कभी जल संसाधनों से समृद्ध थी दिल्ली

आज भले ही दिल्ली पानी के लिए तरस रही हो लेकिन मध्य काल में यहां जलस्रोतों की विस्तृत व्यवस्था थी, जिससे नगरवासियों को पानी की जरूरतों के लिए कहीं जाना न पड़े

By DTE Staff

On: Thursday 12 September 2019
 
अर्द्ध चंद्राकार आकृति और सूर्य मंदिर से लगे तालाब सूरजकंड में पत्थरों की सीढ़ियां और बांध थे। यह तालाब अरावली की पहाड़ियों में हुई बरसात का पानी जमा करता था. (अरविन्द यादव / सीएसई)

पानी के पंपों, बिजली और पानी साफ करने वाले रसायन क्लोरिन के भी बनने के काफी पहले से दिल्ली एक शहर रहा है। 11वीं सदी के बाद से तो यहां एक न एक शासक वंशों की राजधानी रहने के साथ ही यह बहुत समृद्ध और आबाद शहर रहा। अन्य बड़े शहरों के विपरीत इसकी स्थिति भी बार-बार बदलती रही है। आज शहर यमुना के किनारे बसा है पर पहले ऐसा नहीं था।

तोमर वंश के अनंगपाल ने सन 1020 में जिस जगह दिल्ली बसाई थी, यह आज के सूरजकुंड के पास है और यह अब हरियाणा की सीमा में आता है। इस शहर का नाम सूर्य मंदिर और उससे लगे पत्थर की सीढ़ियों वाले अर्द्ध चंद्राकार तालाब के चलते सूरजकुंड पड़ा। यह तालाब अरावली पर्वत पर पड़ने वाली बारिश के पानी को सहेजने के लिए बना था। फिरोजशाह तुगलक ने इसकी सीढ़ियों और गलियारे की मरम्मत कराई और पत्थर जड़वा दिए। सूरजकुंड के पास ही अनंगपुर बांध है, जिसमें स्थानीय पत्थरों का उपयोग हुआ है। तंग दर्रे में पत्थर भरकर बांध बनाया गया था। इसके बाद कई दिल्लियां बसी हैं और सबकी सब अरावली पहाड़ी शृंखला की तराई में ही बसीं। इन सभी नगरों में जल संचय की विस्तृत व्यवस्था थी, जिससे नगरवासियों को अपनी रोजाना की जरूरतें पूरी करने के लिए कहीं जाना न पड़े।

किला रायपिथौराः दक्षिणी दिल्ली में सल्तनत वाले दौर के जल प्रबंधों के अवशेष भरे पड़े हैं। किला रायपिथौरा (महरौली सन 1052) सल्तनत काल की पहली राजधानी थी और यह यमुना से 18 किमी. दूरी पर थी। इस पहाड़ी इलाके के भूगोल और इसकी ऊंचाई के चलते यहां यमुना से नहर के माध्यम से पानी लाने की कोई गुंजाइश नहीं थी। सिर्फ बरसात का पानी सहेज लेने का विकल्प ही था। इसीलिए सुल्तान अल्तुतमिश ने हौज-ए-सुल्तानी या हौज-ए-अल्तुतमिश नामक विशाल सरोवर बनवाया। बाद में अलाउद्दीन खिल्जी और फिरोजशाह तुगलक ने इस तालाब की मरम्मत करवाई। फिरोजशाह तुगलक ने शासनकाल में शरारती लोगों ने तालाब को पानी पहुंचाने वाले जल मार्गों को बंद कर दिया था। सुल्तान ने नलियों को साफ करने और हौज को पानी से भरने का आदेश दिया। 200 मीटर लंबे और 125 मीटर चौड़े इस तालाब का पानी आज भी काकी साहब की दरगाह पर जाने वाले लोग इस्तेमाल करते हैं। इस तालाब में अब काफी गाद मिट्टी भर गई है और इसके जल ग्रहण क्षेत्र पर भवन निर्माताओं और दिल्ली विकास प्राधिकरण ने कब्जा जमा लिया है।

