मनरेगा जरूरी या मजबूरी-8: दूसरा संस्करण शुरू करने का सही समय

हमने गांवों के पावर डायनेमिक्स को रातों-रात बदलते देखा। पारंपरिक रूप से मजदूर काम के लिए किसानों पर निर्भर रहा करते थे, लेकिन अब हालात ठीक उलटे हैं

On: Friday 10 July 2020
 
फोटो: माधव शर्मा

2005 में शुरू हुई महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) योजना एक बार फिर चर्चा में है। लगभग हर राज्य में मनरेगा के प्रति ग्रामीणों के साथ-साथ सरकारों का रूझान बढ़ा है। लेकिन क्या यह साबित करता है कि मनरेगा ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है या अभी इसमें काफी खामियां हैं। डाउन टू अर्थ ने इसकी व्यापक पड़ताल की है, जिसे एक सीरीज के तौर पर प्रकाशित किया जा रहा है। पहली कड़ी में आपने पढ़ा, 85 फीसदी बढ़ गई काम की मांग । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा, योजना में विसंगतियां भी कम नहीं । तीसरी कड़ी में आपने पढ़ा, - 100 दिन के रोजगार का सच । चौथी कड़ी में आपने पढ़ा, 250 करोड़ मानव दिवस रोजगार हो रहा है पैदा, जबकि अगली कड़ी में आपने पढ़ा, 3.50 लाख करोड़ रुपए की आवश्यकता पड़ेगी । इसके बाद आपने शंकर सिंह और निखिल डे का लेख पढ़ा। इसके बाद आपने अमित बसोले व रक्षिता स्वामी का लेख पढ़ा। आज पढ़ें, भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रह चुकी करुणा वाकती अकेला का लेख- 

एक सोशल डिनर के दौरान किसी ने मुझसे पूछा - “क्या आपको पता है कितनी संपत्ति सृजित हुई है ? वह 2015 से 2017 के बीच के वर्षों में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत वारंगल जिले भर में कृषि क्षेत्रों के तटबंधों पर लगाए गए तीन करोड़ सागौन के पौधों का जिक्र कर रहे थे। यहां नि:शुल्क पौधारोपण के साथ-साथ अन्य गतिविधियों का भी संचालन किया गया। शुरुआती देरी के बावजूद तीन साल की अवधि में कुछ दो लाख किसानों ने सागौन के पौधे लगाए। कुछ वर्षों में प्रत्येक पेड़ की कीमत न्यूनतम 1 लाख रुपए होगी। यही वह संपत्ति है, जिसके बारे में बात की जा रही थी। कृष्णा जिले के माडा वन क्षेत्र में चल रहा मैंग्रोव उत्थान कार्य अच्छी प्रगति पर है।

देश भर में टिकाऊ, व्यक्तिगत और सामुदायिक संपत्ति के निर्माण के ऐसे कई उदाहरण हैं, हालांकि ‘गड्ढे खोदने’ की स्थायी आलोचना बिना आधार के नहीं है।

योजना के कई आलोचकों के अनुसार, मनरेगा ने कृषि संकट को और गहरा कर दिया है और मजदूरों की संख्या में कमी आई है। लोगों को गड्ढे खोदने और उसी गड्ढे को दोबारा भरने के लिए पैसे दिए जा रहे हैं। हममें से जिन्होंने इस योजना पर सैकड़ों घंटे काम किया है, उनके लिए असल कहानी यह है कि इस योजना ने किस तरह ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी, पलायन और कर्ज के मुद्दों को सशक्त तरीके से संबोधित किया। यह देखने योग्य है कि कैसे मनरेगा मजदूरी ने ग्रामीण गरीबों की आय के पूरक के रूप में में मदद की है, कैसे गरीब किसानों ने मनरेगा मजदूरी से हुई आय को अपनी भूमि पर खेती की गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किया है और कैसे विकास कार्यों ने मिट्टी की गुणवत्ता और जल स्तर में सुधार करने में मदद की है। इन सबसे पहले, इस स्कीम का उद्देश्य था- भारतीय समाज के उस तबके को जो लंबे समय से स्थिर पड़ा था, उन्हें मनमाफिक काम मिलने का अधिकार देना। यह उनकी गरिमा और सम्मान का सवाल था।

