मनरेगा जरूरी या मजबूरी-9: कमियों के बावजूद संपूर्ण योजना

मनरेगा की उत्पत्ति उन आपदाओं के मद्देनजर हुई थी जो जमीन या कृषि के कार्य से जुड़ी हुई थी

On: Monday 13 July 2020
 
फोटो: माधव शर्मा

2005 में शुरू हुई महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) योजना एक बार फिर चर्चा में है। लगभग हर राज्य में मनरेगा के प्रति ग्रामीणों के साथ-साथ सरकारों का रूझान बढ़ा है। लेकिन क्या यह साबित करता है कि मनरेगा ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है या अभी इसमें काफी खामियां हैं। डाउन टू अर्थ ने इसकी व्यापक पड़ताल की है, जिसे एक सीरीज के तौर पर प्रकाशित किया जा रहा है। पहली कड़ी में आपने पढ़ा, 85 फीसदी बढ़ गई काम की मांग । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा, योजना में विसंगतियां भी कम नहीं । तीसरी कड़ी में आपने पढ़ा, - 100 दिन के रोजगार का सच । चौथी कड़ी में आपने पढ़ा, 250 करोड़ मानव दिवस रोजगार हो रहा है पैदा, जबकि अगली कड़ी में आपने पढ़ा, 3.50 लाख करोड़ रुपए की आवश्यकता पड़ेगी । इसके बाद आपने शंकर सिंह और निखिल डे का लेख पढ़ा। इसके बाद आपने अमित बसोले व रक्षिता स्वामी का लेख पढ़ा। अगली कड़ी में आपने करुणा वाकती अकेला का लेख पढ़ा, आज पढ़ें, आमोद खन्ना का आलेख- 

 

मनीर हर साल की तरह इस साल भी मोरवी गुजरात में एक टाइल बनाने वाली कम्पनी के यहां काम करने गया था। लॉकडाउन खुलने के बाद 3 मई को अपने गांव बेला, जो कि मध्य प्रदेश के बेतूल जिले में है, वापस पहुंचा तो उसे गांव के ही स्कूल में 14 दिन के लिए क्वरांटीन होना पड़ा। 17 मई को मनीर के क्वरांटीन की अवधि समाप्त होने पर वह घर पहुंचा और 18 मई से उसे मनरेगा में काम मिल गया। कुछ ऐसी ही कहानी उसी जिले के सुरेश धुर्वे, ग्राम टेकड़ीजाम, की भी है। यह कहानियां देश के कई गांवों में दोहराई गई, जिसका नतीजा यह हुआ कि अप्रैल से 18 जून 2020 तक मनरेगा से 3.5 करोड़ परिवारों के 4.89 करोड़ मजदूरों ने औसतन 20.87 दिन काम कर 73.08 करोड मानव दिवस सृजित किये और 14,980 करोड़ रुपए मजदूरी से आय प्राप्त की है।

संसद द्वारा अगस्त 2005 में पारित मनरेगा अधिनियम, जिसे प्रारम्भ में 200 पिछड़े जिलों में फरवरी 2006 में लागू कर उसके बाद अप्रैल 2008 से पूरे देश में क्रियान्वित किया जा रहा है, आज कोविड काल में अपनी प्रासंगिकता और व्यापकता से देश के सारे 693 जिलों के 2.65 लाख ग्राम पंचायतों में सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा प्रदान कर रही है। मनरेगा कार्यक्रम में 14.08 करोड़ परिवार पंजीकृत हैं जिसमें 58 प्रतिशत सक्रिय हैं अर्थात 8.11 करोड़ परिवारों ने इस कार्यक्रम की जरुरत ही नहीं महसूस की, बल्कि उससे लाभ भी प्राप्त किया है।