तालाबों के साथ ही सुल्तानों और इनके अमीर-उनबों ने बावलियां (सीढ़ीदार कुएं) बनवाईं और उनकी देखरेख की। ये बावलियां निजी जागीर नहीं थीं और इसके सभी धर्मों और जातियों के लोग पानी ले सकते थे। गंधक की बावली सुल्तान अल्तुतमिश के समय बनी थी और पानी में गंधक की मात्रा होने के चलते इसका यह नाम पड़ गया। पत्थरों से बनी इस खूबसूरत बावली का पानी आज भी नहाने-धोने के काम आता है। इसके पास ही राजों की बावली, दरगाह काकी साहब की बावली, महावीर स्थल के पीछे स्थित गुफानुमा बावली जैसी अनेक बावलियों के भग्नावशेष मौजूद हैं। इस काल में शहर के अन्य हिस्सों में भी बावलियां बनीं। इसमें निजामुद्दीन बावली, फिरोजशाह कोटला स्थित बावली और वसंत विहार स्थित मुरादाबाद की पहाड़ की बावली प्रमुख है। ये सभी आज तक उपयोग में आ रही हैं। लेकिन उग्रसेन की बावली, पालम बावली और सुल्तानपुर बावली वगैरह सूख चुकी हैं और इसके सिर्फ ढांचे खड़े हैं।

सिरीः 1296 में बसी दूसरी दिल्ली, सिरी में (सन 1303) अलाउद्दीन खिल्जी ने एक विशाल जलाशय का निर्माण कराया। इस जलाशय का निर्माण भी अरावली पहाड़ियों पर गिरने वाले बरसाती पानी को सहेजने के लिए ही किया गया था। इसका जल ग्रहण क्षेत्र 24.29 हेक्टेयर का था। इसकी लंबाई 600 मीटर और चौड़ाई भी 600 मीटर थी। इसका नाम अलाउद्दीन खिल्जी के नाम पर हौज-ए-अलाई- रखा गया, जो बाद में बदलकर हौजखास बन गया। जलाशय के बांध अभी भी दिखते हैं। इसके उत्तरी और पश्चिमी बांध पर फिरोजशाह तुगलक ने मदरसा बनवा दिया।

तुगलकाबादः महरौली और सिरी की आबादी बढ़ने से गियासुद्दीन तुगलक बसाना पड़ा। यह जगह यमुना के पास थी, पर सुल्तान ने बस्ती के लिए पहाड़ी जमीन को चुना क्योंकि इससे किलेबंदी में काफी आसानी हो गई। तुगलकाबाद किले में सात तालाबों और तीन विशालकाय बावलियों के भग्यावशेष हैं। कुओं की गिनती आसान नहीं है। पहाड़ी से पूरब की तरफ बह जाने वाले पानी की जरूरतें पूरी की गईं। महरौली के निकट स्थित हौज-ए-शम्शी के अतिरिक्त पानी को नौलावी नाले के माध्यम से तुगलकाबाद तक ले जाया जाता था। इस प्राकृतिक जल के ढलाव वाली प्रणाली के एक हिस्से को हाल में बड़ा और पक्का करके गंदे नाले का रूप दे दिया गया जो अब शहर की नालियों का गंदा पानी आगरा नहर में पहुंचता है।

दिल्ली शहर के बाहर की जमीन को सिंचित करने वाले पानी की आपूर्ति को व्यवस्थित करने के लिए सतपुला का निर्माण किया गया था। जहांपनाह की दक्षिण दीवार से लगा सतपुला 64.96 मीटर ऊंचा है और सातों मुंहों पर लगे फाटकों से एक कृत्रिम झील का पानी नियंत्रित होता था (अरविन्द यादव / सी एस ई)

