यूनतम और अधिकतम सीमाएं निर्धारित की जानी चाहिए। जिन स्थानों पर टीडीएस 500 एमजी प्रति लीटर से कम है, वहां आरओ बिल्कुल भी नहीं लगाया जाना चाहिए क्योंकि इस टीडीएस स्तर पर आरओ पानी को साफ नहीं कर रहा है।


वहीं, सीएसआईआर-नेशनल एनवॉयरमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (नीरी) के प्रधान वैज्ञानिक डॉक्टर अतुल वी मालधुरे ने 4,000 से अधिक स्रोतों पर पानी की जांच की और पाया कि जहां आरओ लगा है, वहां टीडीएस 25 या 30 एमजी प्रति लीटर था। इसका मतलब वहां कैल्शियम और मैग्नीशियम बहुत कम होगा। साथ ही आरओ में जब कृत्रिम तरीके से टीडीएस कम किया जाता है तब पीएच (क्षारीयता) वैल्यू 6 से भी कम हो जाता है। पानी में पीएच 6.5 से कम नहीं होना चाहिए। टीडीएस कम होगा तो क्षारीयता भी कम हो जाती है। इससे पानी में एसिडिटी बढ़ जाती है। आजकल एल्कालाइन वाटर का चलन बढ़ा है। दरअसल इसमें हाइड्रा ऑक्साइड एंड कॉर्बोनेट मिलाते हैं ताकि पीएच बढ़ जाए।

वाटर प्यूरीफायर मार्केट में उच्च टीडीएस एक बड़ा अहम पहलू बनाकर पेश किया गया है जिसमें बाजी आरओ निर्माता और विक्रेताओं ने जीत ली है। इसी आरओ बाजार का नया सिक्का अब एडेड मिनरल्स हैं। हालांकि, इसके विपरीत अब प्रमाण मिलने लगे हैं।

डाउन टू अर्थ को बीआईएस से आरटीआई के तहत मिले जवाब से पता चला कि 2023 में जारी नए मानक जो 50 लीटर प्रति घंटा उत्पादन करने वाले आरओ को कवर करते हैं उनमें मिनरल मिलाने की अनुमति दे दी गई है। आरओ कंपनियों ने बीआईएस मानक लाइसेंस के लिए जो दावे कि हैं उनकी जांच पड़ताल बताती है कि किसी ने अपने दावे में पानी में मिनरल एड करने की बात नहीं कही है। वहीं, विशेषज्ञ बताते हैं कि मिनरल का एड किया जाना बाजार का एक प्रचार भर है। एक कार्टेज होती है जिसमें कुछ स्टोन मौजूद होते हैं, आरओ से फिल्टर पास होने के बाद पानी इन कार्टेज से गुजरता है जिसमें दावा किया जाता है कि मिनरल बच जाते हैं। हालांकि, इन कार्टेज को कब और कैसे बदलना है, इस पर अक्सर लोग ध्यान नहीं देते।

अंधेरे में स्वास्थ्य मंत्रालय

आरओ पानी के उपभोग से मानव स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है? यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) से पांच सवाल आरटीआई के तहत 19 जनवरी, 2024 को पूछे थे। यह सवाल थे- क्या आरओ सिस्टम से निकलने वाले पेयजल का स्वास्थ्य पर कोई विपरीत प्रभाव पड़ता है? दूसरा सवाल था कि क्या आरओ से निकले पेयजल में मिनरल डिफिशिएंसी यानी खनिज की कमी होती है? यदि हां तो शरीर में किस तरह की खनिज की कमी देखी गई है? तीसरा सवाल था क्या आरओ पानी के शरीर पर प्रभाव या दुष्प्रभाव को लेकर कोई अध्ययन किया गया है तो उसकी रिपोर्ट हमें मुहैया कराएं? चौथा सवाल था क्या स्वास्थ्य मंत्रालय के जरिए आरओ पानी की सिफारिश गांव, शहर और कस्बों के लिए की गई है? अंतिम और पांचवा सवाल था कि क्या सार्वजनिक स्वास्थ्य पर आरओ सिस्टम के प्रभाव को लेकर कोई रिसर्च समरी मौजूद है?