हमने गांवों के पावर डायनेमिक्स को रातों-रात बदलते देखा। पारंपरिक रूप से मजदूर काम के लिए किसानों पर निर्भर रहा करते थे, लेकिन अब हालात ठीक उलटे हैं। कभी-कभी तो मजदूर मिलते ही नहीं। इसके अलावा ग्रामीण मजदूरी भी नाटकीय रूप से बढ़ी। हैदराबाद से लगभग 100 किमी दूर महबूबनगर जिले में ईजीएस लागू होने से पहले पुरुषों को 35 रुपए और महिलाओं को 25 रुपए प्रतिदिन का भुगतान किया जाता था। मनरेगा कार्यान्वयन के पहले ही सीजन में पुरुषों और महिलाओं दोनों का न्यूनतम वेतन बढ़कर 125 रुपए हो गया। और तब से हर काम के मौसम के बाद इसे संशोधित किया गया है। इसके फलस्वरूप खेती में मिलनेवाली मजदूरी में भी इजाफा हुआ है ।

मनरेगा में कई अनूठी विशेषताएं हैं। मनरेगा के डिजाइन की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक इसका स्वयं-चयन तंत्र है। इस स्कीम में लाभार्थी स्वयं को चुनते हैं, जिसके फलस्वरूप पिछले गरीबी विरोधी कार्यक्रमों की दो बड़ी समस्याओं का हल मिल गया है: पहला, लक्ष्यीकरण की कोई आवश्यकता नहीं है, जोकि सरकारों के लिए अत्यधिक कठिन कार्य साबित हुआ है। बहिष्करण ( ऐसे लाभार्थी जो पात्र नहीं थे) और समावेशन (वे लोग जो पात्र नहीं थे, लेकिन स्कीम में शामिल थे) लगभग सभी पिछले कार्यक्रमों को प्रभावित करते थे, विशेषकर उन्हें जो बीपीएल परिवारों को लक्षित करके चलाए गए थे।

राज्य द्वारा चयन तंत्र को हटाने से इस समस्या का समाधान हो गया। एक फायदा यह है कि इस स्कीम के तहत चयन का आधार गरीबी रेखा को नहीं बनाया गया। रिसर्च से पता चला है कि गरीबी रेखा अत्यधिक नीचे है, जिसके फलस्वरूप अत्याधिक गरीबी में रहनेवाले लोग भी इस रेखा के ऊपर आते हैं। यह भी विचार करें कि, विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, लगभग दो तिहाई भारतीय गरीबी रेखा से नीचे आते हैं और वे 3.40 डॉलर प्रतिदिन (लगभग पांचवां हिस्सा चरम गरीबी रेखा से नीचे यानि 1.90 डॉलर / दिन) पर अपना गुजारा करने को मजबूर हैं। इसका मतलब यह निकलता है कि कई ऐसे लोग हैं जो सरकारी आंकड़ों के अनुसार बहुत गरीब नहीं हैं, लेकिन असलियत में वे अपना जीवन विकट गरीबी में व्यतीत कर रहे हैं और उनके लिए मनरेगा जैसी स्कीमों की सख्त आवश्यता है, खासकर संकट के इस समय में।

स्वयं चयन तंत्र ने यह भी सुनिश्चित किया है कि, वर्तमान समय की तरह संकट के समय में, राज्य के मशीनरी जल्दी से सक्रिय हो सके और लोगों की ओर से आनेवाली मांगों का समुचित प्रबंध हो सके। (निश्चित रूप से यह धन की उपलब्धता और स्थानीय कर्मचारियों की कार्यकुशलता एवं निर्माण कार्यों को शीघ्रता से खोलने की क्षमता पर निर्भर करता है)। मनरेगा के डिजाइन की एक और महत्वपूर्ण विशेषता ग्राम पंचायतों की भूमिका है। सीधे-सीधे ग्राम पंचायतों को इतनी भारी मात्रा में धन देना इस स्कीम को अनूठा बनाता है और यह विश्वभर में स्थानीय स्तर पर आवंटन के हस्तांतरण की सबसे महत्वाकांक्षी स्कीम है। ग्राम पंचायतों की अपनी समस्याएं अवश्य हैं, लेकिन अधिकांश मामलों में यह स्कीम सफलतापूर्वक काम कर रही है ।