जहांपनाहः मुहम्मद बिन तुगलक को तीन और एक-दूसरे से होड़ लेती दिल्लियां विरासत में मिलीं और उसने एक चौथी दिल्ली-जहांपनाह भी इससे जोड़ दी। दुनिया का पनाहगार नाम दिया उसने अपनी दिल्ली को। सतपुला (सात पुलों वाला) का निर्माण नगर की सीमाओं के बाहर की जमीन की सिंचाई को व्यवस्थित करने के लिए किया गया। आधुनिक साकेत के पास स्थित सतपुला का निर्माण जहांपनाह की दक्षिणी दीवार के साथ किया गया था। यहां 64.96 मीटर ऊंचा बांध है। इसके सातों पुलों पर फाटक लगे थे, जिससे एक कृत्रिम झील में पानी भेजा जाता था। बांध के दोनों ओर निगरानी मीनार बने हैं, जिन पर बांध की देखरेख करने वाले कर्मचारी रहा करते थे। यह दोमंजिला ढांचा तब मौजूद जल संसाधन तकनीक का नायाब उदाहरण है। दोनों मंजिलों का काम अलग-अलग था। ऊपरी मंजिल के फाटक तभी खुलते थे जब पानी खतरे के निशान से ऊपर पहुंच जाए। निचली मंजिल पानी के भंडारण की व्यवस्था के लिए थी। सतपुला के निर्माण में वैज्ञानिक सिद्धांतों को लागू किया गया था। अंत्याधारों पर ही पूरा मेहराब और किनारे का यह पूरा ढांचा खड़ा था, जो मिट्टी की कटाव और इस पूरी व्यवस्था के संतुलन के लिए खड़ा किया गया था।

शाहजहानाबादः मुगल बादशाह शाहजहां पहली बार दिल्ली को अरावली पहाड़ियों से उतारकर यमुना के किनारे ले आए। लेकिन उन्होंने अपने किले, अपनी फौज और आम लोगों की जरूरतों के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध कराने की जरूरतों का इंतजाम भी किया। शाहजहानी नहरों और दीघियों वाली उनकी व्यवस्था उस दौर की शायद सर्वश्रेष्ठ जल प्रबंध व्यवस्थाएं थीं। शाहजहां ने लाल किले का निर्माण (1639-48) कराया और जब शाहजहानाबाद शहर बन ही रहा था, तब उन्होंने अली मर्दन खां और उसके फारसी कारीगरों से कहा कि यमुना के पानी को शहर की ओर किले के अंदर पहुंचाने का इंतजाम करें। इससे पहले फिरोजशाह तुगलक जैसे शासकों ने खिज्राबाद से सफीदों (करनाल से हिसार) तक नहर बनवा दी थी। अकबर के शासनकाल में दिल्ली के सूबेदार ने इसकी मरम्मत करवाई थी। लेकिन नहर में जल्दी ही मिट्टी भर गई और इससे पानी का प्रवाह रुक गया। अली मर्दन खां ने न सिर्फ यमुना को महल के अंदर तक पहुंचाया, बल्कि इसे सिरमौर पहाड़ियों से निकलने वाली नहर से जोड़ दिया। यह नहर अभी दिल्ली की सीमा पर स्थित नजफगढ़ के पास है। नई नहर, जिसे अली मर्दन नहर कहा जाता था, साहिबी नदी का पानी लाकर पुरानी नहर में गिराती थी।