21 फरवरी, 2024 को आईसीएमआर-राष्ट्रीय पोषण संस्थान हैदराबाद की तरफ से इन सभी सवालों के जवाब का एक ही उत्तर दिया गया। आरटीआई जवाब में कहा गया कि हमारे पास यह जानकारी नहीं है। इसके बाद डाउन टू अर्थ ने विभिन्न एक्सपर्ट्स से आरओ पानी के प्रभाव और दुष्प्रभाव को लेकर बातचीत की।

आरओ से निकलने वाला पानी वाकई में साफ नहीं बल्कि असंतुलित पानी है। 8 अगस्त, 2023 को जर्नल ऑफ द इंडियन मेडिकल एसोसिएशन में “एसोसिएशन बिटवीन रिवर्स ओस्मोसिस वाटर एंड हर्ट डिजीज, बैक पेन एंड ज्वाइंट पेन” शीर्षक से एक शोध प्रकाशित किया गया है। इसके शोधकर्ता गुजरात स्थित मेडिकल कॉलेज बड़ौदा की डिपार्टमेंट ऑफ कम्यूनिटी मेडिसिन की एसोसिएट प्रोफेसर संगीता वी पटेल व राहुल डी खोखड़िया, ग्रीनाम तरणी, जागृति राठौड़, देया घोष चटर्जी, जेसल एच पटेल हैं। इस शोध के नतीजे प्राथमिक हैं और कहा गया है कि इस पर अभी और शोध किया जाना बाकी है।

इस शोध के मुताबिक, 90 से 92 फीसदी फायदेमंद कैल्शियम और मैग्नीशियम रिवर्स ओस्मोसिस सिस्टम द्वारा निकाल दिए जाते हैं और कुछ महीनों तक लगातार आरओ पानी पीने से शरीर में ज्वाइंट पेन की समस्या हो जाती है। वहीं, अभी इसका कोरोनरी हार्ट डिजीज और बैक पेन से कोई संबंध नहीं मिला है। यह शोध वड़ोदरा के शहरी नागरिकों के ऊपर किया गया। साथ ही पाया गया कि वड़ोदरा नगर निगम के वाटर टैंक में टोटल हार्डनेस, कैल्शियम हार्डनेस और टीडीएस नॉर्मल रेंज में पाया गया। शोध के मुताबिक, कैल्शियम और मैग्नीशियम शरीर के लिए बेहद जरूरी मिनरल्स हैं। इनकी कमी से ओस्टियोपोरोसिस, हाइपरटेंशन और अन्य गंभीर समस्याएं भी हो सकती हैं।

इसी तरह आरओ वॉटर सिर्फ मिनरल्स ही नहीं माइक्रोन्यूट्रिएंट्स की कमी भी पैदा कर रहे हैं। द इजीप्तियन जर्नल ऑफ इंटरनल मेडिसिन में दिसंबर, 2022 में प्रकाशित “फैक्टर्स एसोसिएटेड विद विटामिन बी12 डिफिशिएंसी इन एडल्ट्स अटेंडिंग टेरिटरी केयर हॉस्पिटल इन वड़ोदरा : ए केस कंट्रोल स्टडी” के नतीजे में बताया गया है कि शाकाहारी भोजन, गहरा रंग, निम्न मध्यवर्गीय और आरओ वाटर का इस्तेमाल करने वाले कुछ लोगों में बी12 की कमी पाई गई है। इस शोध में सिफारिश की गई है कि ऐसे लोग जो शाकाहारी हैं, गहरे रंग के और निम्न मध्यवर्गीय होने के साथ आरओ वाटर का इस्तेमाल करते हैं उहें विटामिन बी12 का सप्लीमेंट लेना चाहिए या फिर बी12 फोर्टिफाइड भोजन खाना चाहिए। इसके शोधार्थी संगीता वी पटेल, अल्पेश बी मकवाना, अर्चना यू गांधी, ग्रीनाम तरणी, जेसल पटेल और विपुल भवसार हैं। शोध में आगाह किया गया है कि कि इस नतीजे का अभी सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता।

