नौले-धारों के साथ दम तोड़ रही है उत्तराखंड की परंपरा

हिमालयी राज्य उत्तराखंड में नौला और धारों का पानी पिया जाता था, लेकिन इनमें से अधिकांश सूख चुके हैं, जिसके साथ-साथ एक परंपरा भी खत्म होती जा रही है 

On: Wednesday 04 September 2019
 
उत्तराखंड के अल्मोड़ा नगर में स्थित कपीना धारे में कम होती जा रहा है पानी की धार। फोटो: चंद्रशेखर तिवारी

चन्द्रशेखर तिवारी

भारत के हिमालयी क्षेत्र में त्रिपुरा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, नागालैण्ड, असम, सिक्किम, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश व जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य शामिल हैं। हिमालयी क्षेत्र के निवासियों के पेयजल के पारम्परिक साधन मुख्यतः प्राकृतिक जलस्रोत होते हैं। अंग्रेजी शब्दकोष में इन जलस्रोतों का उल्लेख स्प्रिंग, नेचुरल स्प्रिंग या माउंटेन स्प्रिंग नाम से मिलता है।

हिमालयी क्षेत्र के गांवों की आकारिकी का अध्ययन करने पर इस बात की जानकारी मिलती है कि गांव बसने की प्रक्रिया में आवासीय भवन सर्वप्रथम इन्हीं जलस्रोतों के आसपास विकसित हुए। प्राकृतिक जलस्रोत उत्तराखण्ड में नौला तथा धारा अथवा मंगरा नाम से जाने जाते हैं। जम्मू-कश्मीर में इन्हें नाग या चश्मा और हिमाचल प्रदेश में बावड़ी या बौली नाम से पुकारा जाता है। सिक्किम में इस तरह के जलस्रोतों को धारा कहा जाता है। एक अनुमान के आधार पर समूचे भारतीय हिमालय क्षेत्र के साठ हजार गांवों में तकरीबन पांच लाख से अधिक जलस्रोत हैं।

लगभग पांच करोड़ की ग्रामीण जनसंख्या का साठ प्रतिशत हिस्सा इन जलस्रोतों का उपयोग पेयजल के लिए प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर करता है। उत्तराखंड में इन नौलों धारों का ऐतिहासिक व सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्व है। यहां के कई नौले अत्यंत प्राचीन हैं।

इतिहासविदों के अनुसार उत्तराखंड के कुमांऊ अंचल में स्थित अधिकांश नौलों-धारों का निर्माण मध्यकाल से अठारहवीं सदी के दौरान हुआ था। चम्पावत के समीप एक हथिया नौला, बालेश्वर का नौला, गणनाथ का उदिया नौला, पाटिया का स्यूनराकोट नौला तथा गंगोलीहाट का जाह्नवी नौला सहित कई अन्य नौले अपनी स्थाप्त्य कला के लिए आज भी प्रसिद्ध हैं।

कहा जाता है कि कभी अल्मोड़ा नगर में एक समय 300 से अधिक नौले थे, जिनका उपयोग नगरवासियों द्वारा शुद्ध पेयजल के लिए किया जाता था। यहां के आसपास के कई गांवों अथवा मुहल्लों का नामकरण भी नौलों धारों के नाम पर हुआ है, जैसे- पनुवानौला, चम्पानौला, तामानौली, रानीधारा, धारानौला आदि।

उत्तराखंड में विवाह और अन्य विशेष अवसरों पर नौलों धारों में जल पूजन की भी समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा दिखायी देती है जो एक तरह से मानव जीवन में जल के महत्व को इंगित करती है।

नौला

वस्तुतः नौला ऐसे स्रोत पर बना होता है, जहां पानी जमीन से रिस-रिस कर पहुंचता है। नौले की संरचना एक प्रकार से लघु बावड़ी की तरह ही होती है। नौले को तीन ओर से पत्थरों की दीवार से बंद किया जाता है जिसमें ऊपर से पाथर (स्लेट) की छत पड़ी होती है। अन्दर जिस स्थान में जल एकत्रित होता है उसका आकार वर्गाकार वेदी के ठीक उलट होता है, जो ऊपर की ओर चौड़ा रहता है तथा नीचे की ओर क्रमशः धीरे-धीरे संकरा होता जाता है।

कुछ जगह पर नौलों का एक और रूप भी मिलता है, जिसे कुमांउनी बोली में चुपटौल कहते हैं। चुपटौल की बनावट नौलों की तरह नहीं होती उसकी उपस्थिति अनगढ़ स्वरुप में मिलती है। स्रोत के पास गड्ढा करके सपाट पत्थरो की बंध बनाकर जल को रोक दिया जाता है और इसमें छत भी नहीं होती।