कार्यान्वयन के दृष्टिकोण से, योजना के अधिकार पर आधारित ढांचे ने प्रशासनिक मशीनरी को चुनौती दी है (मांग के अनुरूप लाभार्थियों को रोजगार, किए हुए काम का हिसाब एवं एक तय समयसीमा में भुगतान, कार्यस्थल पर सुविधाओं का इंतजाम, देर से भुगतान का मुआवजा एवं सामाजिक ऑडिट इत्यादि) और प्रशासन ने तकनीक एवं विस्तृत कार्यान्वयन व्यवस्था के माध्यम से इन चुनौतियों का सामना करने की कोशिश की है और उन्हें मिश्रित सफलता भी प्राप्त हुई है ।

नकारात्मक पहलू की बात करें तो ग्रामीण इलाकों में “वर्क एथिक” का ह्रास हुआ है। औसत कार्य समय से पहले आठ घंटे हुआ करता था, जो अब काफी घट गया है। मुफ्त राशन और अन्य सब्सिडी मिलने के कारण लोगों को लंबे समय तक काम करने की आवश्यकता महसूस नहीं होती है। श्रम की कमी के कारण खेत बंजर पड़े हैं और तटबंधों, जंगलों एवं तालाबों जैसे टिकाऊ संसाधनों का निर्माण भी कम ही हुआ है। काफी कम राज्यों में संस्थागत सोशल ऑडिट किए जाते हैं। हालांकि अन्य रोजगार गारंटी योजनाओं की तुलना में यह साफ सुथरी है, लेकिन फिर भी भ्रष्टाचार को अनदेखा नहीं किया जा सकता। कार्यान्वयन के लगभग चौदह वर्षों के बाद भी मजदूरी चाहने वालों के जीवन स्तर में विकास की दर बहुत धीमी रही है। वे अब भी काम के लिए सरकार पर निर्भर हैं। यही नहीं, काम क्या करना है यह भी अक्सर ऊपर से तय होता है और इसके चयन में श्रमिकों की अपनी कोई भूमिका नहीं होती। वास्तव में कितना सशक्तिकरण हुआ है, यह बहुत बड़ी बहस का विषय है।

जहां मनरेगा को लागू करने वालों का ध्यान विपणन, कोल्ड स्टोरेज आदि जैसे दूसरे मुद्दों पर होना चाहिए था, वहीं यह अभी भी उन बुनियादी कार्यों पर है जो शुरुआती दिनों में किए गए थे। ऐसा लगता है, मानो मांग एवं आपूर्ति की यह शृंखला अनंतकाल तक चलती रहेगी।

इसके बावजूद , मनरेगा जो कि एक सामाजिक सुरक्षा जाल की तरह काम करता है, आज भी उतना प्रासंगिक है, जितना पहले था। “व्हाइट कॉलर” नौकरियों के सृजन की योजनाएं पूरी तरह से विफल रही हैं और वर्तमान परिदृश्य में अर्थव्यवस्था लोगों को काम देने में विफल है - ऐसे में मनरेगा या इस तरह की कोई और स्कीम राहत प्रदान करने की संभावना रखती है। इस सीजन में काम ढूंढ़ने वालों की संख्या में बेतहाशा तेजी देखी गई है। उच्च शिक्षा प्राप्त लोग भी मनरेगा में काम करने आ रहे हैं और ऐसा प्रतीत होता है मानो यह पूरे देश में रोजगार प्रदान करने का एक विलक्षण साधन बन गया है । अब समय आ चुका है जब इस योजना के द्वितीय संस्करण को लाया जाए। इस स्कीम में शहरी क्षेत्रों एवं उनकी जरूरतों को शामिल किए जाने की भी आवश्यकता है। इसके अलावा कुशल कारीगरों के लिए अलग काम की भी व्यवस्था होनी चाहिए।

लेखिका 2012-2014 के दौरान आंध्रप्रदेश की मनरेगा निदेशक रह चुकी हैं

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