उत्तराखंड में जल शक्ति मंत्रालय के अधीन रुड़की स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी के जरिए “वाटर प्यूरीफायर्स फॉर ड्रिंकिंग वाटर” नामक रिपोर्ट को छह वैज्ञानिकों के द्वारा तैयार किया गया है। इसमें डॉ शरद के जैन, डॉ एमके शर्मा, डॉ राजेश सिंह, डॉ वाईआर सत्यजी राव, डॉ जेवी त्यागी शामिल हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि कैल्शियम और मैग्नीशियम एक जरूरी खनिज हैं जिसे पानी सप्लीमेंट करता है। रिपोर्ट के मुताबिक, मैग्नीशियम की कमी कई तरह की स्वास्थ्य समस्याओं से जुड़ी है। यह ब्लड प्रेशर, अनियमित हार्टबीट और डायबिटीज टाइप-2 व ओस्टियोपोरोसिस, ब्लड वेसल्स और गर्भवती महिलाओं में होने वाला उच्च रक्तचाप जिसे प्रीक्लेम्पसिया कहते हैं, जैसी समस्याएं हो सकती हैं।

हरियाणा के झज्जर में खातीवास गांव में मौजूद जल शोधन प्लांट (फोटो: विकास चौधरी / सीएसई)

आवश्यकता या नहीं

“वाटर प्यूरीफायर्स फॉर ड्रिंकिंग वाटर” रिपोर्ट बताती है कि लोगों के बीच वेंडर क्लेम यानी कंपनियों के दावों के कारण वाटर प्यूरीफायर को लेकर बहुत सा भ्रम है। आरओ आधारित वाटर प्यूरीफायर का बाजार इसीलिए फल-फूल रहा है क्योंकि लोग सोचते हैं कि सुरक्षित पेयजल केवल आरओ आधारित प्यूरीफायर दे सकते हैं जबकि आरओ सभी पानी के लिए बेहतर नहीं है। रिपोर्ट के मुताबिक, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी ने तीन ब्रांड के आरओ पानी की टेस्टिंग भी की और पाया कि दो ब्रांड में उपचारित पानी में टीडीएस 50 एमजी प्रतिलीटर से भी कम मिला। वहीं, फिजियो केमिकल एनालिसिस में पाया गया कि आरओ प्यूरीफायर्स से निकलने वाले पानी में कैल्सियम और मैगनीशियम भी कम हुआ और आरओ से डीमिनरलाइज वाटर मिला।

रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि आरओ वहां आवश्यक है, जहां सतह का जल कठोर (हार्ड वाटर) है या फिर भूजल स्रोतों में कठोर जल है। कई जगह जहां सतह का पानी पेयजल के स्रोत हैं वहां पर जल शुद्धिकरण के लिए कैंडल, एक्टिवेटेड कार्बन और यूवी फिल्टर का जोड़ ही काफी है। जहां पानी में कीटनाशक, आर्सेनिक, फ्लोराइड, आयरन जैसी विशेष समस्या है वहां आरओ का इस्तेमाल किया जा सकता है। हालांकि कुछ एक्सपर्ट मानते हैं कि जिन जगहों पर भू-जल में ऐसे जहरीले तत्व हैं वहां आरओ प्रभावी तौर पर काम नहीं कर सकता।

बीआईएस की तरफ से घरेलू उद्देश्य के लिए रिवर्स ओस्मोसिस आधारित पानी शोधक स्पेशिफिकेशन आईएस 16240: 2015 में आगाह किया गया था कि आरओ सिस्टम उन इलाकों के लिए नहीं सिफारिश किया जा सकता जहां आर्सेनिक का स्तर 0.1 एमजी प्रति लीटर और फ्लोराइड का स्तर 8.0 एमजी प्रति लीटर से ज्यादा हो, जबकि 2023 में जारी नए आईएस स्पेशिफिकेशन 16240 में इसका जिक्र तक नहीं किया गया है।

बीआईएस से मिले आरटीआई जवाब से पता चला कि अब तक 38 आरओ निर्माताओं ने आईएस 16240 के तहत लाइसेंस लिया है। इन सभी कंपनियों ने जो दावे किए हैं उनमें आर्सेनिक, फ्लोराइड व मेटल में कमी का दावा किया है। हालांकि एक्सपर्ट पानी में जहरीले तत्वों के उपचार के लिए चयनित तकनीकी की सलाह देते हैं।