इतना ही नहीं, मनरेगा से सामाजिक और आर्थिक रुप से पिछड़े वर्ग भी लाभान्वित हुआ है। सक्रिय मजदूरों में क्रमश: 19 और 16 प्रतिशत अनुसूचित जाति और जनजाति के हैं जिन्होंने इस वित्तीय वर्ष 40 प्रतिशत सृजित मानव दिवसों से लाभ प्राप्त किया है। मनरेगा कम से कम 33 प्रतिशत मानव दिवस महिलाओं के लिए लक्षित करता है। इस वित्तीय वर्ष में पहले तीन महीनों में महिलाओं की सहभागिता कुल सृजित मानव दिवसों में 51 प्रतिशत रही है। एक और वर्ग जिसे अक्सर आसानी से काम नहीे प्राप्त होता है, नामतः, निशक्त व्यक्ति, उनमे से 2.77 लाख व्यक्तियों को मनरेगा से इस वर्ष रोजगार का लाभ मिला है। तो आइए देखते हैं मनरेगा की क्या विशेषताएं हैं, जिसकी वजह से जो कल तक उसके आलोचक आज उस पर भरोसा कर ग्रामीण बेरोजगारी से निबटने का मुख्य साधन मान रहे हैं।

मनरेगा से पहले ग्रामीण क्षेत्र में विषेषकर वेतन रोजगार के कार्यक्रम अलग-अलग रुपों में अवतरित हुए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम, ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम, जवाहर रोजगार कार्यक्रम, जवाहर ग्रामीण समृ़िद्ध योजना, काम के बदले अनाज, और सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना। यह सारी योजनाऐं पूरी तरह से सरकारी नियन्त्रण में क्रियान्वित की गयी। इनमें भ्रष्टाचार, पक्षपात, राजनीतिकरण के इलजाम तो लगे ही परन्तु सबसे महत्वपूर्ण कमी थी रोजगार के वास्तविक जरुरतमन्द परिवारों को समय पर और पर्याप्त मात्रा में रोजगार ना उपलब्ध करवा पाना। इन्ही अनुभवों को ध्यान में रखते हुए मनरेगा को एक नयी सोच, एक नये दृष्टिकोण, और एक नयी संरचना के साथ विकसित किया गया।

मनरेगा की मजबूती उसके डिजाइन के दो स्तम्भों की वजह से हैः पहला, ग्रामीण क्षेत्र का कोई भी व्यस्क रोजगार की मांग सरकार से करता है तो यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह उस व्यक्ति को 15 दिन के अन्दर रोजगार उपलब्ध करवायेगी। यह रोजगार अकुषल शारीरिक कार्य के लिये दिया जायेगा और वह व्यक्ति प्रत्येक कार्य दिवस के लिये मजदूरी की दर से मजदूरी प्राप्त करने का हकदार होगा। दूसरा, सरकार प्रत्येक ग्रामीण परिवार को इस बात की गारंटी देती है कि वह उस परिवार के व्यस्क सदस्यों को प्रति वर्ष 100 दिन का रोजगार उपलब्ध करवाएगी। और इन दोनो घटको को मनरेगा अधिनियम द्वारा कानूनी मान्यता प्राप्त है। आइए, इन दोनों कानूनी प्रावधानों में निहित मायनों को समझें।

"काम मांगोगे, काम मिलेगा" का सूत्र जिसे मनरेगा ने कानूनी जामा पहना दिया के मायने अब यह हुए कि रोजगार का मिलना अब किसी सरकारी अधिकिारी के आंकलन पर निर्भर नहीें है, अपितु यह निर्णय अब जिसे काम की जरुरत है वह करता है। यही वह अधिकार है जिसके तहत मनीर और सुरेष धुर्वे और इस प्रकार 12.47 करोड सक्रिय मजदूर ने काम मांगा। यह मात्र एक नयी सोच द्ययोतक ही नहीे है पर एक ऐसी क्रान्त्किारी प्रक्रिया को जन्म देता है जिससे सत्ता स्वतः मजदूर के हाथ में आ जाती है।