दिल्ली शहर में प्रवेश करने के पहले अली मर्दन नहर 20 किमी. इलाके के बगीचों और अमराइयों को सींचते आती थी। इस नहर पर चद्दरवाला पुल, पुलबंगश और भोलू शाह पुल जैसे अनेक छोटे-छोटे पुल बने हुए थे। नहर भोलू शाह पुल के पास शहर में प्रवेश करती थी और तीन हिस्सों में बंट जाती थी। एक शाखा ओखला तक जाती थी और मौजूदा कुतुब रोड और निजामुद्दीन इलाके को पानी देते हुए आगे बढ़ती थी। इसे सितारे वाली नहर कहा जाता था। दूसरी शाखा चांदनी चौक तक आती थी और मौजूदा नावल्टी सिनेमा घर तक पहुंचकर दो हिस्सों में बंट जाती थी। एक धारा फतेहपुरी होकर मुख्य चांदनी चौक तक पहुंचती थी। लाल किले के पास पहुंचकर यह दाहिने मुड़कर फैज बाजार होते हुए दिल्ली गेट के आगे जाकर यमुना नदी में गिरती थी। एक उपशाखा पुरानी दिल्ली गेट के आगे जाकर यमुना नदी में गिरती थी। एक उपशाखा पुरानी दिल्ली स्टेशन रोड वाली सीध में चलकर लाल किले के अंदर प्रवेश करती थी। नहर का पानी किले के अदर बने कई हौजों को भरता था और किले को ठंडा रखता था इस नहर को चांदनी चौक में नहरे-फैज और महल के अंदर नहरे-बहिश्त कहा जाता था। फैज का मतलब है भरपूर और बहिश्त का मतलब है स्वर्ग। मुख्य नहर की तीसरी शाखा हजारी बाग और कुदसिया बाग की सिंचाई करते हुए मौजूदा अंतर-राज्य बस टर्मिनल के आगे यमुना में गिरती थी।

मुख्य शहर में यह नहर दीघियों और कुओं में पानी ला देती थी। दीघी अक्सर चौकोर या कभी-कभी गोलाकार होती थी, जिसमें अंदर जाने के लिए सीढ़ियों बनी होती थीं। अक्सर इसका आकार 0.38 मीटर लंबा और उतना ही चौड़ा होता था। हर दीघी के अपने फाटक होते थे। दीघी की सीढ़ियों पर कपड़े धोने या नहाने की मनाही थी पर उनमें से कोई भी आदमी पानी ले सकता था। लोग दीघियों से पानी लाने के लिए कहार या भिश्ती रखा करते थे। अधिकांश घरों या उनके अहातों में कुआं या छोटी दीघी हुआ करती थी। जब नहर का पानी शहर तक नहीं पहुंच पाता था तब दीघियां सूख जाती थीं और सारा जीवन कुओं के भरोसे चलता था। शहर के कुछ नामी कुएं थेः इंदारा कुआं (जो वर्तमान जुबली सिनेमाघर के पास था), गली पहाड़वाली के पास स्थित पहाड़ वाला कुआं, छिप्पीवाड़ा के निकट स्थित चाह रहट (जिससे पानी जामा मस्जिद में जाता था)। 1843 में शाहजहानाबाद में 607 कुएं थे जिनमें 52 में मीठा पानी आता था। अस्सी फीसदी कुएं बंद कर दिए गए हैं, क्योकि इनमें नगर की गंदी नालियों का पानी भी घुसने लगा था। इस बात का कोई लिखित प्रमाण नहीं है कि चांदनी चौक होकर पानी ले जाने वाली नहर कब बंद हुई। 1740 से 1820 के बीच यह कई बार सूखी थी, पर शासकों ने बार-बार इसे ठीक कराकर चालू कराया। अंग्रेजों ने जब दिल्ली पर कब्जा किया तब भी इस नहर की मरम्मत की गई थी और 1820 में भी इसका पानी शहर में जाता था। 1890 में चारदीवारी वाले शहर के अंदर इसका पानी आना बंद हुआ। आज भी इस नहर के अवशेष वर्तमान लॉरेंस रोड और अशोक विहार इलाके में दिखते हैं।

मेहरौली के पास स्थित हौज-ए-शम्सी जलाशय का अतिरिक्त पानी नौलाखी नाला में मोड़ दिया जाता था और यह नहर तुगलकाबाद जाती थी। अब इस प्राकृतिक जल निकासी मार्ग के एक हिस्से को बड़ा और पक्का बना दिया गया है। अब यह शहर के गंदे पानी को आगरा नहर तक पहुंचाने का मुख्य नाला बना दिया गया है (प्रदीप साहा / सीएसई)