हाल ही में एनजीटी ने देश के विभिन्न इलाकों में भूजल में आर्सेनिक और फ्लोराइड होने के मामले को स्वतः संज्ञान लिया है। एनजीटी ने एक रिपोर्ट के आधार पर पाया कि देश के 25 राज्यों में 230 जिलों में आर्सेनिक मौजूद है जबकि 27 राज्यों के 469 जिलों में फ्लोराइड की समस्या है। एनजीटी ने माना कि इन तत्वों का मानव शरीर पर बेहद बुरा प्रभाव पड़ता है, बावजूद इसके केंद्रीय भूजल प्राधिकरण (सीजीडब्ल्यूए) ने आर्सेनिक और फ्लोराइड रिमूवल प्लांट इन इलाकों में नहीं लगाए हैं।

नीरी के प्रधान वैज्ञानिक डॉक्टर अतुल वी मालधुरे बताते हैं, “आरओ आर्सेनिक और फ्लोराइड का रिजेक्शन जरूर करता है लेकिन यदि सिर्फ आर्सेनिक की परेशानी कहीं पर है या फिर फ्लोराइड की तो हमें यहां चयनित तकनीकी का इस्तेमाल करना चाहिए जो चयनित तौर पर आर्सेनिक या फ्लोराइड को कम करती हैं।

मिसाल के तौर झारखंड और उड़ीसा जैसी जगह पर लोग अब भी हैंडपंप का इस्तेमाल कर रहे हैं जहां आर्सेनिक या फ्लोराइड की समस्या है लेकिन जैसे ही घर-घर पाइप के जरिए पानी पहुंचेगा तब यह निगम या पंचायत की जिम्मेदारी होगी कि वह बीआईएस स्टैंडर्ड पर पानी पहुंचाएं। ऐसी सूरत में आरओ की जरूरत नहीं होनी चाहिए।”

अनुपयोगी होते कम्युनिटी आरओ

डॉ अतुल वी मालधुरे, प्रिंसिपल साइंटिस्ट, सीएसआईआर- नेशनल एनवॉयरमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (नीरी)

डॉ अतुल वी मालधुरे, प्रिंसिपल साइंटिस्ट, सीएसआईआर- नेशनल एनवॉयरमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (नीरी) आरओ की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि उसमे पानी तो बर्बाद होता ही है लेकिन मिनरल्स की कमी भी हो जाती है। यदि पानी में आर्सेनिक, फ्लोराइड, आयरन जैसे किसी भी तरह का भूगर्भिक (जियोजेनिक) संक्रमण (कंटेमिनेशन) नहीं है और टीडीएस का माप 500 एमजी प्रति लीटर से कम है तो आरओ नहीं लगाना चाहिए। यह पूरी तरह से संसाधन (पानी, बिजली) और पैसों की बर्बादी है। इस पर एनजीटी का स्पष्ट आदेश भी है। वहीं, सरकार या किसी स्कीम के तहत लगाए गए कम्युनिटी आरओ सिस्टम में हमने यह पाया है कि यह एक साल या दो साल के बाद 40 से 45 फीसदी आरओ सिस्टम काम नहीं करते हैं। कम्युनिटी आधारित आरओ के संचालन के लिए पैसों और मानवश्रम की जरूरत होती है। इसलिए इस तरह के आरओ प्लांट को लगाए जाने से पहले सोशियो इकोनॉमिक स्टडी होनी चाहिए। म्यूनिसपल कॉर्पोरेशन का पानी जो भी सप्लाई किया जाता है वह वाटर ट्रीटमेंट प्लांट से होकर आता है जो कि भारत मानक ब्यूरो के पेयजल मानकों को पूरा करता है। इस जलापूर्ति के दौरान पाइप के जरिए पानी में बैक्टीरियल कंटेमिनेशन की परेशानी हो सकती है। इसका समाधान करने के लिए क्लोरिनेशन, अल्ट्रावायलेट (यूवी) और मेज फिल्टर पर्याप्त है। यह सस्ता भी होता है। यूवी के बारे में ध्यान रखना चाहिए कि इसे एक निश्चित समय या अंतराल पर इसे बदलना भी चाहिए।

 

आगे पढ़ें : विश्व जल दिवस विशेष: आरओ से जुड़े सवालों पर क्या बोले केंट आरओ सिस्टम्स के चेयरमैन महेश गुप्ता?

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