मनरेगा ने काम मांगने को अधिकार की श्रेणी में तो डाल ही दिया साथ-साथ उसने मजदूरों के अन्य अधिकार भी परिभाषित कर दियेः पंजीकृत कर जॉब कार्ड प्राप्त करना; यह तय करना कि काम कब चाहिये और कितने दिनों का चाहिये; काम नहीं मिलने की स्थिति में बेरोजगारी भत्ता प्राप्त करना; वेतन भुगतान हफ्ते भरे में और समय पर भुगतान ना होने की स्थिति में 0.5 प्रतिशत प्रति दिन की दर से नहीं दिये गये वेतन पर मुआवजा; कार्य स्थल 10 कि.मी. से अधिक की दूरी पर होने पर परिवहन व्यय; कार्य स्थल पर सुविधाऐं (जैसे झूलाघर, पानी पीने की व्यवस्था आदि); कार्य स्थल पर चोटिल होने पर मेडिकल उपचार, और मस्टर रोल चेक करना भी मजदूरों के कानूनी अधिकार की श्रेणी में समाहित हो गए। 

अब सरकार द्वारा 100 दिन के कार्य की गारंटी का असर देखिये। क्योंकि अब मजदूर काम की मांग कभी भी कर सकता है इसलिये यह जरुरी हो गया कि सरकारी तन्त्र के पास पर्याप्त बजट हो, उसके पास पूर्व से स्वीकृत कार्य हो तथा एक ऐसा तन्त्र और व्यवस्था हो जो मजदूरों को निश्चित समयावधि में उनको अधिकार मुहिया करवा सके। चूंकि मजदूर के सबसे करीब पंचायते हैं, इसलिये पंचायत संस्थाओं को इस कार्यक्रम में अग्रणी भूमिका दी गयी।

प्रत्येक पंचायत लेबर बजट बनाती है और क्या कार्य करवाने है उसके प्रोजेक्ट बनवा कर पहले से ही स्वीकृति प्राप्त कर लेती है। यही कारण था कि 2020-21 वित्तीय वर्ष में 280.76 करोड़ मानव दिवस का लेबर बजट पहले से ही स्वीकृत था और मनीर और सुरेश धुर्वे की मांग आने पर तुरन्त उनको और उन जैसे अन्य मजदूरों को काम पर लगाया जा सका और इस वित्तीय वर्ष के प्रथम तीन महीनों में 27 प्रतिशत लेबर बजट का उपयोग हो पाया। इतना ही नहीं, मनरेगा में कुल उपलब्ध राशि 37,169 करोड़ रुपये में से 66 प्रतिशत राशि का उपयोग हो चुका है जिसमें 15,470 करोड़ रुपयों का वेतन भुगतान शामिल है। तान्त्रिक व्यवस्था की मुस्तैदी का एक संकेतक यह भी है कि 99.6 प्रतिशत मजदूरी का भुगतान 15 दिन के अन्दर कर दिया गया है। 

मनरेगा के आलोचक अक्सर यह आरोप लगाते हैं कि यह कार्यक्रम अकुशल मजदूरी को बढ़ावा देता है और कुशल मजदूरी को अधिक तव्वजो नहीें देता है। ध्यान रहे कि मनरेगा की उत्पत्ति उन आपदाओं के मद्देनजर हुई थी जो जमीन या कृषि के कार्य से जुड़ी हुई थी। इनमें कोविड जैसी महामारी से उत्पन्न बेरोजगारी शामिल नहीें है। यह पूर्णतः संभव है कि हाथ करघा पर काम करने वाले कारीगर या अन्य मिस्त्री और शिल्पकारों के हुनर को वर्तमान में इसमें स्थान ना मिल पाये। पर इससे मनरेगा की उपयोगिता कम नहीे होती, अपितु यह चुनौती प्रस्तुत करती है कि क्या इस अवधारणा को इस्तमाल करते हुए कोई अन्य समानान्तर योजना निर्मित की जा सके।

मनरेगा अपने डिजाइन में सार्वभौमिक है, अपनी व्यापकता में समावेषी है, अपनी पहुंच में लोक केन्द्रित है, और अपनी प्रतिक्रिया में चपल, फुर्तीली और तात्कालिक है जिसकी वजह से आज ग्रामीण क्षेत्रों में जो परिवार रोजगार या आजीविका में तनाव महसूस कर रहे हैं वह इसका सहारा ले रहे हैं और उनके लिये वह जीवन रेखा साबित हो रही है।

लेखक टूवर्डस एक्शन एंड लर्निंग (ताल), भोपाल के निदेशक हैं 

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