नौलों के सन्दर्भ में मुख्य बात यह होती है कि इसका स्रोत बहुत संवेदनशील होता है। अगर अकुशल व्यक्ति किसी तरह इसके बनावट और मूल तकनीक में जरा भी छेड़छाड़ करता है तो नौले में पानी का रिसाव होना बंद हो जाता है।

अल्मोड़ा नगर में स्थित कपीना नौले का यह रेखांकन निधि तिवारी द्वारा बनाया गया है।

यही नहीं, भू-स्खलनव भू-धंसाव होने तथा भूकम्प आने पर भी नौले में पानी का प्रवाह कम हो जाता है। कभी-कभी यह परिणिति नौलों के सूख जाने तक पहुंच जाती है। नौले की बनावट में इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि इसमें अतिरिक्त पानी जमा न हो सके, इसके लिए जल निकास की नाली बनी होती है, ताकि निश्चित स्तर तक पहंुचने के बादशेष पानी नौले से आसानी पूर्वक बाहर आ सके। नौले के गर्भगृह में देवी देवताओं विशेषकर विष्णु की मूर्ति रखी रहती है।

धारा अथवा मंगरा

धारे अथवा मंगरे उत्तराखण्ड के सर्वाधिक प्रचलित पारम्परिक पेयजल के साधनों में एक हैं। यह जमीन की सतह से थोड़ा ऊंचाई पर बने होते हैं। पहाड़ का भूमिगत जल जब सोत के रुप में फूटकर बाहर निकलता है तो उसे यहां के निवासी पत्थर अथवा लकड़ी का पतनाला बनाकर उस जल को धार का रुप प्रदान कर देते हैं ताकि उसके नीचे जलपात्र रखकर पानी आसानी से भरा जा सके।

प्राचीन धारों के निकास द्वार मकर ,कामधेनु अथवा सिंह की मुखाकृति से अलंकृत रहते हैं। बरसात के दिनों में भूमिगत जल स्तर बढ़ जाने से कुछ धारे अल्प अवधि तक आबाद रहते हैं जिनमें जलधारा के निकास हेतु पत्ते लगा दिये जाते हैं। बनावट के आधार परउत्तराखण्ड में स्थानीय स्तर पर कई तरह के धारे मिलते हैं यथा- सिरपत्या धारा, मुणपत्या धारा व पतबिड़िया धारा आदि, लेकिन आज इनकी स्थिति अत्यंत चिन्ताजनक है।

इस क्षेत्र में स्थान-स्थान पर स्थानीय समाज की अपनी जल संचयन प्रणाली सांस्कृतिक दृष्टि से समूची हिमालयी  परम्परा को समृद्धता प्रदान करतीं थी। पूर्व में यहां के बावड़ी,  व नौलों-धारों की देखरेख उनकी सफाई व्यवस्था व जीर्णोद्धार की जिम्मेदारी में गाँव समुदाय की सामूहिक सहभागिता का भाव होता था। लोग बढ़-चढ़ इसके रखरखाव, साफ-सफाई में श्रमदान कर अपनी भागीदारी निभाते थे। परन्तु आज पहाड़ के गावों में बढ़ते पलायन तथा कस्बों व नगरों में बढ़ती जनसंख्या के फलस्वरूप  इस तरह के परंपरागत साधनों पर संकट आ रहा है।

इसके अलावा ग्लोबल वार्मिंग, पर्यावरण असन्तुलन, प्रत्यक्ष जनभागीदारी के अभाव तथा सरकारी पाइप लाइन, हैंडपम्प, व नलकूपों  के जरिये पेयजल आपूर्ति होने के कारण इस तरह के परम्परागत जल संचयन प्रणाली व प्राकृतिक जलस्रोत उपेक्षित और बदहाल स्थिति में पहुंच गये हैं। पर्यावरणीय व सांस्कृतिक धरोहर की दृष्टि से इन नौलों व धारों का खत्म होना हम सब के लिए एक बहुत बड़ा सवाल है।

आवश्यकता इस बात की है कि इस जल संचयन परम्परा को पुनर्जीवित करने हेतु गांव समाज की पहल पर चौड़ी पत्ती के पौधों का रोपण व चाल-खाल निर्माण को प्राथमिकता दी जाय। साथ ही, सरकारी स्तर पर समुचित नीति निर्धारिण के साथ समाजोन्मुखी विकास को केन्द्र में रखकर जल-संरक्षण की ऐसी दीर्घकालिक योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाए, जिसमें ग्रामीण व स्थानीय आम लोगों की प्रत्यक्ष भागीदारी सुनिश्चित हो। इस तरह पर्यावरण का सतत विकास तो होगा ही साथ ही सांस्कृतिक विरासत के तौर पर हिमालय की यह पुरातन परम्परा पुनः समृद्धता की ओर कदम बढ़ा सकेगी।

- लेखक दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र, 21,परेड ग्राउण्ड, देहरादून में रिसर्च एसोसिएट के पद पर कार्यरत हैं।

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