दिल्ली देहात : दिल्ली के देहाती इलाकों में बांधों और कुओं से सिंचाई होती थी। शुरुआती गजेटियरों के अनुसार, दिल्ली के खेतों में सिंचित इलाके का अनुपात (57 फीसदी) काफी ज्यादा था। 19 फीसदी इलाके कुओं से पानी लेते थे, 18 फीसदी की सिंचाई नहरों से होती थी और 20 फीसदी बांधों और फाटकों से सिंचित होता था। पहाड़ियों से नीचे वाले पूरे इलाके में मुख्यतः बांधों से ही सिंचाई की जाती थी।

दिल्ली के बड़े बांध शादीपुर और महलपुर में थे जिनसे 121.5 हेक्टेयर, बडखल से 121.5 हेक्टेयर, पकल से 162 हेक्टेयर, धौज से 162 हेक्टेयर और कोट सिरोही से 40.5 हेक्टेयर की सिंचाई होती थी। नजफगढ़ इलाके में बाढ़ के पानी का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता था। जिन नहरों को बरसाती पानी से मतलब नहीं था उनका उपयोग ज्वार, बाजरा और कपास जैसी खरीफ फसलों को सींचने के लिए किया जाता था। जो इलाके बाढ़ के पानी में डूबे होते थे, बाद में उन पर रबी की फसल लगाई जाती थी।

कुओं की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण थी। किसानों को अच्छे मजबूत कुओं से ज्यादा खुशी किसी और चीज से नहीं होती थी। उनके लिए अच्छा कुआं वही था जिससे घंटो पानी निकालने के बाद भी पानी का स्तर एक मीटर से ज्यादा नीचे न चला जाए। पानी की बाल्टी के आधार पर भी कुओं में फर्क किया जाता था। पानी मीठा, मलमला या खारा निकलता था। खारे पानी से सिंचाई नहीं की जाती थी, पर मलमला पानी सबसे अच्छी उपज दिलाता था। अच्छी जमीन में पहली सिंचाई (जिसे कोड़ या कोड़वा कहा जाता था) मलमले पानी से और फिर मीठे पानी की सिंचाई सबसे ज्यादा फायदेमंद होती थी। एक-दूसरे से कुछ-कुछ दूरी पर स्थित कुओं से यह पानी लिया जाता था।

तोमर वंश के अनगपाल की दिल्ली हरियाणा के वर्तमान सूरजकुंड के पास थी। अर्द्ध चंद्राकार आकृति और सूर्य मंदिर से लगे तालाब सूरजकंड में पत्थरों की सीढ़ियां और बांध थे। यह तालाब अरावली पहाड़ियों में हुई बरसात का पानी जमा करता था।

मेहरौली के पास स्थित हौज-ए शम्सी जलाशय (जिसे अब शम्सी झील कहते हैं) का अतिरिक्त पानी नौलाखी नाला में मोड़ दिया जाता था और यह नहर तुगलकाबाद जाती थी। अब इस प्राकृतिक जल निकासी मार्ग के एक हिस्से को बड़ा और पक्का बना दिया गया है। अब यह शहर के गंदे पानी को अगरा नहर तक पहुंचाने का मुख्य नाला बना दिया गया है।

बादशाह शाहजहां की मांग पूरी करने के लिए उनके वास्तुकार अली मर्दन खां ने महल को ठंडा रखने के लिए ‘नहरे बहिश्त‘ बनाई और इसे सिरमौर पहाड़ियों से आती नहर से जोड़ दिया। यह नहर नजफगढ़ के पास से आती थी। दिल्ली शहर के बाहर की जमीन को सिंचित करने वाले पानी की आपूर्ति को व्यवस्थित करने के लिए सतपुला का निर्माण किया गया था। जहांपनाह की दक्षिण दीवार से लगा सतपुला 64.96 मीटर ऊंचा है और सातों मुंहों पर लगे फाटकों से एक कृत्रिम झील का पानी नियंत्रित होता था।

(“बूंदों की संस्कृति” पुस्तक से साभार)

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